श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 553 सलोकु मरदाना १ ॥ कलि कलवाली कामु मदु मनूआ पीवणहारु ॥ क्रोध कटोरी मोहि भरी पीलावा अहंकारु ॥ मजलस कूड़े लब की पी पी होइ खुआरु ॥ करणी लाहणि सतु गुड़ु सचु सरा करि सारु ॥ गुण मंडे करि सीलु घिउ सरमु मासु आहारु ॥ गुरमुखि पाईऐ नानका खाधै जाहि बिकार ॥१॥ {पन्ना 553} नोट: भाई मरदाना जी अपनी किसी रचना में शब्द ‘नानक’ नहीं लगा सकते थे। दरअसल, ये शलोक महला १ है और मर्दाना को संबोधित है। तीनों ही सलोक महले १ के हैं। पद्अर्थ: कलि = कलियुगी स्वभाव, प्रभू से विछोड़े की हालत। कलवाली = शराब निकालने वाली मट्टी। मदु = शराब। माहि = मोह से। मजलस = महिफिल। लाहणि = गुड़ पानी आदि जो मिला के मिट्टी में डाल के रूढ़ी में दबा के ferment कर लेते हैं। सतु = सच। सरा = शराब। सारु = श्रेष्ठ। मंडे = रोटियां। सील = अच्छा स्वभाव। सरमु = हया। आहारु = खुराक। अर्थ: कलियुगी स्वभाव (जैसे) (शराब निकालने वाली) मट्टी है; काम (मानो) शराब है और इसको पीने वाला (मनुष्य का) मन है, मोह से भरी हुई क्रोध की (जैसे) कटोरी है और अहंकार (जैसे) पिलाने वाला है। झूठ और लालच की (मानो) मजलिस है (जिसमें बैठ के) मन (काम की शराब को) पी पी के ख्वार होता है। (पर इसके उलट, हे मनुष्य! तू) सद् कर्मों को (शराब निकालने वाली) लाहण, सच के बोलों को गुड़ बना और सच्चे नाम को शराब बना। गुणों को रोटी, शील स्वभाव को घी और शर्म को मास-- (ये सारी) खुराक बना। हे नानक! ये ख़ुराक सतिगुरू के सन्मुख होने से मिलती है और इसके खाने से सारे विकार दूर हो जाते हैं।1। मरदाना १ ॥ काइआ लाहणि आपु मदु मजलस त्रिसना धातु ॥ मनसा कटोरी कूड़ि भरी पीलाए जमकालु ॥ इतु मदि पीतै नानका बहुते खटीअहि बिकार ॥ गिआनु गुड़ु सालाह मंडे भउ मासु आहारु ॥ नानक इहु भोजनु सचु है सचु नामु आधारु ॥२॥ {पन्ना 553} पद्अर्थ: आपु = स्वै, अहंकार। धातु = दौड़ भाग, भटकना। मनसा = वासना। अर्थ: शरीर जैसे (शराब निकालने वाली सामग्री समेत) मट्टी है, अहंकार शराब, और तृष्णा में भटकना (जैसे) महफिल है, झूठ से भरी हुई वासना (मानो) कटोरी है और जम काल (जैसे) पिलाता है। हे नानक! इस शराब के पीने से बहुत सारे विकार कमाए जाते हैं (भाव, अहंकार, तृष्णा झूठ आदि के कारण विकार ही विकार पैदा हो रहे हैं)। प्रभू का ज्ञान (जैसे) गुड़ हो, सिफत सालाह रोटियां, (प्रभू का) भय माँस - ये खुराक हो, हे नानक! ये भोजन सच्चा है, क्योंकि सच्चा नाम ही (जिंदगी का) आसरा हो सकता है।2। कांयां लाहणि आपु मदु अम्रित तिस की धार ॥ सतसंगति सिउ मेलापु होइ लिव कटोरी अम्रित भरी पी पी कटहि बिकार ॥३॥ {पन्ना 553} अर्थ: (अगर) शरीर मट्टी हो, स्वै का पहचान शराब और उसकी धार (भाव, जिसकी धार) अमर करने वाली हो, सत्संगति से मेल हो (भाव, मजलिस सत्संगति की हो), अमृत (नाम) की भरी हुई चिंतन (रूपी) कटोरी हो, (तो ही मनुष्य) (इस शराब को) पी-पी के सारे विकार-पाप दूर करते हैं।1। पउड़ी ॥ आपे सुरि नर गण गंधरबा आपे खट दरसन की बाणी ॥ आपे सिव संकर महेसा आपे गुरमुखि अकथ कहाणी ॥ आपे जोगी आपे भोगी आपे संनिआसी फिरै बिबाणी ॥ आपै नालि गोसटि आपि उपदेसै आपे सुघड़ु सरूपु सिआणी ॥ आपणा चोजु करि वेखै आपे आपे सभना जीआ का है जाणी ॥१२॥ {पन्ना 553} पद्अर्थ: गंधरब = देवताओं के रागी। खट दरसन = छे शास्त्र। संकर, महेस = शिव जी के नाम। अकथ = जो बयान ना हो सके। बिबाणी = उजाड़। गोसटि = चरचा। सुघड़ु = सुचज्जा। चोजु = तमाशा। जाणी = जानने वाला। अर्थ: प्रभू खुद ही देवता, मनुष्य, (शिव जी के) गण, गंधर्व (देवताओं के रागी), और खुद ही छे दर्शनों की बोली (बनाने वाला) है, खुद ही शिव, शंकर और महेश (का कर्ता) है, खुद ही गुरू के सन्मुख हो के अपने अकथ स्वरूप की महिमाएं (करता है), खुद ही योग साधना करने वाला है, खुद ही भोगों में प्रवृक्त है और खुद ही जोगी बन के उजाड़ों में फिरता है, खुद ही अपने साथ चर्चा करता है, खुद ही उपदेश करता है, खुद ही सद्-बुद्धि वाला सुंदर स्वरूप वाला है। अपने करिश्में करके खुद ही देखता है और खुद ही सारे जीवों के दिलों की जानने वाला है।12। सलोकु मः ३ ॥ एहा संधिआ परवाणु है जितु हरि प्रभु मेरा चिति आवै ॥ हरि सिउ प्रीति ऊपजै माइआ मोहु जलावै ॥ गुर परसादी दुबिधा मरै मनूआ असथिरु संधिआ करे वीचारु ॥ नानक संधिआ करै मनमुखी जीउ न टिकै मरि जमै होइ खुआरु ॥१॥ {पन्ना 553} पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन, द्वैत भाव। असथिरु = टिका हुआ। संधिआ = पाठ पूजा। अर्थ: वही संध्या कबूल है जिस से प्यारा प्रभू हृदय में बस जाए, प्रभू से प्यार पैदा हो जाए और माया का मोह जल जाए। सतिगुरू की कृपा से जिस मनुष्य की दुविधा दूर हो, मन ठहर जाए, वह संध्या की (सच्ची) विचार करता है। हे नानक! मनमुख संध्या करता है, (पर) उसका मन नहीं टिकता (इस वास्ते) वह पैदा होता व मरता है और ख्वार होता है।1। मः ३ ॥ प्रिउ प्रिउ करती सभु जगु फिरी मेरी पिआस न जाइ ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ मेरी पिआस गई पिरु पाइआ घरि आइ ॥२॥ {पन्ना 553} अर्थ: ‘प्यारा प्यारा’ कूकती मैं सारा संसार फिरती रही, पर मेरी प्यास दूर नहीं हुई। हे नानक! सतिगुरू को मिल के मेरी प्यास बुझ गई है, घर में आ के प्यारा पति मिल गया है।2। पउड़ी ॥ आपे तंतु परम तंतु सभु आपे आपे ठाकुरु दासु भइआ ॥ आपे दस अठ वरन उपाइअनु आपि ब्रहमु आपि राजु लइआ ॥ आपे मारे आपे छोडै आपे बखसे करे दइआ ॥ आपि अभुलु न भुलै कब ही सभु सचु तपावसु सचु थिआ ॥ आपे जिना बुझाए गुरमुखि तिन अंदरहु दूजा भरमु गइआ ॥१३॥ {पन्ना 553} पद्अर्थ: दस अठ = अठारह। उपाइअनु = पैदा किए है उसने। तपावसु = न्याय। दूजा भरमु = माया वाली भटकना। अर्थ: छोटी तार (भाव, जीव) बड़ी तार (भाव, परमेश्वर) - सब कुछ प्रभू खुद ही है, खुद ही ठाकुर और खुद ही दास है। प्रभू ने खुद ही अठारह वर्ण बनाए, खुद ही ब्रहम है और खुद ही (सृष्टि का) राज उसने लिया है। (जीवों को) वह खुद ही मारता है खुद ही छोड़ता है, खुद ही बख्शता है और खुद ही मेहर करता है। प्रभू स्वयं अभॅुल है, कभी भूलता नहीं, उसका इन्साफ भी निरोल सच है, सतिगुरू के द्वारा जिनको स्वयं समझा देता है उनके हृदय में से माया की भटकना दूर हो जाती है।13। सलोकु मः ५ ॥ हरि नामु न सिमरहि साधसंगि तै तनि उडै खेह ॥ जिनि कीती तिसै न जाणई नानक फिटु अलूणी देह ॥१॥ {पन्ना 553} पद्अर्थ: तै तनि = उनके शरीर पर। खेह = राख। जिनि = जिस प्रभू ने। अलूणी = प्रेम विहीन। देह = शरीर। अर्थ: जो मनुष्य साध-संगति में हरी का नाम नहीं सिमरते, उनके शरीर पर राख पड़ती है (भाव, उनके शरीर धिक्कारे जाते हैं)। हे नानक! प्रेम से विहीन उस शरीर को धिक्कार है, जो उस प्रभू को नहीं पहचानता जिसने उसको बनाया है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |