श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 510 पउड़ी ॥ प्रभि संसारु उपाइ कै वसि आपणै कीता ॥ गणतै प्रभू न पाईऐ दूजै भरमीता ॥ सतिगुर मिलिऐ जीवतु मरै बुझि सचि समीता ॥ सबदे हउमै खोईऐ हरि मेलि मिलीता ॥ सभ किछु जाणै करे आपि आपे विगसीता ॥४॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। गणतै = गिनती से, विचारों से। जीवतु मरै = जीवित मरे, विकारों से निर्वित हो जाए। विगसीता = विगसता, खिलता है। अर्थ: प्रभू ने जगत पैदा करके अपने वश में रखा हुआ है (पर ये बात भुला के कि जगत प्रभू के वश में है, और माया की ही) विचारें करने से प्रभू नहीं मिलता, माया में ही भटकते हैं। गुरू मिलने से अगर मनुष्य जीवित (माया की ओर से) मर जाए तो (ये अस्लियत है कि संसार प्रभू के वश में है) समझो कि सच्चे प्रभू के मेल में मिल जाता है। (ये समझ आ जाती है कि) प्रभू खुद ही सब कुछ जानता है, खुद ही करता है, और खुद ही (देख के) खुश होता है। सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर सिउ चितु न लाइओ नामु न वसिओ मनि आइ ॥ ध्रिगु इवेहा जीविआ किआ जुग महि पाइआ आइ ॥ माइआ खोटी रासि है एक चसे महि पाजु लहि जाइ ॥ हथहु छुड़की तनु सिआहु होइ बदनु जाइ कुमलाइ ॥ जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ तिन्ह सुखु वसिआ मनि आइ ॥ हरि नामु धिआवहि रंग सिउ हरि नामि रहे लिव लाइ ॥ नानक सतिगुर सो धनु सउपिआ जि जीअ महि रहिआ समाइ ॥ रंगु तिसै कउ अगला वंनी चड़ै चड़ाइ ॥१॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: मनि = मन में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जुग = जनम, मानस जनम। रासि = पूँजी। चसा = पहर का बीसवाँ हिस्सा। पाजु = दिखावा। हथहु छुड़की = हाथ से छूटी हुई, अगर गायब हो जाए। बदनु = (संस्कृत: वदन) मुंह। रंग = प्यार। सतिगुर सउपिआ = गुरू को सौंपा। जीअ महि = जिंद में। अगला = ज्यादा। वंनी = रंग। नोट: ‘हथहु छुड़की’ में ‘माइआ खोटी रासि’ का जिक्र है। सो, ‘अगर मर जाए’, ये अर्थ गलत है। (देखें, संप्रदान कारक, ‘गुरबाणी व्याकरण’ पृष्ठ 77 और 395) अर्थ: अगर गुरू के साथ चित्त ना लगाया और प्रभू का नाम मन में ना बसा, तो धिक्कार है ऐसा जीना! मानस जनम में आ के क्या कमाया? माया तो खोटी पूँजी है, इसका दिखावा तो एक पल में उतर जाता है, अगर ये गायब हो जाए (तो इसके गम से) शरीर काला हो जाता है और मुंह कुम्हला जाता है। जिन मनुष्यों ने गुरू के साथ चित्त जोड़ा उनके मन में शांति आ बसती है, वे प्यार से प्रभू का नाम सिमरते हैं, प्रभू नाम में सुरति जोड़े रखते हैं। हे नानक! ये नाम-धन प्रभू ने सतिगुरू को सौंपा है, ये धन गुरू की आत्मा में रचा हुआ है; (जो मनुष्य गुरू से नाम-धन लेता है) उसी को नाम-रंग बहुत चढ़ता है, और ये रंग नित्य चमकता है (दूना-चौगुना होता है)।1। मः ३ ॥ माइआ होई नागनी जगति रही लपटाइ ॥ इस की सेवा जो करे तिस ही कउ फिरि खाइ ॥ गुरमुखि कोई गारड़ू तिनि मलि दलि लाई पाइ ॥ नानक सेई उबरे जि सचि रहे लिव लाइ ॥२॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: नागनी = सँपनी। लपटाइ रही = चिपक रही है। गारड़ ू = गरुड़ मंत्र जानने वाला, साँप का जहर हटाने वाला मंत्र जानने वाला। मलि = मल के। दलि = दल के। मलि दलि = अच्छी तरह मल के। तिनि = तिस ने, उस ने। इस, तिस: इन सर्वनामों की ‘ु’ मात्रा क्यों गायब है, इस बात को समझने के लिए देखें‘गुरबाणी व्याकरण’ पेज 441। अर्थ: माया नागिन बनी हुई है जगत में (हरेक जीव को) चिपकी हुई है, जो इसका गुलाम बनता है उसी को मार डालती है। कोई विरला मनुष्य होता है जो इस माया सँपनी के जहर का मंत्र जानता है, उसने इसको अच्छी तरह मल के पैरों के नीचे फेंक लिया है। हे नानक! इस माया सँपनी से वही बचे हैं जो सच्चे प्रभू में सुरति जोड़ते हैं।2। पउड़ी ॥ ढाढी करे पुकार प्रभू सुणाइसी ॥ अंदरि धीरक होइ पूरा पाइसी ॥ जो धुरि लिखिआ लेखु से करम कमाइसी ॥ जा होवै खसमु दइआलु ता महलु घरु पाइसी ॥ सो प्रभु मेरा अति वडा गुरमुखि मेलाइसी ॥५॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: ढाढी = सिफत सालाह करने वाला। धीरक = धैर्य। पाइसी = पा लेगा। धुरि = धुर से ही प्रभू के हुकम अनुसार। अर्थ: जब मनुष्य ढाढी बन के अरदास करता है और प्रभू को सुनाता है तो इसके अंदर धैर्य आता है (माया-मोह और अहंकार दूर होते हैं) और पूरा प्रभू इसको मिलता है। धुर से (पिछली की हुई सिफत सालाह के अनुसार) जो (भगती का) लेख माथे पर उघड़ता है और वैसे (भाव, सिफत-सालाह वाले) काम करता है। (इस तरह) जब खसम दयाल होता है तो इसे प्रभू का महल-रूप असल घर मिल जाता है। पर, मेरा वह प्रभू है बहुत बड़ा, गुरू के माध्यम से ही मिलता है।5। सलोक मः ३ ॥ सभना का सहु एकु है सद ही रहै हजूरि ॥ नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥ हुकमु भी तिन्हा मनाइसी जिन्ह कउ नदरि करेइ ॥ हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। नदरि = मेहर की नजर। सुहागणि = सु+भागनि, अच्छे भाग्यों वाली। (नोट: अरबी में ‘ज़’ को ‘द’ भी पढ़ा जाता है, इसी तरह ‘काज़ी’ और ‘कादी’, ‘कागज़’ और ‘कागद’)। अर्थ: सब (जीव-सि्त्रयों) का पति एक परमात्मा है जो सदा ही इनके अंग-संग रहता है। पर, हे नानक! जो (जीव-स्त्री) उसका हुकम नहीं मानती (उसकी रजा में नहीं चलती) उसको वह पति हृदय-घर में बसता हुआ भी कहीं दूर बसता लगता है। हुकम भी उन्हीं (जीव सि्त्रयों) से मनाता है जिन पर मेहर की नजर करता है; जिसने हुकम मान के सुख हासिल किया है, वह प्रेम वाली अच्छे भाग्यों वाली हो जाती है।1। मः ३ ॥ रैणि सबाई जलि मुई कंत न लाइओ भाउ ॥ नानक सुखि वसनि सुोहागणी जिन्ह पिआरा पुरखु हरि राउ ॥२॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: रैणि सबाई = (जिंदगी रूपी) सारी रात। भाउ = प्यार। सुखि = सुख से। सुोहागणी = अक्षर ‘स’ पर दो मसत्राएं (ु) और (ो) हैं– यहाँ (ु) पढ़नी है। अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने कंत प्रभू से प्यार नहीं किया, वह (जिंदगी रूपी) सारी रात जल मरी (उसकी सारी उम्र दुखों में गुजरी)। पर, हे नानक! जिनका प्यारा अकाल पुरख (खसम) है वह भाग्यशाली सुख की नींद सोती हैं (जिंदगी की रात सुख से गुजारती हैं)।2। पउड़ी ॥ सभु जगु फिरि मै देखिआ हरि इको दाता ॥ उपाइ कितै न पाईऐ हरि करम बिधाता ॥ गुर सबदी हरि मनि वसै हरि सहजे जाता ॥ अंदरहु त्रिसना अगनि बुझी हरि अम्रित सरि नाता ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि बोलाता ॥६॥ {पन्ना 510} पद्अर्थ: फिरि = दुबारा। उपाइ कितै = किसी ढंग से। करम विधाता = कर्मों की विधि बनाने वाला, जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों को पैदा करने वाला। मनि = मन में। अंम्रितसरि = अमृत के सरोवर में। हरि अंम्रितसरि = हरी के नाम अमृत के सरोवर में। बोलाता = बुलाता है, अपनी सिफत करवाता है। अर्थ: मैंने सारा संसार टोल के देख लिया है, एक परमात्मा ही सारे जीवों को दातें देने वाला है; जीवों के कर्मों की बिधि बनाने वाला वह प्रभू किसी चतुराई-सियानप से नहीं मिलता; सिर्फ गुरू के शबद द्वारा हृदय में बसता है और आसानी से ही पहचाना जा सकता है। जो मनुष्य प्रभू के नाम-अमृत सरोवर में नहाता है उसके अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है; यह उसी महानतम् की महानता है कि (जीव से) गुरू के माध्यम से अपनी सिफत सालाह करवाता है।6। सलोकु मः ३ ॥ काइआ हंस किआ प्रीति है जि पइआ ही छडि जाइ ॥ एस नो कूड़ु बोलि कि खवालीऐ जि चलदिआ नालि न जाइ ॥ काइआ मिटी अंधु है पउणै पुछहु जाइ ॥ हउ ता माइआ मोहिआ फिरि फिरि आवा जाइ ॥ नानक हुकमु न जातो खसम का जि रहा सचि समाइ ॥१॥ {पन्ना 510-511} पद्अर्थ: हंस = जीवात्मा। किआ प्रीति = कैसी प्रीति (कच्ची प्रीत)। पइआ ही = पड़े को ही। कि = क्या। अंधु = ज्ञानहीन। पउणै = पवन को, जीवात्मा को। फिरि फिरि = बार बार। आवा जाइ = आता जाता हूँ। जि = जिस के कारण। रहा = मैं रहूँ। अर्थ: शरीर और आत्मा का कच्चा सा प्यार है, (अंत के समय, ये आत्मा शरीर को) गिरे हुए को छोड़ के चली जाती है; जब (आखिर) चलने के वक्त ये शरीर के साथ नहीं जाती तो इसे झूठ बोल-बोल के पालने का क्या लाभ? (शरीर तो मिट्टी समझो) ज्ञानहीन है (झूठ बोल-बोल के इसको पालने का क्या लाभ आखिर लेखा तो जीवात्मा से ही माँगा जाता है)। जीवात्मा को अगर पूछो (कि ये शरीर पालने में ही क्यों लगी रही, तो इसका उत्तर ये है कि) मैं माया के मोह में फंसा बार-बार जनम-मरन में पड़ा रहा। हे नानक! मैंने खसम का हुकम ना पहचाना जिसकी बरकति से मैं सच्चे प्रभू में टिका रहता।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |