श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि हरि पावहि गुणी निधानु ॥ हरि सुखदाता मनि वसै हउमै जाइ गुमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ ता अनदिनु लागै धिआनु ॥२॥ {पन्ना 512}

अर्थ: हे मेरे मन! सतिगुरू की शिक्षा सुन (भाव, शिक्षा पर चल) तुझे गुणों का खजाना प्रभू मिल जाएगा; सुखों का दाता परमात्मा मन में आ बसेगा, अहम्-अहंकार नाश हो जाएगा।

हे नानक! जब प्रभू अपनी मेहर की नजर से मिलता है तो हर वक्त सुरति उसमें जुड़ी रहती है।2।

पउड़ी ॥ सतु संतोखु सभु सचु है गुरमुखि पविता ॥ अंदरहु कपटु विकारु गइआ मनु सहजे जिता ॥ तह जोति प्रगासु अनंद रसु अगिआनु गविता ॥ अनदिनु हरि के गुण रवै गुण परगटु किता ॥ सभना दाता एकु है इको हरि मिता ॥९॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है। सहजे = आसानी से ही। तह = वहीं, उस अवस्था में। अनंद रसु = आत्मिक आनंद की चाट।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू का हो के रहता है वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है, उसको सत-संतोष प्राप्त होता है, उसे हर जगह प्रभू दिखता है, उसके मन में से खोट विकार दूर हो जाते हैं, वह आसानी से ही मन को वश में कर लेता है; इस अवस्था में (पहुँच के उसके अंदर परमात्मा की) ज्योति का प्रकाश हो जाता है, आत्मिक आनंद की उसको चाट लग जाती है और अज्ञान दूर हो जाता है, (फिर) वह हर वक्त परमात्मा के गुण गाता है, (रॅबी) गुण उसके अंदर प्रकट हो जाते हैं; (उसे ये यकीन बन जाता है कि) एक प्रभू सारे जीवों का दाता है और मित्र है।9।

सलोकु मः ३ ॥ ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु कहीऐ जि अनदिनु हरि लिव लाए ॥ सतिगुर पुछै सचु संजमु कमावै हउमै रोगु तिसु जाए ॥ हरि गुण गावै गुण संग्रहै जोती जोति मिलाए ॥ इसु जुग महि को विरला ब्रहम गिआनी जि हउमै मेटि समाए ॥ नानक तिस नो मिलिआ सदा सुखु पाईऐ जि अनदिनु हरि नामु धिआए ॥१॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: ब्रहमु = परमात्मा। बिंदे = जाने। जि = जो। सतिगुर पुछै = सतिगुरू को पूछे। संजमु = बंदिश, पाबंदी, मर्यादा। संग्रहै = इकट्ठा करे। जुग = भाव, मनुष्य जनम।

(नोट: किसी खास ‘जुग’ का वर्णन नहीं चल रहा)।

अर्थ: जो मनुष्य ब्रहम का पहचानता है हर वक्त परमात्मा में सुरति जोड़ता है उसको ब्राहमण कहना चाहिए, (वह ब्राहमण) सतिगुरू के कहे पर चलता है, ‘सच’ रूपी संयम रखता है, (और इस तरह) उसका अहंकार-रोग देर होता है; वह हरी के गुण गाता है, (रॅबी) गुण एकत्र करता है और परम-ज्योति में अपनी आत्मा मिलाए रखता है।

मानस जनम में कोई विरला ही है जो परमात्मा (ब्रहम) को जानता है जो अहंकार दूर करके ब्रहम में जुड़ा रहता है। हे नानक! जो (ब्रहमज्ञानी ब्राहमण) हर वक्त नाम सिमरता है उसे मिलने पर सदा सुख मिलता है।1।

मः ३ ॥ अंतरि कपटु मनमुख अगिआनी रसना झूठु बोलाइ ॥ कपटि कीतै हरि पुरखु न भीजै नित वेखै सुणै सुभाइ ॥ दूजै भाइ जाइ जगु परबोधै बिखु माइआ मोह सुआइ ॥ इतु कमाणै सदा दुखु पावै जमै मरै फिरि आवै जाइ ॥ सहसा मूलि न चुकई विचि विसटा पचै पचाइ ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी तिसु गुर की सिख सुणाइ ॥ हरि नामु धिआवै हरि नामो गावै हरि नामो अंति छडाइ ॥२॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। कपटि कीतै = कपट करने से।

(नोट: ‘कपटि’ व्याकरण के अनुसार ‘अधिकरण कारक’ है, शब्द ‘कीतै’ भी इसी ‘कारक’ में है। अंग्रेजी में इस बनावट को locative absolute कहते हैं, संस्कृत में ऐसी बनावट बहुत मिलती है, वहीं से ये पुरानी पंजाबी में आई। सो, यहाँ ‘कपटि’ के अर्थ ‘कपट से’ करना गलत है)।

सुभाइ = सोए हुए ही। परबोधै = जगाता है, उपदेश करता है। सुआइ = स्वर्थ से। इतु कमाणै = ये कमाने से।

(नोट: ‘इतु’ सर्वनाम ‘इसु’ से अधिकरण कारक, एक वचन, जैसे ऊपर शब्द ‘कपटि’ है। ‘कमाणै’ भी इसी कारक में है)।

सहसा = तौखला। नामो = नाम ही।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जाहल है, उसके अंदर खोट है और जीभ से झूठ (भाव, अंदरूनी खोट के उलट) बोलता है (भाव, अंदर से और और बाहर से और); (इस तरह) ठॅगी करने से प्रसन्न नहीं होता, (क्योंकि वह सहज ही (हमारा हरेक छुपा हुआ काम भी) ) देखता है और (छुपे हुए बोल व विचार भी) सुनता है। मनमुख (खुद) माया के मोह में है पर जा के लोगों को उपदेश करता है, ये करतूत करने से वह सदा ही दुख पाता हे।, पैदा होता है मरता है, बार बार पैदा होता है मरता है, उसके अंदर का तौखला कभी मिटता नहीं, वह मानो, गंदगी में पड़ा जलता रहता है।

पर, जिस मनुष्य पर मेरा मालिक मेहर करता है उसको गुरू का उपदेश सुनाता है; वह मनुष्य प्रभू का नाम सिमरता है, नाम ही गाता है, नाम ही उसको आखिर (इस संशय से) छुड़वाता है।2।

पउड़ी ॥ जिना हुकमु मनाइओनु ते पूरे संसारि ॥ साहिबु सेवन्हि आपणा पूरै सबदि वीचारि ॥ हरि की सेवा चाकरी सचै सबदि पिआरि ॥ हरि का महलु तिन्ही पाइआ जिन्ह हउमै विचहु मारि ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहे जपि हरि नामा उर धारि ॥१०॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: मनाइओनु = मनाया उसने। पूरे = सर्व गुण संपन्न। सबदि = शबद में। वीचारि = विचार करने वाला। चाकर = सेवा। महलु = घर, हजूरी। उर = हृदय।

अर्थ: वह मनुष्य जगत में सर्व-गुण-संपूर्ण बर्तन है जिनसे परमात्मा (अपना) हुकम मनाता है, वह बंदे गुरू के शबद में चित्त जोड़ के अपने मालिक की बंदगी करते हैं, प्रभू की बंदगी हो ही तब सकती है अगर सच्चे शबद से प्यार करें (शाब्दिक-सच्चे शबद में प्यार के द्वारा)। जो मनुष्य अंदर से अहंकार को मारते हैं उनको परमात्मा की हजूरी प्राप्त होती है।

हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले लोग परमात्मा का नाम हृदय में परो के नाम जप के परमात्मा में जुड़े रहते हैं।10।

सलोकु मः ३ ॥ गुरमुखि धिआन सहज धुनि उपजै सचि नामि चितु लाइआ ॥ गुरमुखि अनदिनु रहै रंगि राता हरि का नामु मनि भाइआ ॥ गुरमुखि हरि वेखहि गुरमुखि हरि बोलहि गुरमुखि हरि सहजि रंगु लाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु परापति होवै तिमर अगिआनु अधेरु चुकाइआ ॥ जिस नो करमु होवै धुरि पूरा तिनि गुरमुखि हरि नामु धिआइआ ॥१॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: धुनि = सुर, रौंअ। धिआनु = जुड़ी हुई सुरति। सहज धुनि = सहज की धुनि, अउोलता की रौं। धिआन धुनि = जुड़ी हुई सुरति की रौं। सहजि = सहज में, अडोलता में। रंगु = प्यार। तिमरु = अंधेरा। करमु = बख्शश। धुरि = धुर से, ईश्वर की ओर से। तिनि = उस ने। तिनि गुरमुखि = उस गुरमुख ने।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है उसके अंदर जुड़ी सुरति और अडोलता की रौं चल पड़ती है, वह सच्चे नाम में चित्त जोड़े रखता है, हर वक्त प्रभू का नाम उसे मन में मीठा लगता है।

गुरमुख बंदे रॅब को ही (हर जगह) देखते हैं, रॅब की सिफत ही (हर समय) उचारते हैं, और रॅबी मेल वाली अडोलता में प्यार डालते हैं।

हे नानक! गुरमुख को उच्च ज्ञान (ऊँची समझ) की प्राप्ति होती है, उसका अज्ञान-रूपी घोर अंधेरा दूर हो जाता है, उसी गुरमुख ने नाम जपा है जिस पर धुर से (करतार द्वारा) पूरी मेहर हुई है।1।

मः ३ ॥ सतिगुरु जिना न सेविओ सबदि न लगो पिआरु ॥ सहजे नामु न धिआइआ कितु आइआ संसारि ॥ फिरि फिरि जूनी पाईऐ विसटा सदा खुआरु ॥ कूड़ै लालचि लगिआ ना उरवारु न पारु ॥ नानक गुरमुखि उबरे जि आपि मेले करतारि ॥२॥ {पन्ना 512}

पद्अर्थ: कितु = किसलिए।

(नोट: व्याकरण के अनुसार शब्द ‘किसु’ का कर्णकारक है, ‘अधिकरण’ में भी यही रूप होता है, जैसे, ‘इसु’ से ‘इतु’)।

उरवारु = इस पार। पारु = उस पार। जि = जो। करतारि = करतार ने।

अर्थ: जिन मनुष्यों ने गुरू का हुकम नहीं माना, जिनका गुरू-शबद से प्यार नहीं बना, जिन्होंने शांत-चित्त हो के नाम नहीं सिमरा, वे जगत में किसलिए आए? ऐसा आदमी बारंबार जूनियों में पड़ता है, वह जैसे, गंदगी में पड़ के दुखी होता है।

(गुरू और परमात्मा को विसार के) झूठे लालच में फंसने से (फंसे ही रहते हैं, क्योंकि इस लालच का) ना इस पार का पता चलता है ना उस पार का। हे नानक! जिन गुरमुखों को करतार ने खुद (अपने साथ) जोड़ा है वही इस (लालच रूपी समुंद्र) में से बच निकलते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh