श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 441 सतिगुर मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥ नामु विहाझे नामु लए नामि रहे समाए ॥ धावतु थम्हिआ सतिगुरि मिलिऐ दसवा दुआरु पाइआ ॥ तिथै अम्रित भोजनु सहज धुनि उपजै जितु सबदि जगतु थम्हि रहाइआ ॥ तह अनेक वाजे सदा अनदु है सचे रहिआ समाए ॥ इउ कहै नानकु सतिगुरि मिलिऐ धावतु थम्हिआ निज घरि वसिआ आए ॥४॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: धावतु = भटकता (मन)। थंमि्आ = (भटकने से) थामा, रोक लिया जाता है। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में। आऐ = आ के। विहाझे = खरीदता है। लऐ = लेता है, सिमरता है। नामि = नाम में। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। दसवा दुआरु = नौ गोलकों के प्रभाव में से निकल के वह दसवां दरवाजा जहाँ भटकना समाप्त हो जाती है। तिथै = उस आत्मिक अवस्था में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की रौंअ। जितु = जिस आत्मिक अवस्था में। सबदि = शबद में (जुड़ के)। जगतु = जगत का मोह। थंमि् = रोक के। सचे = सदा स्थिर प्रभू में ही।4। अर्थ: (हे भाई!) अगर गुरू मिल जाए तो ये भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है, ये प्रभू-चरणों में आ टिकता है। (फिर ये) परमात्मा के नाम का सौदा करता है (भाव) परमात्मा का नाम जपता रहता है, नाम में लीन रहता है। (हे भाई! यदि गुरू मिल जाए तो) भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है (यही आत्मिक अवस्था है वह) दसवाँ दरवाजा जो इसे मिल जाता है (जो ज्ञानेंद्रियों और कर्म इन्द्रियों से ऊँचा रहता है)। उस आत्मिक अवस्था में (पहुँच के ये मन) आत्मिक जीवन देने वाले नाम की खुराक खाता है; (इसके अंदर) आत्मिक अडोलता की रौंअचल पड़ती है, उस आत्मिक अवस्था में (ये मन) गुरू शबद की बरकति से दुनिया के मोह को रोक के रखता है। (जैसे अनेक किसम के साज बजने से बड़ा सुंदर राग पैदा होता है, वैसे ही) उस आत्मिक अवस्था में (मन के अंदर, मानो) अनेको संगीतमयी साज बनजे लग पड़ते हैं, इसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, मन सदा-स्थिर परमात्मा में लीन रहता है। (हे भाई! तुझे) नानक ऐसे बताता है कि गुरू मिल जाए तो ये भटकता मन (भटकने से) रुक जाता है, और प्रभू-चरणों में आ टिकता है।4। मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु ॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई ॥ गुर परसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई ॥ मनि सांति आई वजी वधाई ता होआ परवाणु ॥ इउ कहै नानकु मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु ॥५॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: मन = हे मन! जोति = नूर, प्रकाश। मूलु = असलियत। पछाणु = सांझ बनाए रख। गुरमती = गुरू की मति ले के। रंगु = आत्मिक आनंद। सहु = पति प्रभू। सोझी = समझ। परसादी = प्रसाद से, कृपा से। जाणहि = अगर तू सांझ डाल ले। दूजा भाउ = (प्रभू के बिना माया आदि का) और प्यार। मनि = मन में। वजी वधाई = चढ़दी कला प्रबल हो जाए (जैसे बाजे बजने से बाकी छोटे-मोटे शोर सुनाई नहीं देते)। ता = तब, तो।5। अर्थ: हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की अंश है जो निरा नूर ही नूर है (हे मन!) अपनी उस अस्लियत से सांझ बना। हे मन! वह परमात्मा सदा तेरे अंग-संग बसता है, गुरू की मति ले के उसके मिलाप का स्वाद ले। हे मन! अगर तू अपनी अस्लियत समझ ले तो उस पति-प्रभू से तेरी गहरी जान-पहचान बन जाएगी, तब तुझे ये समझ भी आ जाएगा कि आत्मिक मौत क्या चीज है और आत्मिक जिंदगी क्या है। हे मन! अगर गुरू की कृपा से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ले, तो तेरे अंदर (परमात्मा के बिना) कोई और मोह प्रबल नहीं हो सकेगा। जब मनुष्य के मन में शांति पैदा हो जाती है जब इसके अंदर चढ़दीकला प्रबल हो जाती तब ये प्रभू की हजूरी में कबूल हो जाता है। नानक ऐसे बताता है–हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की अंश है जो निरा प्रकाश ही प्रकाश है (हे मन! अपने उस असल से सांझ बना, असल को पहचान)।5। मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जाहि ॥ माइआ मोहणी मोहिआ फिरि फिरि जूनी भवाहि ॥ गारबि लागा जाहि मुगध मन अंति गइआ पछुतावहे ॥ अहंकारु तिसना रोगु लगा बिरथा जनमु गवावहे ॥ मनमुख मुगध चेतहि नाही अगै गइआ पछुतावहे ॥ इउ कहै नानकु मन तूं गारबि अटिआ गारबि लदिआ जावहे ॥६॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: मन = हे मन! गारबि = अहंकार से। अटिआ = लिबड़ा हुआ। जाहि = जाएगा। भवाहि = चक्कर खाएगा। मुगध = मूर्ख। पछुतावहे = पछताएगा। तिसना = लालच। गवावहे = गवाए। मनमुख = हे मन मरजी वाले मन! चेतहि नाही = तू चेतता नहीं। जावहो = जाएगा।6। अर्थ: हे मन! तू (अब) अहंकार से लिबड़ा पड़ा है, अहंकार से लादा हुआ ही (जगत से) चला जाएगा, (देखने को) सुंदर माया ने तुझे (अपने) मोह में फसाया हुआ है (इसका नतीजा ये निकलेगा कि) तुझे बार-बार अनेकों जूनियों में डाला जाएगा। हे मूर्ख मन! जब तू अहंकार में फंसा हुआ ही (यहाँ से) चलेगा तो चलने के वक्त हाथ मलेगा, तूझे अहंकार चिपका हुआ है, तुझे तृष्णा का रोग लगा हुआ है तू (ये मानस) जन्म व्यर्थ गवा रहा है। हे मन-मर्जियां करने वाले मूर्ख मन! तू परमात्मा को नहीं सिमरता, परलोक पहुँच के अफसोस करेगा। (तुझे) नानक इस तरह बताता है कि तू यहाँ अहंकार से भरा हुआ है (जगत से चलने के वक्त भी) अहंकार से लदा हुआ ही जाएगा।6। मन तूं मत माणु करहि जि हउ किछु जाणदा गुरमुखि निमाणा होहु ॥ अंतरि अगिआनु हउ बुधि है सचि सबदि मलु खोहु ॥ होहु निमाणा सतिगुरू अगै मत किछु आपु लखावहे ॥ आपणै अहंकारि जगतु जलिआ मत तूं आपणा आपु गवावहे ॥ सतिगुर कै भाणै करहि कार सतिगुर कै भाणै लागि रहु ॥ इउ कहै नानकु आपु छडि सुख पावहि मन निमाणा होइ रहु ॥७॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: जि = कि। हउ = मैं। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। निमाणा = आजिज, माण रहित। अंतरि = (तेरे) अंदर। हउ बुधि = अहंकार भरी बुद्धि। सचि = सदा स्थिर हरी में। सबदि = शबद में। आपु = अपना आप। लखावहे = दिखाए। अहंकारि = अहंकार में। भाणै = रजा में। छडि = छोड़ के। मन = हे मन!।7। अर्थ: हे मन! देखना, कहीं ये गुमान ना कर बैठना कि मैं (बहुत) समझदार हूँ, गुरू की शरण पड़ के माण त्याग के रख। (हे मन!) तेरे अंदर परमात्मा से दूरी है, तेरे अंदर ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि है, इस मैल को सदा-स्थिर हरि नाम में जुड़ के गुरू के शबद में टिक के दूर कर। हे मन! विनम्र हो के गुरू के चरणों में गिर पड़ो। देखना, कहीं अपना आप जताने मत लग पड़ना। जगत अपने ही अहंकार में जल रहा है, देखना, कहीं तू भी (अहंकार में पड़ कर) अपने आपका नाश मत कर लेना। (इस खतरे से तभी बचेगा, अगर) तू गुरू के हुकम में चल के काम करेगा। (सो, हे मन!) गुरू के हुकम मे टिका रह। (हे मन! तुझे) नानक इस प्रकार समझाता है– हे मन अहंकार त्याग दे, अहंकार छोड़ के ही सुख पाएगा।7। धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥ महा अनंदु सहजु भइआ मनि तनि सुखु पाइआ ॥ सो सहु चिति आइआ मंनि वसाइआ अवगण सभि विसारे ॥ जा तिसु भाणा गुण परगट होए सतिगुर आपि सवारे ॥ से जन परवाणु होए जिन्ही इकु नामु दिड़िआ दुतीआ भाउ चुकाइआ ॥ इउ कहै नानकु धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ सो सहु चिति आइआ ॥८॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: धंनु = भाग्यशाली। जितु = जिस में जब। मैं = तुझे। सहु = पति। चिति = चिॅत में। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन ने। तनि = तन ने, हृदय ने। मंनि = मनि, मन में। सभि = सारे। तिसु = उस (प्रभू) को। सवारे = (जीवन) सुंदर बना देता है। दिढ़िआ = दृढ़ कर लिया, हृदय में पक्का कर लिया। दुतीआ = दूसरा। भाउ = प्यार।8। अर्थ: वह वक्त सौभाग्यपूर्ण था जब मुझे गुरू मिल गया था (और, गुरू की किरपा से) वह पति-प्रभू मेरे चित्त में आ बसा। मेरेअंदर बहुत आनंद पैदा हुआ, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो गई, मेरे मन ने मेरे दिल ने सुख अनुभव किया। (गुरू की कृपा से) वह पति-प्रभू मेरे चित्त में आ बसा, (गुरू ने प्रभू को) मेरे मन में बसा दिया, और मेरे ही अवगुण भुला दिए। (हे भाई!) जब उस मालिक को ठीक लगता है उसके गुण मनुष्य के अंदर रौशन हो जाते हैं, गुरू स्वयं उस मनुष्य के जीवन को सुंदर बना देता है। जो मनुष्य सिर्फ हरि-नाम को अपने दिल में पक्का कर लेते हैं, और माया का मोह अंदर से दूर कर लेते हैं, वे परमात्मा की दरगाह में कबूल हो जाते हैं। नानक इस प्रकार कहता है– भाग्यशाली था वह समय जब मुझे गुरू मिला था और (गुरू की कृपा से) वह पति-प्रभू मेरे चित्त में आ बसा था।8। इकि जंत भरमि भुले तिनि सहि आपि भुलाए ॥ दूजै भाइ फिरहि हउमै करम कमाए ॥ तिनि सहि आपि भुलाए कुमारगि पाए तिन का किछु न वसाई ॥ तिन की गति अवगति तूंहै जाणहि जिनि इह रचन रचाई ॥ हुकमु तेरा खरा भारा गुरमुखि किसै बुझाए ॥ इउ कहै नानकु किआ जंत विचारे जा तुधु भरमि भुलाए ॥९॥ {पन्ना 441} पद्अर्थ: इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। भरमि = भटकना में। भुले = गलत राह पर पड़े हुए। तिनि = उस ने। सहि = शहु ने। तिनि सहि = उस पति प्रभू ने। दूजै भाइ = माया के प्यार में। कमाऐ = कमा के, कर करके। कुमार्ग = बुरे राह पर। वसाई = वश, जोर। अविगत = बुरी हालत। जिनी = जिस (तुझ) ने। खरा = बहुत। गुरमुखि = गुरू की शरण डाल के। बुझाऐ = समझाता है। तुधु = तू ही।9। अर्थ: (हे भाई!) अनेकों जीव माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं, (उस पैदा करने वाले) पति प्रभू ने खुद ही उन्हें गलत राह पर डाला हुआ है। ऐसे जीव अहंकार के आसरे काम कर कर के माया के मोह में भटकते हैं। उस पति प्रभू ने स्वयं (उन्हें) सही रास्ते से तोड़ा हुआ है और गलत राह पर डाला हुआ है, उन जीवों का कोई जोर नहीं चलता (कि अपने उद्यम से गलत रास्ता छोड़ दें)। हे प्रभू! जिस तुझ ने ये जगत रचना रची हुई है तू स्वयं ही (गलत राह पर पड़े हुए) उन जीवों की अच्छी-बुरी आत्मिक हालत जानता है (जिसके मुताबिक तूने उन्हें गलत रास्ते पर डाला है)। तेरा हुकम बहुत दमदार है (जिसके कारण जीव गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं)। (हे भाई!) किसी विरले भाग्यशाली को पति प्रभू गुरू की शरण डाल के अपना हुकम समझाता है। नानक ऐसे कहता है– हे प्रभू! अगर तूने खुद ही जीवों का माया की भटकना में डाल के जिंदगी के बुरे रास्ते डाला हुआ है, तो ये बिचारे जीव क्या कर सकते हैं?।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |