श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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वडहंसु महला ४ ॥ मेरा हरि प्रभु सुंदरु मै सार न जाणी ॥ हउ हरि प्रभ छोडि दूजै लोभाणी ॥१॥ हउ किउ करि पिर कउ मिलउ इआणी ॥ जो पिर भावै सा सोहागणि साई पिर कउ मिलै सिआणी ॥१॥ रहाउ ॥ मै विचि दोस हउ किउ करि पिरु पावा ॥ तेरे अनेक पिआरे हउ पिर चिति न आवा ॥२॥ जिनि पिरु राविआ सा भली सुहागणि ॥ से मै गुण नाही हउ किआ करी दुहागणि ॥३॥ नित सुहागणि सदा पिरु रावै ॥ मै करमहीण कब ही गलि लावै ॥४॥ तू पिरु गुणवंता हउ अउगुणिआरा ॥ मै निरगुण बखसि नानकु वेचारा ॥५॥२॥ {पन्ना 561}

पद्अर्थ: सार = कद्र, कीमत। हउ = मैं। छोडि = छोड़ के। दूजै लोभाणी = माया (के मोह) में।1।

कउ = को। मिलउ = मिलूँ, मैं मिलूँ। इआणी = अंजान, मूर्ख। पिर भावै = पिर को भाती है। साई = वही। सिआणी = अक्ल वाली।1। रहाउ।

मै विचि = मेरे अंदर। पिर चिति = पिर के चिक्त में, हे पिर! तेरे चिक्त में। आवा = आऊँ।2।

जिनि = जिसने। करी = करूँ, मैं करूँ। दुहागणि = बुरे भाग्यों वाली।3।

रावै = याद रखती है, हृदय में बसाए रखती है। करमहीण = भाग्यहीन, बद्किस्मत। गलि = गले से।4।

निरगुण = गुणहीन।5।

अर्थ: मैं मूर्ख हूँ, मैं प्रभू पति को कैसे मिल सकती हूँ? जो (जीव-स्त्री) प्रभू पति को पसंद आती है, वह भाग्यशाली है, वही अक्लवाली है, वही प्रभू-पति को मिल सकती है।1। रहाउ।

मेरा हरी प्रभू सोहणा है (पर) मैंने (उसकी सुंदरता की) कद्र ना समझी, (और) मैं उस हरी को उस प्रभू को छोड़ के माया के मोह में ही फसी रही।1।

मेरे अंदर (अनेकों) ऐब हैं (जिनके कारण) मैं प्रभू-पति को मिल नहीं सकती। हे प्रभू-पति! तेरे से प्यार करने वाले अनेकों ही हैं, मैं तेरे चिक्त में नहीं आ सकती।2।

जिस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति को हृदय में बसा लिया, वह नेक है वह भाग्यशाली है। मेरी जैसी दुर्भाग्यवती को वह कभी (किस्मत से) ही अपने गले से लगाता है।4।

हे प्रभू पति! तू गुणों से भरपूर है, पर मैं अवगुणों से भरा हुआ हूँ। (तेरे दर पे ही अरदास है–) मुझ गुणहीन निमाणे नानक को बख्श ले (और, अपने नाम की दाति दे)।5।2।

वडहंसु महला ४ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मै मनि वडी आस हरे किउ करि हरि दरसनु पावा ॥ हउ जाइ पुछा अपने सतगुरै गुर पुछि मनु मुगधु समझावा ॥ भूला मनु समझै गुर सबदी हरि हरि सदा धिआए ॥ नानक जिसु नदरि करे मेरा पिआरा सो हरि चरणी चितु लाए ॥१॥ {पन्ना 561}

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। हरे = हे हरी! पावा = पाऊँ, मैं पा लूँ। पुछा = पूछूँ, मैं पूछती हूँ। जाइ = जा के। सतगुरै = गुरू को। पुछि = पूछ के। मुगधु = मूर्ख। समझावा = समझाऊँ।1।

अर्थ: मेरे मन में बड़ी तमन्ना है कि मैं किसी ना किसी तरह, हे हरी! तेरे दर्शन कर सकूँ। (इस वास्ते) मैं अपने गुरू के पास जा के गुरू से पूछती हूँ, और गुरू से पूछ के अपने मूर्ख मन को समझाती रहती हूँ। गलत रास्ते पर पड़ा हुआ (ये) मन गुरू के शबद में जुड़ के ही समझता है, और फिर वह सदा परमात्मा को याद करता रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर मेरा प्यारा प्रभू मेहर की नजर करता है, वह प्रभू के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रखता है।1।

हउ सभि वेस करी पिर कारणि जे हरि प्रभ साचे भावा ॥ सो पिरु पिआरा मै नदरि न देखै हउ किउ करि धीरजु पावा ॥ जिसु कारणि हउ सीगारु सीगारी सो पिरु रता मेरा अवरा ॥ नानक धनु धंनु धंनु सोहागणि जिनि पिरु राविअड़ा सचु सवरा ॥२॥ {पन्ना 561}

पद्अर्थ: सभि = सारे। करी = करूँ, मैं करती हूँ। पिर कारणि = पति को मिलने के लिए। जे = ता कि। भावा = भा जाऊँ, पसंद आ जाऊँ। धीरजु = शांति। सीगारी = श्रृंगार करूँ, श्रृंगारती हूँ। अवरा = औरों को। धनु = सालाहने योग्य। जिनि = जिस ने। सचु = सदा कायम रहने वाला। सवरा = संवारा हुआ।2।

अर्थ: मैं प्रभू-पति को मिलने के लिए सारे वेष (धार्मिक पहरावे आदि) करती हूँ, ता कि मैं उस सदा कायम रहने वाले हरी को पसंद आ जाऊँ। पर वह प्यारा प्रभू मेरी ओर (मेरे इन पहिरावों की तरफ) नजर करके भी नहीं देखता, (तो फिर इन बाहरी भेषों से) मैं कैसे शांति हासिल कर सकती हूँ? जिस प्रभू-पति की खातिर मैं (ये बाहरी) श्रृंगार करती हूँ, मेरा वह प्रभू-पति तो और ही बातों (अंदरूनी आत्मिक गुणों) में प्रसन्न होता है। हे नानक! (कह–) वह जीव-स्त्री सराहनीय है, भाग्यशाली है जिसने उस सदा कायम रहने वाले सुंदर प्रभू-पति को अपने हृदय में बसा लिया है।2।

हउ जाइ पुछा सोहाग सुहागणि तुसी किउ पिरु पाइअड़ा प्रभु मेरा ॥ मै ऊपरि नदरि करी पिरि साचै मै छोडिअड़ा मेरा तेरा ॥ सभु मनु तनु जीउ करहु हरि प्रभ का इतु मारगि भैणे मिलीऐ ॥ आपनड़ा प्रभु नदरि करि देखै नानक जोति जोती रलीऐ ॥३॥ {पन्ना 561}

पद्अर्थ: पुछा = पूछूँ। जाइ = जा के। सोहाग सुहागणि = प्रभू पति की प्यारी को। किउ = कैसे? पिरि साचै = सदा कायम रहने वाले पिर ने। जीउ = जिंद। इतु = इस में। मारगि = रास्ते पर। इतु मारगि = इस रास्ते पर। भैणे = हे बहन!।3।

अर्थ: प्रभू-पति की प्यारी (जीव स्त्री) को मैं जा के पूछती हूँ- (हे बहन!) तूम्हें प्यारा प्रभू-पति कैसे मिला? (वह उक्तर देती है - हे बहन!) सदा कायम रहने वाले प्रभू-पति ने मेरे पर मेहर की नजर की, तो मैंने तेर-मेर छोड़ दी। हे बहन! अपना मन, अपना शरीर, अपनी जिंद -सब कुछ प्रभू के हवाले कर दे- इस राह पर चलने से ही उसको मिल सकते हैं। हे नानक! (कह– हे बहन!) प्यारा प्रभू जिस जीव को मेहर की निगाह से देखता है उसकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति से एक-मेक हो जाती है।3।

जो हरि प्रभ का मै देइ सनेहा तिसु मनु तनु अपणा देवा ॥ नित पखा फेरी सेव कमावा तिसु आगै पाणी ढोवां ॥ नित नित सेव करी हरि जन की जो हरि हरि कथा सुणाए ॥ धनु धंनु गुरू गुर सतिगुरु पूरा नानक मनि आस पुजाए ॥४॥ {पन्ना 561-462}

पद्अर्थ: मै = मुझे। देइ = दे। तिसु = उसको। देवा = दूँ। फेरी = मैं फेरूँ। करी = मैं करूँ। मनि = मन में (टिकी हुई)। पुजाऐ = पूरी करता है।4।

अर्थ: जो (गुरमुख) मुझे हरी-प्रभू (की सिफत सालाह) का सनेहा दे, मैं अपना मन, अपना हृदय उसके हवाले करने को तैयार हूँ; मैं सदा उसको पंखा करने को तैयार हूँ, उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, उसके वास्ते पानी ढोने को तैयार हूँ। परमात्मा का जो भक्त मुझे परमात्मा की सिफत सालाह की बातें सुनाए, मैं उसकी सेवा करने को सदा तैयार हूँ, सदा तैयार हूँ। हे नानक! (कह–) धन्य है मेरा गुरू, शाबाश है मेरे पूरे गुरू को, जो मेरे मन में (प्रभू मिलाप की टिकी हुई) आस पूरी करता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh