श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ आपे ही करणा कीओ कल आपे ही तै धारीऐ ॥ देखहि कीता आपणा धरि कची पकी सारीऐ ॥ जो आइआ सो चलसी सभु कोई आई वारीऐ ॥ जिस के जीअ पराण हहि किउ साहिबु मनहु विसारीऐ ॥ आपण हथी आपणा आपे ही काजु सवारीऐ ॥२०॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: करणा = शरीर, किया हुआ आकार, सृष्टि। तै = (हे प्रभू!) तू। धरि = धर के, रख के, (जगत में) रच के। सारी = नर्द, जीव रूपी नर्दें। कची पकी सारीअै = कच्ची पक्की नर्दों को, अच्छे बुरे जीवों को। जिस के = जिस प्रभू के।20।

अर्थ: (हे प्रभू!) तूने खुद ही ये सृष्टि रची है और तूने खुद ही इसमें (जीवात्मा रूपी) सत्ता डाली है। अच्छे-बुरे जीवों को पैदा करके, अपने पैदा किए हुओं की तू खुद ही संभाल कर रहा है।

(हे भाई!) जिस प्रभू के दिए हुए ये शरीर और प्राण हैं, उस मालिक को मन से कभी नहीं भुलाना चाहिए। (जब तक ये शरीर और प्राण मिले हुए हैं, उद्यम कर के) अपने हाथों से अपना काम आप ही सँवारना चाहिए (भाव, ये मनुष्य जन्म हरी के सिमरन के साथ सफल करना चाहिए)।20।

सलोकु महला २ ॥ एह किनेही आसकी दूजै लगै जाइ ॥ नानक आसकु कांढीऐ सद ही रहै समाइ ॥ चंगै चंगा करि मंने मंदै मंदा होइ ॥ आसकु एहु न आखीऐ जि लेखै वरतै सोइ ॥१॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: दूजै = (अपने प्रीतम को छोड़ के) किसी और में। कांढीअै = कहा जाता है, कहते हैं। रहै समाइ = समाए रहे, मस्त रहे, (अपने प्रीतम की याद में) डूबा रहे। चंगै = अच्छे (काम) को, (अपने प्यारे द्वारा किसी) अच्छे काम को। मंदै मंदा होइ = (अपने सज्जन द्वारा हुए किसी) बुरे (काम) को (देख के, कहे कि ये) बुरा (काम) हुआ है। जि सोइ = अगर वह मनुष्य; जो मनुष्य।1।

अर्थ: (अगर कोई प्रेमी जीव अपने प्यारे के बिना) किसी और में (भी) चित्त जोड़ ले, तो उसके इश्क को सच्चा इश्क नहीं कहा जा सकता। हे नानक! वही मनुष्य सच्चा आशिक कहा जा सकता है जो हर समय (अपने ही प्रीतम की याद में) डूबा रहे।

(अपने प्यारे द्वारा हुए किसी) अच्छे (काम) को देख के कहे कि ये अच्छा काम है, पर बुरे काम को देख के कहे कि बुरा काम है (भाव, अपनी ओर से आए सुख को हस के कबूल करे, पर दुख को देख के घबरा जाए) वह मनुष्य भी, हे नानक! सच्चा आशिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह लेखे गिन-गिन के प्यार की सांझ बनाता है।1।

महला २ ॥ सलामु जबाबु दोवै करे मुंढहु घुथा जाइ ॥ नानक दोवै कूड़ीआ थाइ न काई पाइ ॥२॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: सलामु = नम्रता, सिर नमन। जबाबु = एतराज, ना नुक्कर। मुंढहु = बिल्कुल ही। दोवै = दानों बातें, भाव, कभी सिर झुकाना कभी आगे बोल पड़ना।2।

अर्थ: (जो मनुष्य अपने मालिक प्रभू के हुकम के आगे कभी तो) सिर निवाता है और कभी (उसके किए ऊपर) एतराज करता है, वह (मालिक की रजा के राह पर चलने से) बिल्कुल ही वंचित रहता है। हे नानक! (ऐसे मनुष्य का) सिर झुकाना और ऐतराज दोनों ही झूठे हैं, इनके दोनों में कोई भी बात (मालिक के दर पर) मंजूर नहीं होती।2।

पउड़ी ॥ जितु सेविऐ सुखु पाईऐ सो साहिबु सदा सम्हालीऐ ॥ जितु कीता पाईऐ आपणा सा घाल बुरी किउ घालीऐ ॥ मंदा मूलि न कीचई दे लमी नदरि निहालीऐ ॥ जिउ साहिब नालि न हारीऐ तेवेहा पासा ढालीऐ ॥ किछु लाहे उपरि घालीऐ ॥२१॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: समालीअै = संभालना चाहिए, याद रखना चाहिए। जितु = जिस (काम के करने) से। सा घाल = वह मेहनत। मूलि न कीचई = बिल्कुल नहीं करना चाहिए। निहालीअै = देखना चाहिए। जिउ = जिस तरह, जिस तरीके से। न हारीअै = ना टूटे। तेवेहा = वैसा। पासा ढालीअै = चाल चलनी चाहिए, उद्यम करना चाहिए। घालीअै = कमाई करनी चाहिए, मेहनत करनी चाहिए।21।

अर्थ: जिस मालिक का सिमरन करने से सुख मिलता है, उस मालिक को सदा याद रखना चाहिए। जब मनुष्य ने अपने किए का फल खुद ही भोगना है तो फिर कोई बुरी कमाई नहीं करनी चाहिए (जिसका बुरा फल भोगना पड़े)। बुरा काम भूल के भी ना करें, गहरी (विचार वाली) नजर मार के देख लें (कि इस बुरे काम का नतीजा क्या निकलेगा)। कोई ऐसा उद्यम ही करना चाहिए जिससे (प्रभू) पति से (प्रीत) ना टूटे। (मानस जन्म पा के) कोई नफे वाली मेहनत ही करनी चाहिए।21।

सलोकु महला २ ॥ चाकरु लगै चाकरी नाले गारबु वादु ॥ गला करे घणेरीआ खसम न पाए सादु ॥ आपु गवाइ सेवा करे ता किछु पाए मानु ॥ नानक जिस नो लगा तिसु मिलै लगा सो परवानु ॥१॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: चाकरी नाले = चाकरी के साथ, चाकरी भी करे और। गारबु = (शब्द ‘गर्व’ का विषोशण है) अहंकार वाला, अहंकार भरा। वादु = झगड़ा। सादु = प्रसन्नता, खुशी। आपु = अपने आप को, अहम्, अहंकार। ता = तब। जिस नो लगा = जिस मालिक की सेवा करता है। तिसु = उस मालिक को। लगा सो = सो (मनुष्य) लगा हुआ, मालिक की सेवा में लगा हुआ वह मनुष्य।1।

अर्थ: जो कोई नौकर अपने मालिक की नौकरी भी करे, और साथ-साथ अपने मालिक के आगे आकड़ भरी बातें भी करे और ऐसी बाहरी बातें मालिक के सामने करे, तब वह नौकर मालिक की खुशी हासिल नहीं कर सकता।

मनुष्य अपना आपा मिटा के (मालिक की) सेवा करे तब ही उसको (मालिक के दर से) कुछ आदर मिलता है। तब ही, हे नानक! वह मनुष्य अपने उस मालिक को मिलता है जिसकी सेवा में लगा हुआ है। (अपना आप गवा के सेवा में) लगा हुआ मनुष्य ही (मालिक के दर पर) कबूल होता है।1।

महला २ ॥ जो जीइ होइ सु उगवै मुह का कहिआ वाउ ॥ बीजे बिखु मंगै अम्रितु वेखहु एहु निआउ ॥२॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: जीइ = जी में, मन में। मुह का कहिआ = मुंह का कहा हुआ, जबानी कहे हुए वचन। वाउ = हवा, पवन अर्थात, हवा की तरह ऊपर ऊपर से। वेखहु ऐहु निआउ = इस न्याय को देखो; ये किस न्याय की बात है? ये कैसा न्याय है?।2।

अर्थ: जो कुछ मनुष्य के दिल में होता है वही प्रगट होता है (भाव, जैसी मनुष्य की नीयत होती है वैसे ही उसे फल लगता है), (अगर अंदर नीयत कुछ और हो, तो उसके उलट) मुंह से कह देना व्यर्थ है। ये कैसी आश्चर्य भरी बात है कि मनुष्य बीजता तो जहर है (भाव, नीयत तो विकारों की तरफ है) (पर उसके फल के रूप में) मांगता अमृत है।2।

महला २ ॥ नालि इआणे दोसती कदे न आवै रासि ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै वेखहु को निरजासि ॥ वसतू अंदरि वसतु समावै दूजी होवै पासि ॥ साहिब सेती हुकमु न चलै कही बणै अरदासि ॥ कूड़ि कमाणै कूड़ो होवै नानक सिफति विगासि ॥३॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: जेहा जाणै = जैसी उस अंजान की समझ होती है। तेहो वरतै = वैसा ही वह काम करता है। को = कोई मनुष्य। निरजासि = निर्णय करके, परख करके। समावै = पड़ सकती है, समा सकती है। पासि = पासे, अलग। साहिब सेती = मालिक के साथ। बणै = फबती है। कूड़ि कमावै = छल करने से, ठॅगी कमाई करने से, धोखे का काम करने से। विगासि = अंदर उल्लास पैदा होता है, अंदरला खिल आता है।3।

अर्थ: कोई भी मनुष्य परख के देख ले, किसी अंजान से लगाई हुई मित्रता कभी सिरे नहीं चढ़ती, क्योंकि उस अंजान का रवईआ वैसा ही रहता है जैसी उसकी समझ होती है; (इसी तरह उस मूर्ख मन के आगे लगने का कभी कोई लाभ नहीं होता, ये मन अपनी समझ अनुसार विकारों में ही लिए फिरता है)।

किसी एक चीज में कोई और चीज तभी पड़ सकती है अगर उसमें से पहली पड़ी हुई चीज निकाल ली जाए; (इस तरह इस मन को प्रभू की तरफ जोड़ने के लिए जरूरी है कि इसका पहला स्वभाव तबदील किया जाए)।

पति से हूकम किया हुआ कामयाब नहीं हो सकता, उसके आगे तो विनम्रता ही फबती है।

हे नानक! धोखे का काम करने से धोखा ही होता है, (भाव, जितनी देर मनुष्य दुनिया के धंधों में लगा रहता है, तब तक चिंता में ही फसा रहता है, मन) प्रभू की सिफत सालाह करके ही खिड़ाव में आता है, सही मायने में प्रसन्नता पाता है।3।

महला २ ॥ नालि इआणे दोसती वडारू सिउ नेहु ॥ पाणी अंदरि लीक जिउ तिस दा थाउ न थेहु ॥४॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: वडारू = बड़ा मनुष्य, अपने से बड़ा।4।

अर्थ: अंजान से मित्रता व अपने से बड़े के साथ प्यार- ये ऐसे ही हैं जैसे पानी में लकीर, उस लकीर का कोई निशान नहीं रहता।4।

महला २ ॥ होइ इआणा करे कमु आणि न सकै रासि ॥ जे इक अध चंगी करे दूजी भी वेरासि ॥५॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: इक अध = कोई एक काम, थोड़ा बहुत। वेरासि = उलट खराब।5।

अर्थ: अगर कोई अंजान हो और वह कोई काम करे, वह काम सिरे नहीं चढ़ सकता; अगर कोई एक-आध काम वह ठीक कर भी ले तो दूसरे काम को बिगाड़ देगा।5।

पउड़ी ॥ चाकरु लगै चाकरी जे चलै खसमै भाइ ॥ हुरमति तिस नो अगली ओहु वजहु भि दूणा खाइ ॥ खसमै करे बराबरी फिरि गैरति अंदरि पाइ ॥ वजहु गवाए अगला मुहे मुहि पाणा खाइ ॥ जिस दा दिता खावणा तिसु कहीऐ साबासि ॥ नानक हुकमु न चलई नालि खसम चलै अरदासि ॥२२॥ {पन्ना 474}

पद्अर्थ: खसमै भाइ = पति की मर्जी के मुताबिक, अपने मालिक की मर्जी के पीछे। हुरमति = इज्जत। अगली = बहुती। वजहु = तनखाह, रोजीना, वजीफा। गैरति = शर्मिंदगी। अगला = पहला, जो पहले मिलता था। मुहे मुहि = मुंह पर, भाव सदा अपने मुंह पर। पाणा = जूतियां।22।

अर्थ: जो नौकर अपने मालिक की मर्जी के मुताबिक चले (तभी समझो, कि) वह मालिक की नौकरी कर रहा है, एक तो उसे बड़ी इज्जत मिलती है, दूसरा तनख्वाह भी मालिक से दोगुनी लेता है।

पर, अगर सेवक अपने मालिक की बराबरी करता है, वह मन में शर्मिंदगी ही उठाता है, अपनी पहली तनख्वाह भी गवा बैठता है और सदा मुंह पर जूतियां खाता है।

हे नानक! जिस मालिक का दिया हुआ खाएं, उसकी सदा उपमा करनी चाहिए; मालिक पर हुकम नहीं किया जा सकता, उसके आगे अर्ज करनी ही फबती है।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh