श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी स्री नामदेव जी के पदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जौ राजु देहि त कवन बडाई ॥ जौ भीख मंगावहि त किआ घटि जाई ॥१॥ तूं हरि भजु मन मेरे पदु निरबानु ॥ बहुरि न होइ तेरा आवन जानु ॥१॥ रहाउ ॥ सभ तै उपाई भरम भुलाई ॥ जिस तूं देवहि तिसहि बुझाई ॥२॥ सतिगुरु मिलै त सहसा जाई ॥ किसु हउ पूजउ दूजा नदरि न आई ॥३॥ एकै पाथर कीजै भाउ ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ ॥ जे ओहु देउ त ओहु भी देवा ॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा ॥४॥१॥ {पन्ना 525}

पद्अर्थ: जौ = यदि। भीख मंगावहि = मुझसे भीख मंगाए, मुझे मंगता बना दे, मुझे कंगाल कर दे।1।

पदु = दर्जा, मुकाम। निरबानु = निरवाण, वासना रहित, जहाँ दुनिया की कोई वासना ना रहे। बहुरि = फिर, दुबारा।1। रहाउ।

तै = (हे प्रभू!) तू। उपाई = पैदा की। बुझाई = समझ दी, सूझ।2।

सहसा = दिल की घबराहट। जाई = दूर हो जाती है।3।

भाउ = प्यार। पाउ = पैर। देउ = देवता।4।

अर्थ: (सुख मांगने के लिए और दुखों से बचने के लिए, अंजान लोग अपने ही हाथों पत्थरों से घड़े हुए देवताओं के आगे नाक रगड़ते हैं; पर) हे मेरे मन! तू एक प्रभू को सिमर; वही वासना-रहित अवस्था (देने वाला) है, (उसका सिमरन करने से) फिर तेरा (जगत में) जगत में पैदा होना-मरना मिट जाएगा।1। रहाउ।

(हे मन! एक प्रभू के दर पर यूँ कह– हे प्रभू!) अगर तू मुझे राज (भी) दे दे, तो किसी तरह बड़ा नहीं हो जाऊँगा और अगर तू मुझे कंगाल कर दे, तो मेरा कुछ घट नहीं जाना। (हे प्रभू!) सारी सृष्टि तूने स्वयं ही पैदा की है और भरमों में गलत रास्ते पर डाली हुई है, जिस जीव को तू खुद मति देता है उसे ही सद्-बुद्धि आती है।1,2।

(जिस भाग्यशालियों को) सतिगुरू मिल जाए (दुखों-सुखों के बारे में) उसके दिल की घबराहट दूर हो जाती है (और वह अपने ही घड़े हुए देवताओं के आगे नाक नहीं रगड़ता फिरता)। (मुझे गुरू ने समझ बख्शी है) प्रभू के बिना कोई और (दुख-सुख देने वाला) मुझे नहीं दिखता, (इस वास्ते) मैं किसी और की पूजा नहीं करता।3।

(क्या अजीब बात है कि) एक पत्थर (को देवता बना के उसके) साथ प्यार किया जाता है और दूसरों पत्थरों पर पैर रखा जाता है। अगर वह पत्थर (जिसकी पूजा की जाती है) देवता है तो दूसरा पत्थर भी देवता है (उसे क्यूँ पैरों के तले लिताड़ते हैं? पर) नामदेव कहता है (हम किसी पत्थर को देवता स्थापित करके उसकी पूजा करने के लिए तैयार नहीं), हम तो परमात्मा की बंदगी करते हैं।4।1।

नोट: हमने नामदेव जी के इन शब्दों पर ऐतबार करना है, अथवा स्वार्थी लोगों की मन–घड़ंत कहानियों पर?

गूजरी घरु १ ॥ मलै न लाछै पार मलो परमलीओ बैठो री आई ॥ आवत किनै न पेखिओ कवनै जाणै री बाई ॥१॥ कउणु कहै किणि बूझीऐ रमईआ आकुलु री बाई ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ आकासै पंखीअलो खोजु निरखिओ न जाई ॥ जिउ जल माझै माछलो मारगु पेखणो न जाई ॥२॥ जिउ आकासै घड़ूअलो म्रिग त्रिसना भरिआ ॥ नामे चे सुआमी बीठलो जिनि तीनै जरिआ ॥३॥२॥ {पन्ना 525}

पद्अर्थ: मलै = मल का, मैल का। लाछै = लांछन, दाग, निशान। पारमलो = पार मल, मल रहित। परमलिओ = (संस्कृत: परिमल) सुगंधि। री = हे बहन! कवनै = कौन? री बाई = हे बहन!

कहै = बयान कर सकता है। किणि = किस ने? रमईआ = सोहाना राम। आकुलु = (संस्कृत: अ:समन्नात् कुलं यस्य; जिसकी कुल चार चुफेरे है) जो हर जगह मौजूद है, सर्व व्यापक।1। रहाउ।

निरखिओ न जाई = देखा नहीं जा सकता। माझै = में। मारगु = रास्ता।2।

आकासै = आकाश में (सं: आकाश, Free Space, place in general) खुली जगह, मैदान में। घड़ ूअलो = पानी का घड़ा (भाव, पानी)। म्रिग त्रिसना = ठॅग नीरा, वह पानी जो प्यासे हिरन को रेतीली जगह पर प्रतीत होता है (म्रिग = मृग, हिरन। त्रिसना = प्यास)। म्रिग त्रिसना घड़ूअलो = प्यासे हिरन का पानी, मृग तृष्णा का जल। चे = दे। बीठलो = (सं: वि+स्थल, परे खड़ा हुआ) माया से निराला, निर्लिप प्रभू। जिनि = जिस (बीठल) ने। तीनै = तीनों ताप। जरिआ = जला दिए हैं।3।

अर्थ: हे बहन! मेरा सुंदर राम हर जगह व्यापक है, पर कोई जीव भी (उसका मुकम्मल स्वरूप) बयान नहीं कर सकता, किसी ने भी (उसके मुकम्मल स्वरूप को) नहीं समझा।1। रहाउ।

हे बहन! उस सुंदर राम को मैल का दाग़ तक नहीं है, वह मैल से परे है, वह राम तो सुगंधि (की तरह) सब जीवों में आ के बसता है, (भाव, जैसे सुगंधि फूलों में है)। हे बहन! उस सोहने राम को कभी किसी ने पैदा होता नहीं देखा, कोई नहीं जानता कि वह कैसा है।1।

जैसे आकाश में पंछी उड़ता है, पर उसके उड़ने वाले रास्ते का खुरा-खोज देखा नहीं जा सकता, जैसे मछली पानी में तैरती है पर जिस रास्ते पर तैरती है वह राह देखी नहीं जा सकती (भाव, आँखों के आगे कायम नहीं किया जा सकता, वैसे ही उस प्रभू का मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं हो सकता)।2।

जैसे खुली जगह मृग तृष्णा को जल दिखता है (आगे आगे बढ़ते जाएं पर उसका ठिकाना नहीं मिलता,इसी तरह प्रभू का खास ठिकाना नहीं मिलता। वैसे ही) नामदेव के पति बीठल जी ऐसे हैं जिसने मेरे तीनों ताप जला डाले हैं।3।2।

नोट: नामदेव जी की बाणी में सिर्फ ‘बीठल’ शब्द देख के ये मान लेना भारी भूल है कि भगत जी किसी मूर्ति के उपासक थे। उन्होंने अपने ‘बीठल’ का जो स्वरूप यहाँ बयान किया है, क्या वह किसी मूर्ति का है या सर्व–व्यापक परमात्मा का? फिर, लोगों की घड़ी हुई कहानी क्यों इस बाणी से ज्यादा एतबार–योग्य है?

शबद का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है, अकथ है। उसका खास ठिकाना मिल नहीं सकता।

गूजरी स्री रविदास जी के पदे घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ॥१॥ माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ॥ अवरु न फूलु अनूपु न पावउ ॥१॥ रहाउ ॥ मैलागर बेर्हे है भुइअंगा ॥ बिखु अम्रितु बसहि इक संगा ॥२॥ धूप दीप नईबेदहि बासा ॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥३॥ तनु मनु अरपउ पूज चरावउ ॥ गुर परसादि निरंजनु पावउ ॥४॥ पूजा अरचा आहि न तोरी ॥ कहि रविदास कवन गति मोरी ॥५॥१॥ {पन्ना 525}

पद्अर्थ: बछरै = बछरे ने। थनहु = थनों से (ही)। बिटारिओ = जूठा कर दिया। भवरि = भवर ने। मीनि = मीन ने, मछली ने।1।

माई = हे माँ! कहा = कहाँ? लै = ले कर। चरावउ = मैं भेट करूँ। अनूपु = (अन+ऊपु) जिस जैसा और कोई नहीं, सुंदर। न पावउ = मैं हासिल नहीं कर सकूँगा।1। रहाउ।

मैलागर = (मलय+अगर) मलय पर्वत पर उगे हुए चंदन के पौधे। बेर्ये = (‘र’ के नीचे आधा ‘ह’ है) लपेटे हुए। भुइअंगा = साँप। बिखु = जहर। इक संगा = इकट्ठे।2।

दीप = दीया। नइबेद = (संस्कृत: नैवेद्य An offering of eatables presented to deity or idol) किसी बुत या देवी देवते के आगे खाने वाली चीजों की भेटें। बासा = वासना, सुगंधि।3।

अरपउ = मैं अरप दूँ, मैं भेटा कर दूँ। चरावउ = चढ़ाऊँ, भेटा।4।

अरचा = मूर्ति आदि की पूजा, मूर्ति आदि के आगे सिर झुकाना, मूर्ति को श्रृंगारना। आहि न = नहीं हो सकी। कहि = कहै, कहता है। कवन गति = क्या हाल?।5।

अर्थ: दूध तो थनों से ही बछड़े ने झूठा कर दिया; फूल भौरे ने (सूँघ के) और पानी को मछली ने खराब कर दिया (सो, दूध, फूल और पानी ये तीनों ही झूठे हो जाने के कारण प्रभू के आगे भेटा के योग्य नहीं रह गए)।1।

हे माँ! गोबिंद की पूजा करने के लिए मैं कहाँ से कौन सी चीज ले के भेट करूँ? कोई और (स्वच्छ) फूल (आदि मिल) नहीं (सकता)। क्या मैं (इस कमी के कारण) उस सोहाने प्रभू को प्राप्त नहीं कर सकूँगा।?।1। रहाउ।

चंदन के पौधों को साँप चिपके हुए हैं (और उन्होंने चंदन को झूठा कर दिया है), जहर और अमृत (भी समुंद्र में) इकट्ठे ही बसते हैं।2।

सुगंधि आ जाने के कारण धूप दीप और नैवेद्य भी (झूठे हो जाते हैं), (फिर हे प्रभू! अगर तेरी पूजा इन चीजों के साथ ही हो सकती हो, तो यह झूठी चीजें तेरे आगे रख के) तेरे भगत किस तरह तेरी पूजा करें?।3।

(हे प्रभू! ) मैं अपना तन और मन अर्पित करता हूँ, तेरी पूजा के तौर पर भेट करता हूँ; (इसी भेटा से ही) सतिगुरू की मेहर की बरकति से तुझ माया-रहित को ढूँढ सकता हूँ।4।

रविदास कहता है– (हे प्रभू! अगर सुच्चे दूध, फूल, धूप, चंदन और नैवेद आदि की भेटा से ही तेरी पूजा हो सकती तो कहीं भी ये वस्तुएं स्वच्छ ना मिलने के कारण) मुझसे तेरी पूजा व भक्ति हो ही नहीं सकती, तो फिर (हे प्रभू!) मेरा क्या हाल होता?।5।1।

भाव: लोग देवी-देवताओं की मूर्तियों को अपनी और स्वच्छ जल, फूल और दूध आदि प्रसन्न करने के यत्न करते हैं; पर ये चीजें तो पहले ही झूठी हो जाती हैं। परमात्मा ऐसी चीजों की भेटा से खुश नहीं होता। वह तो तन मन की भेट माँगता है।

गूजरी स्री त्रिलोचन जीउ के पदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अंतरु मलि निरमलु नही कीना बाहरि भेख उदासी ॥ हिरदै कमलु घटि ब्रहमु न चीन्हा काहे भइआ संनिआसी ॥१॥ भरमे भूली रे जै चंदा ॥ नही नही चीन्हिआ परमानंदा ॥१॥ रहाउ ॥ घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ॥ भूमि मसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ॥२॥ काइ जपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पाणी ॥ लख चउरासीह जिन्हि उपाई सो सिमरहु निरबाणी ॥३॥ काइ कमंडलु कापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ॥ बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्राणी कण बिनु गाहु कि पाही ॥४॥१॥ {पन्ना 525-526}

पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी (मन) (शब्द ‘अंतरु’ और ‘अंतरि’ का फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मलि = मल वाला, मलीन।

(नोट: शब्द ‘मलु’ व्याकरण अनुसार ‘संज्ञा’ है इससे बना शब्द ‘मलि’ विषोशण) है॥

कीना = किया। भेख = धार्मिक लिबास। उदासी = विरक्त, जगत की ओर से उपराम। हिरदै कमलु न चीना = हृदय का कमल पुष्प नहीं पहचाना। घटि = घट में, हृदय में।1।

रे = हे भाई! नही नही = बिल्कुल नहीं। चीनि्आ = पहचाना। परमानंद = सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभू को।1। रहाउ।

घरि घरि = हरेक घर में, हरेक घर से, घर घर से। पिंडु = शरीर। बधाइआ = मोटा कर लिया। खिंथा = गोदड़ी। मसाण भूमि = वह धरती जहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं। भसम = राख। ततु = असलियत।2।

काइ = किस लिए? जपहु = जप करते हो। रे = हे भाई! बिलोवहु = मथते हो। जिनि = जिस (प्रभू) ने। निरबाणी = वासना रहित प्रभू।3।

कमंडलु = (संस्कृत: कमण्डल) मिट्टी व लकड़ी का प्याला आदि साधू लोग पानी पीने के लिए पास रखते हैं, पत्थर। कापड़ीआ = टाकियों की बनी हुई गोदड़ी पहनने वाला। कण = अन्न के दाने। रे = हे भाई! हे जै चंद! अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। बदति = कहता है। कण = दाने। कि = किसलिए?।4।

अर्थ: अगर (किसी मनुष्य ने) अंदरूनी मलीन (मन) साफ नहीं किया, पर बाहर से (शरीर पर) साधूओं वाला भेष बनाया हुआ है, अगर उसने अपने हृदय रूपी कमल को नहीं परखा, अगर उसने अपने अंदर परमात्मा को नहीं देखा, तो सन्यास धारण करने का कोई लाभ नहीं।1।

हे जै चंद! सारी दुनिया (इसी भुलेखे में) भूली पड़ी है ( कि निरा फकीरी भेष धारण करने से परमात्मा मिल जाता है, पर ये गलत है, इस तरह परमानंद प्रभू की समझ कभी भी नहीं पड़ती।1। रहाउ।

(जिस मनुष्य ने) घर घर से (माँग के टुकड़े) खा लिए, (अपने) शरीर को अच्छा पाल लिया, गोदड़ी पहन ली, मुंद्रें भी पहन लीं, (पर सब कुछ) माया की खातिर ही (किया), मसाणों की धरती की राख भी (शरीर पे) मल ली, पर अगर वह गुरू के राह पर नहीं चला तो इस तरह तत्व की प्राप्ति नहीं होती।2।

(हे भाई!) क्यों (गिन मिथ के) जाप करते हो? क्यों तप साधते हो? किसलिए पानी में मथानी चला रहे हो? (हठ के साथ किए हुए ये साधन तो पानी में मथानी चलाने के समान हैं); उस वासना-रहित प्रभू को (हर वक्त) याद करो, जिसने चौरासी लाख (जोनि वाली सृष्टि) पैदा की है।3।

हे टाकियाँ लगे कपड़े पहनने वाले! (हाथ में) खप्पर पकड़ने का कोई लाभ नहीं। अढ़सठ तीर्थों पर भटकने का भी कोई लाभ नहीं। त्रिलोचन कहता है– हे बंदे! सुन; अगर (अनाज रखने वाली भरियों में) अनाज के दाने नहीं, तो उसकी गहराई नापने का भी कोई लाभ नहीं।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh