श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नानक सोई सिमरीऐ हरि जीउ जा की कल धारी राम ॥ गुरमुखि मनहु न वीसरै हरि जीउ करता पुरखु मुरारी राम ॥ दूखु रोगु न भउ बिआपै जिन्ही हरि हरि धिआइआ ॥ संत प्रसादि तरे भवजलु पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ वजी वधाई मनि सांति आई मिलिआ पुरखु अपारी ॥ बिनवंति नानकु सिमरि हरि हरि इछ पुंनी हमारी ॥४॥३॥ {पन्ना 544}

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जा की = जिस की। कल = कला, मता। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। मनहु = मन से। पुरखु = सर्व व्यापक। मुरारी = (मुर = अरि। अरि = वैरी) परमात्मा। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। पूरबि = पूर्बले जनम में (कमाए अनुसार)। पाइआ = प्राप्त कर लिया। वधाई = बढ़ती हुई दशा, चढ़दी कला। वजी = बज पड़ी (जैसे बाजा बजते हुए और छोटी मोटी आवाजें नहीं सुनतीं)। मनि = मन में। अपारी = बेअंत। नानकु = (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में फर्क देखें)। सिमरि = सिमर के। पुंनी = पूरी हो गई।4।

अर्थ: हे नानक! (सदा) उस परमात्मा का सिमरन करना चाहिए (सारे संसार में) जिसकी सक्ता काम कर रही है। (हे नानक! गुरू की शरण पड़ना चाहिए) गुरू की शरण पड़ने से सर्व-व्यापक करतार प्रभू मन से नहीं भूलता। जिन मनुष्यों ने (सदा) परमात्मा का सिमरन किया है उन पर कोई रोग, कोई दुख, कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता। उन्होंने गुरू की कृपा से ये संसार-समुंद्र तैर लिया (समझो), पूर्बले जनम की कमाई के मुताबिक (माथे पर भक्ति का) लिखा लेख उनको प्राप्त हो गया। उनके अंदर चढ़दीकला प्रबल हो गई, उनके मन शीतल हो गए, उन्हें बेअंत प्रभू मिल गया।

नानक विनती करता है, परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के मेरी भी (प्रभू-मिलाप वाली चिरों की) आस पूरी हो गई है।4।3।

बिहागड़ा महला ५ घरु २    ੴ सति नामु गुर प्रसादि ॥ वधु सुखु रैनड़ीए प्रिअ प्रेमु लगा ॥ घटु दुख नीदड़ीए परसउ सदा पगा ॥ पग धूरि बांछउ सदा जाचउ नाम रसि बैरागनी ॥ प्रिअ रंगि राती सहज माती महा दुरमति तिआगनी ॥ गहि भुजा लीन्ही प्रेम भीनी मिलनु प्रीतम सच मगा ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा रहउ चरणह संगि लगा ॥१॥ {पन्ना 544}

पद्अर्थ: वधु = लंबी होती जा। सुख = आत्मक आनंद। रैनड़ीऐ = हे सोहणी रात! प्रिअ = प्यारे का। घटु = कम होती जा। नीदड़ीऐ = हे कोझी (गफलत की) नींद! परसउ = मैं छूती रहूँ। पग = पैर। बांछउ = मैं चाहती हूँ। जाचउ = मैं माँगती हूँ। रसि = रस में। रंगि = रंग में। सहज = आत्मक अडोलता। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। भीनी = भीग गई। सच = सदा स्थिर रहने वाला। मगा = रास्ता। रहउ = मैं रहूँ।1।

अर्थ: हे आत्मिक आनंद देने वाली सुंदर (जीवन की) रात्रि! तू लंबी होती जा, (ता कि मेरे हृदय में) प्यारे का प्रेम बना रहे। हे दुखदाई कोझी (गफ़लत की) नींद! तू घटती जा, (ता कि) मैं (तुझसे बची रहूँ, और) हमेशा (जागती रहूँ और) प्रभू के चरण छूती रहूँ।

मैं (प्रभू के) चरणों की धूड़ की तमन्ना रखती हूँ, मैं सदा (उसके दर से यही) माँगती हूँ कि उसके नाम के स्वाद में (दुनिया से) विरक्त बनी रहूँ, प्यारे के प्रेम रंग में रंगी हुई, आत्मिक अडोलता के (आनंद में) मस्त मैं इस बड़ी (बैरनि) बुरी मति का त्याग किए रहूँ।

(प्रभू ने मेरी) बाँह पकड़ के मुझे अपनी बना लिया है, मैं उसके प्रेम रस में भीग गई हूँ, सदा कायम रहने वाले प्रीतम को मिलना ही (जिंदगी का सही) रास्ता है। नानक विनती करता है (-हे प्रभू!) कृपा कर, मैं सदा तेरे चरणों से जुड़ा रहूँ।1।

मेरी सखी सहेलड़ीहो प्रभ कै चरणि लगह ॥ मनि प्रिअ प्रेमु घणा हरि की भगति मंगह ॥ हरि भगति पाईऐ प्रभु धिआईऐ जाइ मिलीऐ हरि जना ॥ मानु मोहु बिकारु तजीऐ अरपि तनु धनु इहु मना ॥ बड पुरख पूरन गुण स्मपूरन भ्रम भीति हरि हरि मिलि भगह ॥ बिनवंति नानक सुणि मंत्रु सखीए हरि नामु नित नित नित जपह ॥२॥ {पन्ना 544}

पद्अर्थ: कै चरणि = के चरण में (एक वचन)। लगह = आओ, हम लगें (वर्तमान, उक्तम पुरख, बहुवचन)। मनि = मन में। घणा = बहुत। मंगह = आओ, हम माँगे। पाईअै = पा लेते हैं। जाइ = जा के। तजीअै = छोड़ देना चाहिए। अरपि = भेटा करके। भ्रम भीति = भटकना की दीवार। मिलि = मिल के। भगह = आओ, तोड़ दें। मंत्र = सलाह। जपह = आओ, हम जपें।2।

अर्थ: हे मेरी सखियो! हे मेरी प्यारी सहेलियो! आओ, हम प्रभू के चरणों में जुड़ें। (मेरे) मन में प्यारे का बहुत प्रेम बस रहा है, आओ हम (उससे) भक्ति का दान माँगे। हे सहेलियो! जा के हरी के संत-जनों को मिलना चाहिए (उनकी सहायता से) परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए, (इस तरह) परमात्मा की भक्ति प्राप्त होती है। हे सखियो! अपना ये मन ये शरीर ये धन (सब कुछ) भेटा करके (अपने अंदर से) अहंकार, माया का मोह, विकार दूर कर देना चाहिए। हे सहेलियो! जो प्रभू सबसे बड़ा है, सर्व व्यापक है, सारे गुणों से भरपूर है, उसको मिल के (उससे दूरी बनाने वाली अपने अंदर से) भटकना की दीवार गिरा दें। नानक विनती करता है– हे मेरी सहेली! मेरी सलाह सुन, आ सदा ही सदा ही परमात्मा का नाम जपते रहें।2।

हरि नारि सुहागणे सभि रंग माणे ॥ रांड न बैसई प्रभ पुरख चिराणे ॥ नह दूख पावै प्रभ धिआवै धंनि ते बडभागीआ ॥ सुख सहजि सोवहि किलबिख खोवहि नाम रसि रंगि जागीआ ॥ मिलि प्रेम रहणा हरि नामु गहणा प्रिअ बचन मीठे भाणे ॥ बिनवंति नानक मन इछ पाई हरि मिले पुरख चिराणे ॥३॥ {पन्ना 544}

पद्अर्थ: हरि नारि = प्रभू पति की स्त्री। सुहागणे = सौभाग्यवती। सभि = सारे। बैसई = बैठे। चिराणे = चिरों के, आदि के। ते = वह जीव सि्त्रयां (बहुवचन)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सोवहि = सोती हैं, लीन रहती हैं। किलबिख = पाप। जागीआ = (माया के मोह से) सचेत रहती हैं। मिलि = (साध-संगत में) मिल के। प्रिअ बचन = प्यारे के बोल। भाणे = अच्छे लगते हैं। मन इछ = मन की कामना।3।

अर्थ: जो जीव-स्त्री अपने आप को प्रभू-पति के हवाले कर देती है वह भाग्यशाली बन जाती है, वह सारे आनंद पाती है वह कभी पति-हीन नहीं होती, (उसके सिर पर) आदि से पति-प्रभू (हाथ रखे रहता है), उस जीव-स्त्री को कोई दुख नहीं व्याप्तता वह सदा प्रभू-पति का ध्यान धरती है।

जो जीव-सि्त्रयाँ प्रभू के नाम के स्वाद में प्रभू के प्रेम में (टिक के, माया के मोह की नींद में पड़ने से) सुचेत रहती हैं वे मुबारक हैं वे अति भाग्यशाली हैं वे आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहती हैं, वे (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर लेती हैं।

नानक विनती करता है– जो जीव-सि्त्रयाँ (साध-संगति में) प्रेम से मिल के रहती हैं, प्रभू का नाम जिनकी जिंदगी का श्रृंगार बना रहता है, जिनको प्रीतम प्रभू की सिफत सालाह के बोल मीठे लगते हैं, अच्छे लगते हैं, उनकी (चिरों की) मनोकामना पूरी हो जाती है (भाव) उनको आदि का पति-प्रभू मिल जाता है।3।

तितु ग्रिहि सोहिलड़े कोड अनंदा ॥ मनि तनि रवि रहिआ प्रभ परमानंदा ॥ हरि कंत अनंत दइआल स्रीधर गोबिंद पतित उधारणो ॥ प्रभि क्रिपा धारी हरि मुरारी भै सिंधु सागर तारणो ॥ जो सरणि आवै तिसु कंठि लावै इहु बिरदु सुआमी संदा ॥ बिनवंति नानक हरि कंतु मिलिआ सदा केल करंदा ॥४॥१॥४॥ {पन्ना 544}

पद्अर्थ: तितु = उस में। ग्रिहि = घर में। तितु ग्रिहि = उस हृदय घर में। सोहिलड़े = खुशी के गीत। कोड = कौतक, तमाशे। मनि = मन में। तनि = शरीर में, हृदय में। रवि रहिआ = आ बसा। परमानंदा = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक। अनंत = बेअंत। दइआल = दया का घर। स्रीधर = श्रीधर (श्री = लक्ष्मी) लक्ष्मी का पति। पतित उधारणो = विकारियों को विकारों से बचाने वाला। प्रभि = प्रभू ने। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। सिंधु = समुंद्र। सागर = समंद्र। कंठि = गले से। बिरदु = आदि कुदरती स्वभाव। संदा = का। केल = चोज तमाशे, अटखेलियां। करंदा = करने वाला।

अर्थ: सबसे श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभू जिस मन में जिस हृदय में आ बसता है, उस हृदय-घर में (मानो) खुशी के गीत (गाए जा रहे हैं) रंग-तमाशे (हो रहे हैं), आनंद (हो रहा है)। प्रभू-पति बेअंत है, सदा दया का घर है, लक्ष्मी का आसरा है, सृष्टि की सार लेने वाला है, विकारियों को विकार से बचाने वाला है। उस मुरारी प्रभू ने जिस जीव पर मेहर की निगाह कर दी, उस जीव को अनेकों सहम भरे संसार से पार लंघा लिया।

नानक विनती करता है– मालिक प्रभू का ये आदि कुदरती स्वभाव (बिरद) है कि जो जीव उसकी शरण आता है उसको वह अपने गले से लगा लेता है, और वह सदा चोज-तमाशे करने वाला प्रभू (उस शरण आए को) मिल लेता है।4।1।4।

बिहागड़ा महला ५ ॥ हरि चरण सरोवर तह करहु निवासु मना ॥ करि मजनु हरि सरे सभि किलबिख नासु मना ॥ करि सदा मजनु गोबिंद सजनु दुख अंधेरा नासे ॥ जनम मरणु न होइ तिस कउ कटै जम के फासे ॥ मिलु साधसंगे नाम रंगे तहा पूरन आसो ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा हरि चरण कमल निवासो ॥१॥ {पन्ना 544-545}

पद्अर्थ: सर = तालाब। सरोवर = श्रेष्ठ तालाब। तह = वहाँ। मना = हे मन! मजनु = स्नान। सरे = सरोवर में। हरि सरे = परमात्मा (की सिफत सालाह) के सरोवर में। सभि = सारे। किलबिख = पाप। सजनु = मित्र। नासे = नाश कर देता है। कउ = को। कटै = काट देता है। फासे = फांसियां। रंगे = रंगि, प्रेम में। तहा = उस (साध-संगति) में। हरि = हे हरी!।1।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के चरण (जैसे) सुंदर सा तालाब है, उसमें तू (सदा) टिका रह। हे मन! परमात्मा (की सिफत सालाह) के तालाब में स्नान किया कर, तेरे सारे पापों का नाश हो जाएगा। हे मन! सदा (हरि-सर में) स्नान करता रहा कर। (जो मनुष्य ये स्नान करता है) मित्र प्रभू उसके सारे दुख नाश कर देता है उसके मोह का अंधकार दूर कर देता है। उस मनुष्य को जनम-मरण का चक्कर नहीं भुगतना पड़ता, मित्र-प्रभू उसकी जम की फांसियां (आत्मक मौत लाने वाली फाँसियां) काट देता है। हे मन! साध-संगत में मिल, परमात्मा के नाम-रंग में जुड़ा कर, साध-संगत में ही तेरी हरेक आस पूरी होगी।

नानक विनती करता है– हे हरी! कृपा कर, तेरे सुंदर कोमल चरणों में मेरा मन सदा टिका रहे।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh