श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 495 गूजरी महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥ मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सि तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ ॥ जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥ ऊडै ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ उन कवनु खलावै कवनु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥ सभ निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥१॥ {पन्ना 495} पद्अर्थ: काहे = क्यों? चितवहि = तू चितवता है। चितवहि उदमु = तू उद्यम चितवता है, तू चिंता फिकर करता है। जा आहरि = जिस (रिजक) के आहर में कोशिशों में। परिआ = पड़ा हुआ है। सैल = शैल, पहाड़। ता का = उनका। आगै = पहले ही। करि = बना के।1। माधउ = (मा = माया। धउ = धव, पति। माया का पति)। हे परमात्मा! सि = वह बंदे। परसादि = कृपा से। परम पदु = ऊँचा आत्मिक दर्जा। कासट = काठ। हरिआ = हरे।1। रहाउ। जननि = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। धरिआ = आसरा। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर। संबाहे = संवहाय, पहुँचाता है। मन = हे मन!।2। ऊडै = उड़ती है। ऊडि = उड़ के। सै कोसा = सैकडौं कोस। छरिआ = छोड़े हुए हैं। उन = उनको। सिमरनु = याद, चेता।3। निधान = खजाने। दस असट = दस और आठ अठारह। सिधान = सिद्धियां। कर तल = हाथों की तलियों पर। सद = सदा। बलि = सदके। जाईअै = जाना चाहिए। पारावरिआ = पार अवार, परला और इस पार का छोर।4। अर्थ: हे मेरे प्रभू जी! जो मनुष्य तेरी साध-संगति में मिलते हैं वह (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। गुरू की कृपा से वे मनुष्य सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेते हैं, वह ऐसे हरे (आत्मिक जीवन वाले) हो जाते हैं जैसे कोई सूखे वृक्ष हरे हो जाएं।1। रहाउ। हे मेरे मन! तू (उस रिजक की खातिर) क्यों सोचें सोचता रहता है जिस (रिजक को पहुँचाने के) आहर में परमात्मा स्वयं लगा हुआ है। (देख,) पहाडों के पत्थरों में (परमात्मा के) जीव पैदा किए हुए हैं उनका रिजक उसने पहले ही तैयार करके रख दिया होता है।1। हे मन! माता, पिता, और लोग, पुत्र, स्त्री- इनमें से कोई भी किसी का आसरा नहीं है। परमात्मा खुद हरेक जीव के वास्ते रिजक पहुँचाता है। हे मन! तू (रिजक के लिए) क्यों सहम करता है?।2। (हे मन! देख, कूँज) उड़ती है, और उड़ के (अपने घोंसले से) सैकड़ों कोस (दूर) आ जाती है, उसके बच्चे उसके पीछे अकेले पड़े रहते हैं। (बता,) उन बच्चों को कौन (चोगा) खिलाता है? कौन चोगा चुगाता है? (कूँज) अपने मन में उनको याद करती रहती है (परमात्मा की कुदरति! इस याद से ही वह बच्चे पलते रहते हैं)।3। (हे मन! दुनिया के) सारे खजाने, अठारह सिद्धियां (करामाती ताकतें) - ये सब परमात्मा के हाथों की तलियों पर टिके रहते हैं। हे नानक! उस परमात्मा से सदके सदा कुर्बान होते रहना चाहिए (और अरदास करते रहना चाहिए कि हे प्रभू!) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरा इस पार और उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता।4।1। गूजरी महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किरिआचार करहि खटु करमा इतु राते संसारी ॥ अंतरि मैलु न उतरै हउमै बिनु गुर बाजी हारी ॥१॥ मेरे ठाकुर रखि लेवहु किरपा धारी ॥ कोटि मधे को विरला सेवकु होरि सगले बिउहारी ॥१॥ रहाउ ॥ सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥ अठसठि मजनु करि इसनाना भ्रमि आए धर सारी ॥ अनिक सोच करहि दिन राती बिनु सतिगुर अंधिआरी ॥३॥ धावत धावत सभु जगु धाइओ अब आए हरि दुआरी ॥ दुरमति मेटि बुधि परगासी जन नानक गुरमुखि तारी ॥४॥१॥२॥ {पन्ना 495} पद्अर्थ: किरिआचार = क्रिया आचार, धार्मिक रस्मों का करना, कर्म काण्ड। करहि = करते हैं। खटु = छे। खटु करमा = छे धार्मिक काम (स्नान, संध्या, जप, हवन, अतिथि पूजा, देव पूजा)। इतु = इस आहर में। संसारी = दुनियादार।1। ठाकुरु = हे ठाकुर! धारी = धार के। कोटि = करोड़ों। मधे = बीच। होरि = (‘होर’ का बहुवचन) अन्य। बिउहारी = व्यापारी, सौदेबाज, मतलबी।1। रहाउ। सभि = सारे। सोधे = बिचारे। मुकति = (माया के मोह से) खलासी। कोऊ = कोई भी। करि बीचारी = विचार करके।2। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = स्नान, चॅुभी। भ्रमि = भटक भटक के। धर = धरती। सोच = सुच, शारीरिक पवित्रता। करहि = करते हैं। अंधिआरी = अंधेरा।3। धावत = भटकते हुए, दौड़ते हुए। धाइओ = भटक लिया। अब = अब। हरिदुआरी = हरी के द्वार, हरी के दर पर। मेटि = मिटा के। बुधि = (सद्) बुद्धि। परगासी = रौशन कर दी। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। तारी = पार लंघा लेता है।4। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! कृपा करके मुझे (दुर्मति) से बचाए रख। (मैं देखता हूँ कि) करोड़ों मनुष्यों में से कोई विरला मनुष्य (तेरा सच्चा) भगत है (कुमति के कारण) और सारे मतलबी ही हैं (अपने मतलब के कारण देखने को धार्मिक काम कर रहे हैं)।1। रहाउ। हे भाई! दुनियादार मनुष्य कर्म-काण्ड करते हैं, (स्नान, संध्या आदि) छे (प्रसिद्ध निहित धर्मिक) कर्म कमाते हैं, इन कर्मों में ही ये लोग व्यस्त रहते हैं। पर इनके मन में टिकी हुई अहंकार की मैल (इन कामों से) नहीं उतरती। गुरू की शरण पड़े बिना वह मानस जनम की बाजी हार जाते हैं।1। हे भाई! सारे शास्त्र,वेद, सारी ही स्मृतियां, ये सारे हमने पड़ताल के देख लिए हैं, ये सारे भी यही एक बात पुकार-पुकार के कह रहे हैं कि गुरू की शरण आए बिना कोई मनुष्य (माया के मोह आदि से) निजात नहीं पा सकता। हे भाई! तुम भी बेशक मन में विचार करके देख लो (यही बात ठीक है)।2। हे भाई! लोग अढ़सठ तीर्थों के स्नान करके, और, सारी धरती पे घूम के आ जाते हैं, दिन-रात और अनेकों पवित्रता के साधन करते रहते हैं। पर, गुरू के बिना उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है।3। हे नानक! (कह–) भटक-भटक के सारे जगत में भटक के जो मनुष्य आखिर परमात्मा के दर पर आ गिरते हैं, परमात्मा उनके अंदर से दुर्मति मिटा के उनके मन में सद्-बुद्धि का प्रकाश कर देता है, गुरू की शरण पा के उनको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है।4।1।2। गूजरी महला ५ ॥ हरि धनु जाप हरि धनु ताप हरि धनु भोजनु भाइआ ॥ निमख न बिसरउ मन ते हरि हरि साधसंगति महि पाइआ ॥१॥ माई खाटि आइओ घरि पूता ॥ हरि धनु चलते हरि धनु बैसे हरि धनु जागत सूता ॥१॥ रहाउ ॥ हरि धनु इसनानु हरि धनु गिआनु हरि संगि लाइ धिआना ॥ हरि धनु तुलहा हरि धनु बेड़ी हरि हरि तारि पराना ॥२॥ हरि धन मेरी चिंत विसारी हरि धनि लाहिआ धोखा ॥ हरि धन ते मै नव निधि पाई हाथि चरिओ हरि थोका ॥३॥ खावहु खरचहु तोटि न आवै हलत पलत कै संगे ॥ लादि खजाना गुरि नानक कउ दीआ इहु मनु हरि रंगि रंगे ॥४॥२॥३॥ {पन्ना 495-496} पद्अर्थ: जाप = देव पूजा के लिए खास मंत्रों के जाप। ताप = धूणियां तपानियां। भाइआ = अच्छा लगा है। निमख = आँख झपकने जितना समय। न बिसरउ = मैं नहीं भुलाता, नहीं भूलता। ते = से।1। माई = हे माँ! खाटि = कमा के। चलते = चलते हुए। बैसे = बैठे हुए। सूता = सोए हुए।1। रहाउ। संगि = साथ। लाइ धिआना = सुरति जोड़ता है। तुलहा = लकड़ियां बाँध के नदी पार करने के लिए बनाया हुआ गॅठा। तारि = तैरा देता है, पार लंघाता है। पराना = परले पासे, दूसरे छोर पर।2। विसारी = भुला दी। धनि = धन ने। धोखा = फिक्र। लाहिआ = दूर कर दिया। ते = से। नवनिधि = धरती के सारे नौ खजाने। निधि = खजाना। नव = नौ। हाथि चरिओ = हाथ आ गया, मिल गया। थोक = ढेर सारे पदार्थ।3। तोटि = कमी। हलत = इस लोक। पलत = परलोक में। लादि = लाद के। गुरि = गुरू ने। रंगे = रंग लो।4। अर्थ: हे माँ! (किसी माँ का वह) पुत्र कमा के घर आया समझ, जो चलते बैठते जागते सोए हुए हर समय हरि-नाम-धन का ही व्यापार करता है।1। रहाउ। हे माँ! परमात्मा का नाम-धन ही (मेरे वास्ते देव-पूजा के लिए खास मंत्रों का) जाप है, हरि-नाम-धन ही (मेरे लिए) धूणियों को तपाना है; परमात्मा का नाम-धन ही (मेरे आत्मिक जीवन के लिए) खुराक है, और ये खुराक मुझे अच्छी लगी है। हे माँ! आँख झपकने जितने समय के लिए भी मैं अपने मन को नहीं भुलाता, मैंने ये धन साध-संगति में (रह के) पा लिया है।1। हे माँ! जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम-धन को ही तीर्थ-स्नान समझा है नाम-धन को ही शास्त्र आदि का विचार समझ लिया है, जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में ही सुरति जोड़ता है (इसी को समाधि लगानी समझता है), जिस मनुष्य ने संसार नदी से पार लांघने के लिए हरि-नाम-धन को तुलहा बना लिया है, बेड़ी बना ली है, परमात्मा उसे संसार समुंद्र में से तैरा के परले पासे पहुँचा देता है।2। हे माँ! परमात्मा के नाम-धन ने मेरी हरेक किस्म की चिंता खत्म कर दी है, मेरा हरेक फिक्र दूर कर दिया है। हे माँ! परमात्मा के नाम-धन से (मैं ऐसे समझता हूँ कि) मैंने दुनिया के सारे नौ ही खजाने हासिल कर लिए हैं, (साध-संगति की कृपा से) ये सबसे कीमती नाम-धन मुझे मिल गया है।3। हे माँ! गुरू ने (मुझे) नानक को नाम-धन का खजाना लाद के दे दिया है, (और कहा है–) ये धन स्वयं बरतो, दूसरों को बाँटो; ये धन कभी कम नहीं होता; इस लोक में परलोक में सदा साथ रहता है, अपने मन को हरि-नाम के रंग में रंग लो।4।2।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |