श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ हउमै विचि जगतु मुआ मरदो मरदा जाइ ॥ जिचरु विचि दमु है तिचरु न चेतई कि करेगु अगै जाइ ॥ गिआनी होइ सु चेतंनु होइ अगिआनी अंधु कमाइ ॥ नानक एथै कमावै सो मिलै अगै पाए जाइ ॥१॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: करेगु = करेगा। गिआनी = समझदार। अगिआनी = मूर्ख। अंधु = अंधोंवाला काम।

अर्थ: संसार अहंकार में मरा पड़ा है, नित्य (नीचे ही नीचे) गरकता ही है। जब तक शरीर में दम है, प्रभू को याद नहीं करता; (संसारी जीव अहंकार में रह के कभी नहीं सोचता कि) आगे दरगाह में जा के क्या हाल होगा।

जो मनुष्य दयावान होता है, वह सचेत रहता है और अज्ञानी मनुष्य अज्ञानता का ही काम करता है। हे नानक! मानस जनम में जो कुछ मनुष्य कमाई करता है, वही मिलती है, परलोक में जा के भी वही मिलती है।1।

मः ३ ॥ धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ अंतरि रवि रहिआ सदा रहिआ लिव लाइ ॥ दमि दमि सदा समालदा दमु न बिरथा जाइ ॥ जनम मरन का भउ गइआ जीवन पदवी पाइ ॥ नानक इहु मरतबा तिस नो देइ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: दंमु = स्वास। बिरथा = व्यर्थ, खाली। पदवी = दर्जा, मरतबा।

अर्थ: धुर से ही प्रभू का हुकम चला आ रहा है कि सतिगुरू के बिना प्रभू का सिमरन नहीं किया जा सकता; सतिगुरू के मिलने पर प्रभू मनुष्य के हृदय में बस जाता है और मनुष्य सदा उसमें बिरती जोड़े रखता है; श्वास-श्वास उसको चेता करता है, एक भी श्वास व्यर्थ नहीं जाता; (इस तरह उसका) पैदा होने मरने का डर खत्म हो जाता है और उसको (असल मानस) जीवन का दर्जा मिल जाता है।

हे नानक! प्रभू ये मर्तबा (भाव, जीवन पदवी) उस मनुष्य को देता है जिस पर अपनी रजा में मेहर करता है।2।

पउड़ी ॥ आपे दानां बीनिआ आपे परधानां ॥ आपे रूप दिखालदा आपे लाइ धिआनां ॥ आपे मोनी वरतदा आपे कथै गिआनां ॥ कउड़ा किसै न लगई सभना ही भाना ॥ उसतति बरनि न सकीऐ सद सद कुरबाना ॥१९॥ {पन्ना 556}

अर्थ: प्रभू खुद ही समझदार है, खुद ही चतुर है और खुद ही नायक है, खुद ही (अपने) रूप दिखलाता है और खुद ही बिरती जोड़ता है, खुद ही मौनधारी है और खुद ही ज्ञान की बातें करने वाला है, किसी को कड़वा नहीं लगता (किसी को किसी रंग में, किसी को किसी रंग में) सभी को प्यारा लगता है। ऐसे प्रभू से मैं सदके हूँ, उसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।19।

सलोक मः १ ॥ कली अंदरि नानका जिंनां दा अउतारु ॥ पुतु जिनूरा धीअ जिंनूरी जोरू जिंना दा सिकदारु ॥१॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: जिंन = भूत। अउतारु = जनम। जिनूरा = छोटा जिंन, भूतना। जिंनूरी = भूतनी।

अर्थ: हे नानक! कलयुग में (विकारी जीवन में) रहने वाले (मनुष्य नहीं) भूतने पैदा हुए है, पुत्र भूतना, बेटी भूतनी और स्त्री (सारे) भूतनियों की सिरदार है (भाव, नाम से वंचित सब जीव भूतने हैं)।1।

मः १ ॥ हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ॥ नारदि कहिआ सि पूज करांही ॥ अंधे गुंगे अंध अंधारु ॥ पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ॥ ओहि जा आपि डुबे तुम कहा तरणहारु ॥२॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: मूले = बिल्कुल ही। अखुटी जांही = बिछुड़ते जा रहे हैं। नारदि = नारद ने। गवार = उजड्ड। ओहि = वह पत्थर। कहा = कैसे।

अर्थ: हिन्दू बिल्कुल ही भटके हुए टूटते जा रहे हैं, जो नारद ने कहा वही पूजा करते हैं, इन अंधे-गूंगों के लिए घुप-अंधेरा छाया हुआ है (भाव, ना ये सही रास्ता देख रहे हें ना ही मुँह से प्रभू के गुण गाते हैं), ये मूर्ख गवार पत्थर ले के पूज रहे हैं।

(हे भाई! जिन पत्थरों को पूजते हो) जब वे खुद (पानी में) डूब जाते हैं (तो उनको पूज के) तुम (संसार-समुंद्र से) कैसे तैर सकते हो?

पउड़ी ॥ सभु किहु तेरै वसि है तू सचा साहु ॥ भगत रते रंगि एक कै पूरा वेसाहु ॥ अम्रितु भोजनु नामु हरि रजि रजि जन खाहु ॥ सभि पदारथ पाईअनि सिमरणु सचु लाहु ॥ संत पिआरे पारब्रहम नानक हरि अगम अगाहु ॥२०॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: सभु किहु = सब कुछ। सचा = सदा रहने वाला। रंगि = रंग में। वेसाहु = भरोसा। पाईअनि = मिलते हैं। लाहु = लाभ।

अर्थ: हे प्रभू! तू सच्चा शाहु है और सब कुछ तेरे अख्तियार में है। भजन करने वाले दास एक हरी के (नाम के) रंग में रंगे हुए हैं और उस पर उन्हें पूरा भरोसा है, वह दास प्रभू का नाम (रूपी) अमर करने वाला भोजन जी भर के खाते हैं, सारे पदार्थ उनको मिलते हैं, वह नाम सिमरन (रूपी) सच्चा लाभ कमाते हैं।

हे नानक! (बात इस तरह खत्म होती है कि) जो पारब्रहम पहुँच से परे है और अगाध है, भजन करने वाले दास उसके प्यारे हैं।20।

सलोक मः ३ ॥ सभु किछु हुकमे आवदा सभु किछु हुकमे जाइ ॥ जे को मूरखु आपहु जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ नानक हुकमु को गुरमुखि बुझै जिस नो किरपा करे रजाइ ॥१॥ {पन्ना 556}

अर्थ: हरेक चीज हुकम में ही आती है और हुकम में ही चली जाती है। जो कोई मूर्ख अपने आप को (कुछ बड़ा) समझ लेता है, वह अंधा अंधों वाला काम करता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर अपनी रजा में प्रभू कृपा करता है, वह कोई विरला गुरमुख हुकम की पहचान करता है।1।

मः ३ ॥ सो जोगी जुगति सो पाए जिस नो गुरमुखि नामु परापति होइ ॥ तिसु जोगी की नगरी सभु को वसै भेखी जोगु न होइ ॥ नानक ऐसा विरला को जोगी जिसु घटि परगटु होइ ॥२॥ {पन्ना 556}

अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरू के सन्मुख हो के नाम की प्राप्ति होती है, वह सच्चा योगी है, और (जोग की) जाच उसको आई है, उस जोगी के शरीर (रूप) नगर में हरेक (गुण) बसता है, (निरे) भेष से (ईश्वर से) मेल नहीं होता। हे नानक! जिसके हृदय में प्रभू प्रत्यक्ष हो जाता है, इस तरह का कोई दुर्लभ जोगी होता है।2।

पउड़ी ॥ आपे जंत उपाइअनु आपे आधारु ॥ आपे सूखमु भालीऐ आपे पासारु ॥ आपि इकाती होइ रहै आपे वड परवारु ॥ नानकु मंगै दानु हरि संता रेनारु ॥ होरु दातारु न सुझई तू देवणहारु ॥२१॥१॥ सुधु ॥ {पन्ना 556}

पद्अर्थ: जंतु = सारे जीव। उपाइअनु = उसने पैदा किए हैं। आधारु = आसरा। सूखमु = सूक्षम, ना दिखने वाला। रैनारु = (चरणों की) धूड़।

अर्थ: उसने स्वयं ही जीवों को पैदा किया है और खुद ही (उनका) आसरा (बनता) है, खुद ही हरी सूक्षम रूप में है और खुद ही (संसार का) परपंच (रूप) है। खुद ही अकेला हो रहता है और खुद ही बड़े परिवार वाला है।

हे हरी! नानक तेरे संत-जनों की धूड़ (रूपी) दान माँगता है, तू ही देने वाला है, कोई और दाता मुझे नजर नहीं आता।21।1। सुधु।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh