श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 563 वडहंसु मः ५ ॥ अंतरजामी सो प्रभु पूरा ॥ दानु देइ साधू की धूरा ॥१॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ तेरी ओट पूरन गोपाला ॥१॥ रहाउ ॥ जलि थलि महीअलि रहिआ भरपूरे ॥ निकटि वसै नाही प्रभु दूरे ॥२॥ जिस नो नदरि करे सो धिआए ॥ आठ पहर हरि के गुण गाए ॥३॥ जीअ जंत सगले प्रतिपारे ॥ सरनि परिओ नानक हरि दुआरे ॥४॥४॥ {पन्ना 563} पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। दानु = बख्शीश। देइ = देता है। साधू = गुरू।1। प्रभ = हे प्रभू! ओट = आसरा। पूरन = हे सर्व व्यापक! गेपाला = हे सृष्टि के पालनहार! ।1। रहाउ। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में। निकटि = नजदीक।2। जिस नो: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। गाऐ = गाता है।3। जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन)। दुआरे = द्वार पे।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (मेरे पर) कृपा कर (मुझे गुरू के चरणों की धूड़ बख्श)। हे सर्व-व्यापक! हे सृष्टि-पालक! मुझे तेरा ही आसरा है।1। रहाउ। हे भाई! वह प्रभू सबके दिल की जानने वाला है, सारे गुणों से भरपूर है, (जिस पर वह मेहर करता है उस को) गुरू के चरणों की धूड़ (बतौर) बख्शिश देता है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू पानी में, धरती में, आकाश में, हर जगह ज़ॅरे ज़ॅरे में मौजूद है, वह (हरेक जीव के) नजदीक बसता है, किसी से दूर नहीं है।2। हे भाई! जिस मनुष्य पर (वह) मेहर की निगाह करता है वह मनुष्य उसका सिमरन करता रहता है, वह मनुष्य आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। हे भाई! परमात्मा सारे जीवों की पालना करता है। हे नानक! (उस प्रभू के आगे अरदास किया कर और कहा कर-) हे हरी! मैं तेरे दर पर आया हूँ, मैं तेरी शरण पड़ा हूँ (मुझे गुरू के चरणों की धूड़ बख्श)।4।4। वडहंसु महला ५ ॥ तू वड दाता अंतरजामी ॥ सभ महि रविआ पूरन प्रभ सुआमी ॥१॥ मेरे प्रभ प्रीतम नामु अधारा ॥ हउ सुणि सुणि जीवा नामु तुमारा ॥१॥ रहाउ ॥ तेरी सरणि सतिगुर मेरे पूरे ॥ मनु निरमलु होइ संता धूरे ॥२॥ चरन कमल हिरदै उरि धारे ॥ तेरे दरसन कउ जाई बलिहारे ॥३॥ करि किरपा तेरे गुण गावा ॥ नानक नामु जपत सुखु पावा ॥४॥५॥ {पन्ना 563} पद्अर्थ: दाता = बख्शिशें करने वाला। पूरन = सर्व व्यापक।1। प्रभ = हे प्रभू! अधारा = आसरा। हउ = मैं। सुणि = सुन के। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।1। रहाउ। सतिगुर = हे सतिगुरू! धूरे = चरण = धूड़ में।2। उरि = हृदय में। जाई = मैं जाता हूँ। कउ = को से।3। गावा = गाऊँ, गाऊँ। पावा = पाऊँ।4। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभू! तेरा नाम (मेरी जिंदगी का) आसरा है। तेरा नाम सुन सुन के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।1। रहाउ। हे मेरे स्वामी! हे सर्व-व्यापक प्रभू! तू सबसे बड़ा दाता है, तू (जीवों के) दिलों की जानने वाला है, तू सबके अंदर मौजूद है।1। हे मेरे पूरे सतिगुरू! मैं तेरी शरण आया हूँ, तेरे संत-जनों के चरणों की धूड़ से मन पवित्र हो जाता है (और, परमात्मा का दर्शन होता है)।2। हे प्रभू! मैं तेरे दर्शनों से कुर्बान जाता हूँ, तेरे सुंदर कोमल चरण मैंने अपने हृदय में टिकाए हुए हैं।3। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) मेहर कर, मैं तेरे गुण गाता रहूँ, और तेरा नाम जपते हुए आत्मिक आनंद लेता रहूँ।4।5। वडहंसु महला ५ ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीजै ॥ ना जीउ मरै न कबहू छीजै ॥१॥ वडभागी गुरु पूरा पाईऐ ॥ गुर किरपा ते प्रभू धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ रतन जवाहर हरि माणक लाला ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए निहाला ॥२॥ जत कत पेखउ साधू सरणा ॥ हरि गुण गाइ निरमल मनु करणा ॥३॥ घट घट अंतरि मेरा सुआमी वूठा ॥ नानक नामु पाइआ प्रभु तूठा ॥४॥६॥ {पन्ना 563} पद्अर्थ: साधू संगि = गुरू की संगति में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला हरी नाम जल। पीजै = पीजिए, पी सकते हैं। जीउ = जीवात्मा, जिंद। ना मरै = आत्मिक मौत नहीं मरती। न छीजै = आत्मिक जीवन में कमजोर नहीं होती।1। ते = से।1। रहाउ। माणक = मोती। सिमरि = सिमर के। निहाला = प्रसन्न।2। जत कत = जिधर किधर। पेखउ = मैं देखता हूँ। साधू = गुरू। गाइ = गा के। निरमल = पवित्र।3। घट = शरीर। वूठा = बसता है। तूठा = प्रसन्न होता है।4। अर्थ: हे भाई! पूरा गुरू बड़ी किस्मत से मिलता है, और गुरू की कृपा से परमात्मा का सिमरन किया जा सकता है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की संगति में आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-जल पीया जा सकता है, (इस नाम-जल की बरकति) जीवात्मा ना आत्मिक मौत मरती है, ना ही कभी आत्मि्क जीवन में कमजोर पड़ती है।1। हे भाई! परमात्मा की सिफत सालाह के वचन (मानो) रत्न हैं, जवाहर हैं, मोती हैं, लाल हैं। प्रभू का नाम सिमर-सिमर के सदा पुल्कित रहते हैं।2। हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ, गुरू की शरण ही (एक ऐसी जगह है जहाँ) परमात्मा के गीत गा-गा के मन को पवित्र किया जा सकता है।3। हे नानक! (कह–) मेरा मालिक प्रभू (वैसे तो) हरेक शरीर में बसता है (पर, जिस मनुष्य पर वह) प्रभू प्रसन्न होता है (वही उसका) नाम (-सिमरन) प्राप्त करता है।4।6। वडहंसु महला ५ ॥ विसरु नाही प्रभ दीन दइआला ॥ तेरी सरणि पूरन किरपाला ॥१॥ रहाउ ॥ जह चिति आवहि सो थानु सुहावा ॥ जितु वेला विसरहि ता लागै हावा ॥१॥ तेरे जीअ तू सद ही साथी ॥ संसार सागर ते कढु दे हाथी ॥२॥ आवणु जाणा तुम ही कीआ ॥ जिसु तू राखहि तिसु दूखु न थीआ ॥३॥ तू एको साहिबु अवरु न होरि ॥ बिनउ करै नानकु कर जोरि ॥४॥७॥ {पन्ना 563} पद्अर्थ: विसरु नाही = ना भूल। प्रभ = हे प्रभू! पूरन = हे सर्व व्यापक!।1। रहाउ। जह = जहाँ। चिति = चिक्त में। जह चिति = जिस चिक्त में। थानु = हृदय स्थल। जितु = जिस में। हावा = हाहूका।1। जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन)। सद = सदा। ते = से, मे से। दे = दे के। हाथी = हाथ।2। आवणु जाणा = जनम मरन के चक्कर।3। साहिबु = मालिक। ऐको = एक ही। होरि = (शब्द ‘होर’ का बहुवचन)। बिनउ = विनती। नानकु करै = नानक करता है (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क याद रखें)। कर = (दोनों) हाथ। जोरि = जोड़ के।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! हे सर्व व्यापक! हे कृपा के घर! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर, मेरे हृदय से कभी) ना भूल।1। रहाउ। हे प्रभू! जिस हृदय में तू आ बसता है वह हृदय-स्थल सुंदर बन जाता है। जिस वक्त तू (मुझे) भूल जाता है तब (मुझे) हाय-हाय लगती है।1। (हे प्रभू! ये सारे) जीव तेरे (पैदा किए हुए हैं), तू (इन जीवों की) सदा ही मदद करने वाला है। (हे प्रभू! अपना) हाथ दे के (जीवों को) संसार समुंद्र में से निकाल ले।2। (हे प्रभू! जीवों के लिए) जनम-मरन के चक्कर तेरे ही बनाए हुए हैं, जिस जीव को तू (इस चककर में से) बचा लेता है, उसको कोई दुख नहीं छू सकता।3। हे प्रभू! तू ही एक मालिक है, और अनेकों जीव (तेरे बनाए हुए हैं, इनमें से) कोई भी (तेरे जैसा) नहीं। नानक (तेरे आगे ही) हाथ जोड़ के विनती करता है।4।7। वडहंसु मः ५ ॥ तू जाणाइहि ता कोई जाणै ॥ तेरा दीआ नामु वखाणै ॥१॥ तू अचरजु कुदरति तेरी बिसमा ॥१॥ रहाउ ॥ तुधु आपे कारणु आपे करणा ॥ हुकमे जमणु हुकमे मरणा ॥२॥ नामु तेरा मन तन आधारी ॥ नानक दासु बखसीस तुमारी ॥३॥८॥ {पन्ना 563-564} पद्अर्थ: जाणाइहि = तू जनाता है, तू सूझ देता है। जा = तब। जाणै = गहरी सांझ डालता है। वखाणै = उचारता है, सिमरता है।1। अचरजु = हैरान कर देने वाले स्वरूप वाला। कुदरति = रचना। बिसमा = हैरानगी पैदा करने वाली।1। रहाउ। आपे = आप ही। कारणु = सबब, रचना पैदा करने का ढंग। करणा = जगत। हुकमे = हुकम में ही।2। मन तन आधारी = मन का तन का आसरा। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे प्रभू! तू हैरान कर देने वाली हस्ती वाला है। तेरी रची रचना भी हैरानगी पैदा करने वाली है।1। रहाउ। हे प्रभू! जब किसी मनुष्य को तू सूझ बख्शता है, तब ही कोई तेरे साथ गहरी सांझ डालता है, और तेरा बख्शा हुआ तेरे नाम को उच्चारता है।1। हे प्रभू! तू खुद ही (जगत-रचना का) सबब (बनाने वाला) है, तू खुद ही जगत है (ये सारा जगत तेरा ही स्वरूप है)। तेरे हुकम में ही (जीवों का) जनम होता है, तेरे हुकम में ही मौत आती है।2। हे प्रभू! तेरा नाम मेरे मन का मेरे शरीर का आसरा है। हे नानक! (कह– हे प्रभू! अपना नाम दे) तेरा दास तेरी बख्शिश (की आशा लिए हुए है)।3।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |