श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा ॥ गज साढे तै तै धोतीआ तिहरे पाइनि तग ॥ गली जिन्हा जपमालीआ लोटे हथि निबग ॥ ओइ हरि के संत न आखीअहि बानारसि के ठग ॥१॥ ऐसे संत न मो कउ भावहि ॥ डाला सिउ पेडा गटकावहि ॥१॥ रहाउ ॥ बासन मांजि चरावहि ऊपरि काठी धोइ जलावहि ॥ बसुधा खोदि करहि दुइ चूल्हे सारे माणस खावहि ॥२॥ ओइ पापी सदा फिरहि अपराधी मुखहु अपरस कहावहि ॥ सदा सदा फिरहि अभिमानी सगल कुट्मब डुबावहि ॥३॥ जितु को लाइआ तित ही लागा तैसे करम कमावै ॥ कहु कबीर जिसु सतिगुरु भेटै पुनरपि जनमि न आवै ॥४॥२॥ {पन्ना 476}

पद्अर्थ: साढै तै तै = साढ़े तीन तीन। तग = धागे, जनेऊ। जपमालीआ = माला। हथि = हाथ में। निबग = बहुत ही सफेद, चमकाए हुए। ओइ = वह मनुष्य (बहुवचन, Plural)। आखीअहि = कहे जाते हैं।1।

मो कउ = मुझे। डाला = टहनियां। पेडा = पेड़, पौधा। सिउ = समेत, साथ। गटकावहि = खा जाते हैं।1। रहाउ।

बासन = बरतन। काठी = लकड़ियां, जलाने वाली लकड़ियां। बसुधा = धरती। खोदि = खोद के।2।

मुखहु = मुंह से। अपरस = अ+परस, ना छूने वाले, वह साधू जो किसी मायावी पदार्थ को छूते नहीं हैं। कुटंब = परिवार।3।

जितु = जिस तरफ। को = कोई मनुष्य। तित ही = उसी तरफ। भेटै = मिले। पुनरपि = पुनह अपि, फिर भी, फिर कभी। जनमि = जनम में, जनम मरण के चक्कर में।4।

अर्थ: (जो मनुष्य) साढ़े तीन-तीन गज (लंबी) धोतियां (पहनते हैं और) तिहरी तंदों वाले जनेऊ पहनते हैं, जिनके गलों में मालाएं हैं और हाथों में चमचमाते लोटे हैं (निरे इन लक्षणों को देख के) वे लोग परमात्मा के भक्त नहीं कहे जा सकते (भक्त नहीं बन जाते), वह तो (असल में) बनारसी ठॅग हैं।1।

मुझे ऐसे संत नहीं भाते, जो मूल को ही टहनियों समेत खा जाते हैं (भाव, जो माया की खातिर मनुष्यों को जान से मार देने में भी संकोच ना करें)।1। रहाउ।

(ये लोग) धरती खोद के दो चूल्हे बनाते हैं, बर्तन मांज के (चूल्हों) पर रखते हैं, (नीचे) लकड़ियां धो के जलाते हैं (स्वच्छता तो इस तरह की, पर करतूत ये है कि) समूचे मनुष्य को खा जाते हैं।2।

इस तरह के मंद-कर्मी मनुष्य सदा विकारों में ही खचित फिरते हैं, वैसे मुंहसे कहलवाते हैं कि हम माया को छूते तक नहीं। सदा अहंकार में मतवाले हुए फिरते हैं (ये खुद तो डूबे ही थे) सारे साथियों को भी (इन बुरे कर्मों में) डुबोते हैं।3।

(पर जीवों के भी क्या वश?) जिस तरफ परमात्मा ने किसी मनुष्य को लगाया है उसी ही तरफ वह लगा हुआ है, और वैसे ही वह काम कर रहा है। हे कबीर! सच तो ये है कि जिस को सतिगुरू मिल जाता है, वह फिर कभी जनम (मरण के चक्कर) में नहीं आता।4।2।

आसा ॥ बापि दिलासा मेरो कीन्हा ॥ सेज सुखाली मुखि अम्रितु दीन्हा ॥ तिसु बाप कउ किउ मनहु विसारी ॥ आगै गइआ न बाजी हारी ॥१॥ मुई मेरी माई हउ खरा सुखाला ॥ पहिरउ नही दगली लगै न पाला ॥१॥ रहाउ ॥ बलि तिसु बापै जिनि हउ जाइआ ॥ पंचा ते मेरा संगु चुकाइआ ॥ पंच मारि पावा तलि दीने ॥ हरि सिमरनि मेरा मनु तनु भीने ॥२॥ पिता हमारो वड गोसाई ॥ तिसु पिता पहि हउ किउ करि जाई ॥ सतिगुर मिले त मारगु दिखाइआ ॥ जगत पिता मेरै मनि भाइआ ॥३॥ हउ पूतु तेरा तूं बापु मेरा ॥ एकै ठाहर दुहा बसेरा ॥ कहु कबीर जनि एको बूझिआ ॥ गुर प्रसादि मै सभु किछु सूझिआ ॥४॥३॥ {पन्ना 476}

पद्अर्थ: बापि = बाप ने, पिता ने, प्रभू पिता ने। दिलासा = धरवास, धीरज, ढारस, आसरा। कीना = (अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है) किया है। सेज = हृदय रूपी सेज। मुखि = मुंह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। मनहु = मन से। विसारी = मैं बिसारूँ। आगै = परलोक में। न हारी = मैं नहीं हारूँगा।1।

माई = माँ, माया। मुई...माई = मेरी माँ मर गई है, माया का दबाव मेरे पर हट गया है। हउ = मैं। खरा = बहुत। पहिरउ = मैं पहनता हूँ। दगली = रूईदार कुड़ती (अर्थात, शरीर) (फारसी: दगला)।

(नोट: सारे शबद का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है– मेरा माया का मोह मिट गया है, और मैं बार–बार जनम में नहीं आऊँगा)।1। रहाउ।

बलि = सदके, कुर्बान। जिनि = जिस पिता ने। जाइआ = (ये नया) जनम दिया है । भीने = भीग गए हैं। सिमरनि = सिमरन में।2।

(नोट: यहाँ साधारण मानस शरीर देने का जिक्र नहीं है, उस सुंदर तब्दीली का वर्णन है जो प्रभू की मेहर से हो गई है, और वह तब्दीली, वह नया जन्म, अगली तुक में बयान किया गया है)।

गोसाई = मालिक। पहि = पास। किउ करि = किस तरह? कौन से तरीके से? जाई = मैं जाऊँ। मनि = मन में। त = तब। भाइआ = प्यारा लगने लग पड़ा।3।

हउ = मैं। बसेरा = वासा। जनि = जन ने, दास ने। कहु = कह।4।

अर्थ: मेरे पर माया का प्रभाव मिट गया है, अब मैं बड़ा सुखी हो गया हूँ; ना अब मुझे माया का मोह सताता है, और ना ही मैं अब (बार-बार) शरीर-रूपी गोदड़ी (चोला) पहिनूँगा।1। रहाउ।

(मेरे अंदर टिक के) मेरे पिता-प्रभू ने मुझे सहारा दे दिया है, (जपने के लिए) मेरे मुंह में (उसने अपना) अमृत नाम दिया है, (इस वास्ते) मेरी (हृदय-रूपी) सेज सुखद हो गई। (जिस पिता ने इतना सुख दिया है) उस पिता को मैं (कभी) मन से नहीं भुलाऊँगा (जैसे यहाँ मैं सुखी हो गया हूँ, वैसे ही) आगे चल के (भी) मैं (मानस-जनम की) खेल नहीं हारूँगा।1।

जिस प्रभू-पिता ने मुझे (ये नया) जनम दिया है, उससे मैं सदके हूँ, उसने पाँच-कामादिकों से मेरा पीछा छुड़ा दिया है। अब वे पाँचों मार के मैंने अपने पैरों के तले दबा लिए हैं, क्योंकि (इनकी ओर से हट के) मेरा मन और तन प्रभू के सिमरन में मस्त हो गए हैं।2।

मेरा (वह) पिता बहुत बड़ा मालिक है (अगर कोई पूछे कि) मैं (कंगाल कबीर) उस पिता के पास कैसे पहुँच गया हूँ (तो इसका उत्तर ये है कि जब) मुझे सतिगुरू मिला तो उसने (पिता-प्रभू के देस का) राह दिखा दिया, और जगत का पिता-प्रभू मुझे मेरे मन में प्यारा लगने लगा।3।

(अब मैं निसंग हो के उसे कहता हूँ, हे प्रभू!) मैं तेरा बच्चा हूँ, तू मेरा पिता है, हम दोनों का (अब) एक जगह ही (मेरे हृदय में) निवास है। हे कबीर! अब तू कह– मुझ दास ने उस एक प्रभू को पहिचान लिया है (प्रभू से सांझ डाल ली है) सतिगुरू की कृपा से मुझे (जीवन के रास्ते की) सारी सूझ पड़ गई है।4।3।

आसा ॥ इकतु पतरि भरि उरकट कुरकट इकतु पतरि भरि पानी ॥ आसि पासि पंच जोगीआ बैठे बीचि नकट दे रानी ॥१॥ नकटी को ठनगनु बाडा डूं ॥ किनहि बिबेकी काटी तूं ॥१॥ रहाउ ॥ सगल माहि नकटी का वासा सगल मारि अउहेरी ॥ सगलिआ की हउ बहिन भानजी जिनहि बरी तिसु चेरी ॥२॥ हमरो भरता बडो बिबेकी आपे संतु कहावै ॥ ओहु हमारै माथै काइमु अउरु हमरै निकटि न आवै ॥३॥ नाकहु काटी कानहु काटी काटि कूटि कै डारी ॥ कहु कबीर संतन की बैरनि तीनि लोक की पिआरी ॥४॥४॥ {पन्ना 476}

नोट: आम तौर पर इस शबद के अर्थ करने के समय शबद के पहले बंद में वाम मार्गियों की तरफ इशारा बताया जाता है, और शब्द ‘नकट दे रानी’ का अर्थ ‘स्त्री’ किया जाता है। पर जब इसे ध्यान से विचारें तो ये ख्याल सारे शबद में निभता नहीं दिखता।

हरेक शबद के ‘रहाउ’ वाली तुक में आम तौर पर शबद का मुख्य भाव होता है। यहाँ ‘रहाउ’ की तुक में जिक्र है “नकटी को ठनगनु बाडा डूं”। अगर पहले बंद की दूसरी तुक में, शब्द ‘नकट दे रानी’ का अर्थ ‘स्त्री’ है तो तुरंत ही ‘रहाउ’ में इसका अर्थ क्यों बदला गया है? अगर ‘रहाउ’ वाले शब्द ‘नकटी’ वाले अर्थ भी ‘स्त्री’ ही करें, तो यह बिल्कुल ही गलत हो जाता है। फिर ये अर्थ बंद नंबर 2 में भी नहीं निभ सकता। असल बात ये है कि सारे शबद में ‘माया’ के प्रभाव का जिक्र है, और ‘माया’ के लिए शब्द ‘नकटी’ व ‘नकट दे रानी’ वरता गया है; इसे ‘निलज्ज’ कहा गया है, क्योंकि ये किसी का भी साथ नहीं निभाती।

पद्अर्थ: इकतु पतरि = एक बर्तन में। उरकट = (संस्कृत: अरंकृत) तैयार किया हुआ, पकाया हुआ। कुरकट = कुक्कड़ (का मास)। भरि = भर के, डाल के। पानी = (भाव) शराब। आसि पासि = (इस मास और शराब के) इर्दगिर्द, आस पास। पंच = कामादिक विकार। पंच जोगीआ = पाँच कामादिकों के साथ मेल जोल रखने वाले (जोग = मेल मिलाप, जोड़)। बीचि = (इन विषयी लोगों के) अंदर, इन विषयी लोगों के मन में। नकट = नक+कटी, निर्लज्ज। दे रानी = देवरानी, माया।1।

नकटी = निलज्ज माया। को = का। बाडा = बाजा। डूं = डूं डूं करता है, बजता है। ठनगनु = ठन ठन की आवाज करके। किनहि = किसी विरले ने। किनहि बिबेकी = किसी विरले विचारवान ने। तूं = तुझे। काटी = काटा है, दबाव दूर किया है।1। रहाउ।

सगल माहि = सबजीवों में। नकटी का वासा = निलज्ज माया का प्रभाव। मारि = मार के। अउहेरी = ताकती है, नीझ लगा के देखती है (कि कोई मेरी मार से बच तो नहीं गया)। हउ = मैं। बहिन = बहन। भानजी = भान्जी। बरी = वर ली, विवाह कर लिया, बरता। चेरी = दासी।2।

हमरो = मेरा। बिबेकी = विचारवान पुरख। माथै = माथे पे। कायमु = टिका हुआ। माथै काइमु = मेरे माथे पर टिका हुआ, मेरे पर काबू रखने वाला। अउरु = कोई और। निकटि = नजदीक।3।

नाकहु = नाक से। काटी = काट दी। कानहु = कान से। काटि कूट करि = अच्छी तरह काट के। डारी = एक तरफ फेंक दिया है। बैरनि = वैर करने वाली । तीनि लोक = सारे जगत।4।

अर्थ: निर्लज्ज माया का बाजा (सारे जगत में) ठन-ठन करके बज रहा है। हे माया! किसी विरले विचारवान ने ही तेरा बल नहीं चलने दिया।1। रहाउ।

(माया के बलवान) पाँच कामादिकों का मेल-जोल रखने वाले मनुष्य एक बर्तन में मुर्गा (आदि) का पकाया हुआ मास डाल लेते हैं, और दूसरे बर्तन में शराब डाल लेते हैं।

(इस मास-शराब के) इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं, इन (विषयी लोगों) के अंदर निर्लज्ज माया (का प्रभाव) होता है।1।

(जिधर देखो) सब जीवों के मनों में निलज्ज माया का जोर पड़ रहा है, माया सभी के (आत्मिक जीवन) को मार के ध्यान से देखती है (कि कोई बच तो नहीं रहा)। (माया, मानो, कहती है–) मैं सब जीवों की बहन-भांजी हूँ (भाव, सारे जीव मुझे तरले ले ले के इकट्ठी करते हैं), पर जिस मनुष्य ने मुझे ब्याह लिया है (भाव, जिसने अपने ऊपर मेरा जोर नहीं पड़ने दिया) मैं उसकी दासी हो जाती हूँ।2।

कोई बड़ा ज्ञानवान मनुष्य ही, जिसको जगत संत कहता है, मेरा (माया का) पति बन सकता है। वही मुझ पर काबू रखने के समर्थ होता है। और कोई तो मेरे नजदीक भी नहीं फटक सकता (भाव, किसी और की मेरे आगे पेश नहीं जा सकती)।3।

हे कबीर! कह–संत जनों ने माया को नाक से काट दिया है, अच्छी तरह काट के परे फेंक दिया है। माया हमेशा संतों से वैर करती है (क्योंकि, उनके आत्मिक जीवन पर चोट करने का यत्न करती है), पर सारे जगत के जीव इससे प्यार करते हैं।4।4।

नोट: जगत आम तौर पर नाक और कान के आसरे जीता है। इसका भाव ये है कि हरेक काम जो आम तौर पर जीव करते हैं, इस ख्याल से करते हैं कि हमारा नाक रह जाए, हमारी इज्जत बनी रहे। फिर कान लगा के सुनते हैं कि हमारी फलानी करतूत के लिए लोग क्या कहते हैं। पर, बिबेकी पुरुष ना लोक लाज की खातिर कोई काम करते हैं और ना ही इस बात की कोई परवाह करते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं। सो, उन्होंने माया के नाक और कान दोनों काट दिए हैं।4।

आसा ॥ जोगी जती तपी संनिआसी बहु तीरथ भ्रमना ॥ लुंजित मुंजित मोनि जटाधर अंति तऊ मरना ॥१॥ ता ते सेवीअले रामना ॥ रसना राम नाम हितु जा कै कहा करै जमना ॥१॥ रहाउ ॥ आगम निरगम जोतिक जानहि बहु बहु बिआकरना ॥ तंत मंत्र सभ अउखध जानहि अंति तऊ मरना ॥२॥ राज भोग अरु छत्र सिंघासन बहु सुंदरि रमना ॥ पान कपूर सुबासक चंदन अंति तऊ मरना ॥३॥ बेद पुरान सिम्रिति सभ खोजे कहू न ऊबरना ॥ कहु कबीर इउ रामहि ज्मपउ मेटि जनम मरना ॥४॥५॥ {पन्ना 476-477}

पद्अर्थ: जती = जिसने काम वासना को रोक लिया है। तपी = मन को हठ से रोकने के लिए शरीर को कई तरह के कष्ट देने वाले। भ्रमना = भ्रमण करने वाले। लुंजित = सरेवड़े जो सिर के बाल मोचने से उखाड़ देते हैं। मुंजित = मूंज की तगाड़ी पहनने वाले बैरागी। जटाधार = जटाधारी साधू। अंति तऊ = आखिर को, तो भी, फिर भी। मरना = मौत, जनम मरण का चक्र

(नोट: जो जीव जगत में शरीर ले के जन्मा है उसने मरना तो अवश्य है। यहाँ पर इस साधारण मौत का वर्णन नहीं है; इस ‘मरण’ का निर्णय कबीर जी आखिरी तुक में करते हैं ‘जनम मरन’)।1।

ता ते = तो फिर, तो फिर अच्छी बात ये है कि। सेवीअले = सिमरा जाए। हितु जा कै = जिसके हृदय में प्यार है। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जमना = यम।1। रहाउ।

आगम = शास्त्र। निरगम = निगम, वेद। जानहि = (जो लोग) जानते हैं। तंत = टूणे जादू। अउखध = दवाईआं।2।

भोग = मौजें। सिंघासन = सिंहासन, तख्त। सुंदरि रमना = सुंदर सि्त्रयां। सुबासक चंदन = सोहणी सुगंधि देने वाला चंदन।3।

कहु = कहीं भी। ऊबरना = (जनम मरन के चक्कर से) बचाव। इउ = इस वास्ते। जंपउ = मैं जपता हूँ, मैं सिमरता हूँ। मेटि = मिटाता है।4।

अर्थ: (कई लोग) जोगी हैं, जती हैं, तपी हैं, सन्यासी हैं, बहुत से तीर्थों पे जाने वाले हैं, सरेवड़े हैं, वैरागी हैं, मौनधारी हैं, जटाधारी हैं– ये सारे साधन करते हुए भी जनम-मरण का चक्र बना रहता है।1।

सो, सबसे अच्छी बात ये है कि प्रभू का नाम सिमरा जाए। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू के नाम का प्यार है, जो मनुष्य जीभ से नाम सिमरता है, जम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता (क्योंकि, उसका जनम-मरण खत्म हो जाता है)।1। रहाउ।

जो लोग शास्त्र-वेद-ज्योतिष और कई व्याकरण जानते हैं, जो मनुष्य जादू-टूणे मंत्र और दवाएं जानते हैं, उनका भी जनम-मरण का चक्कर नहीं खत्म होता।

कई ऐसे हैं जो राज (पाट) की मौजें लेते हैं,सिंहासन पर बैठते हैं, जिनके सिर पर छत्र झूलते हैं, (महलों में) सुंदर नारियां हैं, जो पान-कपूर-सुगंधि देने वाले चंदन का प्रयोग करते हैं– मौत का चक्र उनके सिर पर भी मौजूद है।3।

हे कबीर! कह– वेद-पुराण-स्मृतियां सारे खोज के देखे हैं (प्रभू के नाम की ओट के बिना और कहीं भी जनम-मरन के चक्र से बचाव नहीं मिलता; सो मैं तो परमात्मा का नाम सिमरता हूँ, प्रभू का नाम ही जनम-मरण मिटाता है।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh