श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 568 निरगुणवंतड़ीए पिरु देखि हदूरे राम ॥ गुरमुखि जिनी राविआ मुईए पिरु रवि रहिआ भरपूरे राम ॥ पिरु रवि रहिआ भरपूरे वेखु हजूरे जुगि जुगि एको जाता ॥ धन बाली भोली पिरु सहजि रावै मिलिआ करम बिधाता ॥ जिनि हरि रसु चाखिआ सबदि सुभाखिआ हरि सरि रही भरपूरे ॥ नानक कामणि सा पिर भावै सबदे रहै हदूरे ॥२॥ {पन्ना 567-568} पद्अर्थ: निरगुणवंतड़ीऐ = हे गुणों से वंचित जीवात्मा! हदूरे = हाजिर नाजर, अंग संग। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। राविआ = हृदय में बसाया। मुईऐ = हे आत्मिक मौत सह रही जीवात्मा! रवि रहिआ = व्यापक है। हजूरे = अंग संग। जुगि जुगि = हरेक युग में। ऐको = एक प्रभू ही। जाता = प्रसिद्ध। धन = जीव स्त्री। बाली = बाल स्वभाव वाली, बालिका। भोली = भोले स्वभाव वाली। सहजि = आत्मिक अडोलता में। करम विधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला। जिनि = जिस ने। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। सुभाखिआ = उचारा, सिफत सालाह की। हरि सरि = हरी सरोवर में। कामणि = कामिनी, जीव स्त्री। सा = वह (स्त्री लिंग)। पिर भावै = पति को अच्छी लगती है।2। अर्थ: हे गुण-हीन जीवात्मा! प्रभू-पति को अपने अंग-संग बसता देखा कर। हे जिंदे! प्रभू-पति जॅरे-जॅरे में व्यापक है; उसे हर जगह हाजर-नाजर (विद्यमान, मौजूद) देख। वह प्रभू ही हरेक युग में (जीता-जागता) प्रसिद्ध है। जो जीव स्त्री बाल स्वभाव हो के भोले सवभाव वाली बन के आत्मिक अडोलता में टिक के उस प्रभू पति को याद करती रहती है, उसे वह सृजनहार मिल जाता है। हे जीवात्मा! जिस जीव-स्त्री ने हरी-नाम का स्वाद चख लिया है, जिसने गुरू के शबद के माध्यम से उस प्रभू की सिफत सालाह करनी शुरू कर दी, वह उस सरोवर-प्रभू में हर समय डुबकी लगाए रखती है। हे नानक! (कह–) वही जीव-स्त्री प्रभू-पति को प्यारी लगती है जो गुरू के शबद द्वारा हर वक्त उसके चरणों में जुड़ी रहती है।2। सोहागणी जाइ पूछहु मुईए जिनी विचहु आपु गवाइआ ॥ पिर का हुकमु न पाइओ मुईए जिनी विचहु आपु न गवाइआ ॥ जिनी आपु गवाइआ तिनी पिरु पाइआ रंग सिउ रलीआ माणै ॥ सदा रंगि राती सहजे माती अनदिनु नामु वखाणै ॥ कामणि वडभागी अंतरि लिव लागी हरि का प्रेमु सुभाइआ ॥ नानक कामणि सहजे राती जिनि सचु सीगारु बणाइआ ॥३॥ {पन्ना 568} पद्अर्थ: सोहागणी = वह जीव सि्त्रयां जिन्होंने प्रभू पति को प्रसन्न कर लिया है। जाइ = जा के। मुईऐ = हे आत्मिक मौत सह रही जीवात्मा! आपु = स्वै भाव। रंग सिउ = आनंद से। रंगि = प्रेम रंग में। राती = रंगी हुई। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। अनदिनु = हर रोज, हर समय। सुभाइआ = पसंद आया। जिनि = जिस ने। सचु = सदा स्थिर हरी नाम।3। अर्थ: हे आत्मिक मौत सह रही जीवात्मा! जा के (उन) सुहागनों से (जीवन-जुगति) पूछ, जिन्होंने अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर लिया है। पर जिन्होंने अपने अंदर से स्वै भाव दूर नहीं किया उन्होंने प्रभू की रजा (में चलने की जाच) नहीं सीखी। जिन्होंने स्वै भाव दूर कर लिया, उन्होंने (अपने अंदर ही) प्रभू-पति को पा लिया, प्रभू-पति प्रेम से उन्हें अपने मिलाप के आनंद में रखता है। जो जीव-स्त्री सदा प्रभू के प्रेम रंग में रंगी रहती है, आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, वह हर समय प्रभू-पति का नाम सिमरती रहती है। वह जीव-स्त्री बहुत भाग्यशाली है, उसके हृदय में प्रभू-चरणों की लगन बनी रहती है, उसको प्रभू का प्यार अच्छा लगता है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री ने सदा-स्थिर प्रभू के नाम को अपनी जिंदगी का श्रृंगार बना लिया है वह सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहती है।3। हउमै मारि मुईए तू चलु गुर कै भाए ॥ हरि वरु रावहि सदा मुईए निज घरि वासा पाए ॥ निज घरि वासा पाए सबदु वजाए सदा सुहागणि नारी ॥ पिरु रलीआला जोबनु बाला अनदिनु कंति सवारी ॥ हरि वरु सोहागो मसतकि भागो सचै सबदि सुहाए ॥ नानक कामणि हरि रंगि राती जा चलै सतिगुर भाए ॥४॥१॥ {पन्ना 568} पद्अर्थ: गुर कै भाऐ = गुरू के अनुसार, गुरू के प्रेम में। वरु = पति। रावहि = तू मिलाप प्राप्त कर लेगी। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू की हजूरी में। पाऐ = पा के। वजाऐ = बजाती है, प्रभाव हृदय में बसाती है। रलीआला = रलियों का घर, आनंद का श्रोत। बाला = जवान। कंति = कंत ने। अनदिनु = हर रोज। मसतकि = माथे पर। कामणि = जीव स्त्री। रंगि = प्रेम में।4। अर्थ: हे आत्मिक मौत सह रही जीव स्त्री! तू (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर, और गुरू के अनुसार चल (जीवन चला)। (अगर तू गुरू के मुताबिक चलेगी, तो) प्रभू की हजूरी में निवास हासिल करके तू सदा के लिए प्रभू-पति के मिलाप का आनंद लेती रहेगी। हे जीवात्मा! जो जीव-स्त्री अपने दिल में गुरू शबद बसा लेती है, वह प्रभू की हजूरी में जगह प्राप्त कर लेती है, वह सदा के लिए भाग्यशाली हो जाती है (उसे समझ आ जाती है कि) प्रभू-पति ही आनंद का श्रोत है, प्रभू-पति का यौवन सदा कायम रहने वाला है, उस जीव-स्त्री को प्रभू-कंत ने सदा के लिए सुंदर जीवन वाली बना दिया। हे नानक! जब जीव स्त्री गुरू के अनुसार चलती है, तब वह प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी जाती है, उसको प्रभू-पति सोहाग मिल जाता है, उसके माथे पर भाग्य जाग जाते हैं, गुरू के शबद के माध्यम से वह सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो के सोहाने आत्मिक जीवन वाली बन जाती है।4। वडहंसु महला ३ ॥ गुरमुखि सभु वापारु भला जे सहजे कीजै राम ॥ अनदिनु नामु वखाणीऐ लाहा हरि रसु पीजै राम ॥ लाहा हरि रसु लीजै हरि रावीजै अनदिनु नामु वखाणै ॥ गुण संग्रहि अवगण विकणहि आपै आपु पछाणै ॥ गुरमति पाई वडी वडिआई सचै सबदि रसु पीजै ॥ नानक हरि की भगति निराली गुरमुखि विरलै कीजै ॥१॥ {पन्ना 568} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। वापारु = नाम का व्यापार। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। वखाणीअै = उचारना चाहिए। लाहा = लाभ। पीजै = पीना चाहिए। रावीजै = हृदय में बसाना चाहिए। वखाणै = उचारता है। संग्रहि = इकट्ठे करके। आपै आपु = अपने आप को। विकणहि = बिक जाते हैं, दूर हो जाते हैं। निराली = अनोखी।1। अर्थ: हे भाई! अगर गुरू के माध्यम से आत्मिक अडोलता में टिक के (हरी-नाम का) व्यापार किया जाए, तो ये सारा व्यापार मनुष्य के लिए फलदायक होता है। हे भाई! परमात्मा का नाम हर वक्त उचारना चाहिए, प्रभू के नाम का रस पीना चाहिए- यही है मानस जन्म की कमाई। हरी-नाम का स्वाद लेना चाहिए, हरी नाम हृदय में बसाना चाहिए- यही मानस जन्म का लाभ है। जो मनुष्य हर वक्त प्रभू का नाम उचारता है, वह (अपने अंदर आत्मिक) गुण एकत्र करके अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है, (इस तरह उसके सारे) अवगुण दूर हो जाते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की शिक्षा हासिल कर ली, उसे बड़ा आदर मिला। हे भाई! सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के हरी-नाम-रस पीना चाहिए। हे नानक! परमात्मा की भक्ति एक आश्चर्यजनक दाति है (कृपा है), पर किसी दुर्लभ मनुष्य ने ही गुरू की शरण पड़ कर ही भगती की है।1। गुरमुखि खेती हरि अंतरि बीजीऐ हरि लीजै सरीरि जमाए राम ॥ आपणे घर अंदरि रसु भुंचु तू लाहा लै परथाए राम ॥ लाहा परथाए हरि मंनि वसाए धनु खेती वापारा ॥ हरि नामु धिआए मंनि वसाए बूझै गुर बीचारा ॥ मनमुख खेती वणजु करि थाके त्रिसना भुख न जाए ॥ नानक नामु बीजि मन अंदरि सचै सबदि सुभाए ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। अंतरि = (मन के) अंदर। सरीरि = शरीर में, दिल में। लीजै जमाऐ = उगा लेनी चाहिए। घर = हृदय। भुंचु = खा। लाहा = लाभ। परथाऐ = परलोक का। मंनि = मन में। धनु = धन्य, सराहनीय। बूझै = (आत्मिक जीवन को) समझ लेता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। न जाऐ = दूर नहीं होती। सुभाऐ = सु+भाव से, प्रेम से। सबदि = शबद में (जुड़ के)।2। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रह के हरी-नाम की खेती अपने मन में बीजनी चाहिए, हरी-नाम बीज अपने हृदय में उगाना चाहिए। हे भाई! तू अपने हृदय में हरी-नाम का स्वाद चखा कर, और, इस तरह परलोक का लाभ कमा। जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है वह परलोक का लाभ (भी) कमा लेता है, उसकी नाम-खेती उसका नाम-व्यापार सराहनीय है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है, जो हरी-नाम अपने मन में बसाता है वह गुरू शबद की विचार की बरकति से (आत्मिक जीवन को) समझ लेता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य निरी संसारिक खेती निरा दुनियावी व्यापार करके थक जाते हैं, उनकी माया की तृष्णा नहीं मिटती, माया की भूख दूर नहीं होती। हे नानक! (कह– हे भाई!) तू प्रेम से सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के अपने मन में परमात्मा का नाम-बीज बीजा कर।2। हरि वापारि से जन लागे जिना मसतकि मणी वडभागो राम ॥ गुरमती मनु निज घरि वसिआ सचै सबदि बैरागो राम ॥ मुखि मसतकि भागो सचि बैरागो साचि रते वीचारी ॥ नाम बिना सभु जगु बउराना सबदे हउमै मारी ॥ साचै सबदि लागि मति उपजै गुरमुखि नामु सोहागो ॥ नानक सबदि मिलै भउ भंजनु हरि रावै मसतकि भागो ॥३॥ {पन्ना 568} पद्अर्थ: वापारि = व्यापार में। मसतकि = माथे पर। निज घरि = प्रभू की हजूरी में। बैरागो = लगन। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। वीचारी = विचारवान। बउराना = झल्ला, कमला, बावरा। सबदे = शबद से ही। भउ भंजन = डर नाश करने वाला।3। सुोहागो: असल शब्द ‘सोहागो’ है, यहाँ ‘सुहागो’ पढ़ना है। अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं। अर्थ: हे भाई! हरी-नाम सिमरन के व्यापार में वही मनुष्य लगते हैं जिनके माथे पर अहो भाग्य की मणि चमक पड़ती है। गुरू की मति की बरकति से उनका मन प्रभू की हजूरी में टिक जाता है, सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद के द्वारा उनको हरी नाम की लगन लग जाती है। जिन मनुष्यों के मुंह पर माथे पर भाग्य जाग जाते हैं, सदा स्थिर हरी में उनकी लगन लग जाती है, सदा-स्थिर प्रभू (के प्रेम-रंग) में रंगे हुए वे विचारवान बन जाते हैं। पर, हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना सारा जगत (अहंकार में) बावरा हुआ फिरता है (ये) अहंकार गुरू के शबद के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के (मनुष्य के अंदर उच्च) बुद्धि का प्रकाश हो जाता है, गुरू की शरण पड़ने से हरी-नाम का सोहाग प्राप्त हो जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठते हैं, उसको गुरू शबद के द्वारा डर नाश करने वाला परमात्मा मिल जाता है, वह मनुष्य सदा हरी-नाम को हृदय में बसाए रखता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |