श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 580 वडहंसु महला १ दखणी ॥ सचु सिरंदा सचा जाणीऐ सचड़ा परवदगारो ॥ जिनि आपीनै आपु साजिआ सचड़ा अलख अपारो ॥ दुइ पुड़ जोड़ि विछोड़िअनु गुर बिनु घोरु अंधारो ॥ सूरजु चंदु सिरजिअनु अहिनिसि चलतु वीचारो ॥१॥ सचड़ा साहिबु सचु तू सचड़ा देहि पिआरो ॥ रहाउ ॥ तुधु सिरजी मेदनी दुखु सुखु देवणहारो ॥ नारी पुरख सिरजिऐ बिखु माइआ मोहु पिआरो ॥ खाणी बाणी तेरीआ देहि जीआ आधारो ॥ कुदरति तखतु रचाइआ सचि निबेड़णहारो ॥२॥ आवा गवणु सिरजिआ तू थिरु करणैहारो ॥ जमणु मरणा आइ गइआ बधिकु जीउ बिकारो ॥ भूडड़ै नामु विसारिआ बूडड़ै किआ तिसु चारो ॥ गुण छोडि बिखु लदिआ अवगुण का वणजारो ॥३॥ सदड़े आए तिना जानीआ हुकमि सचे करतारो ॥ नारी पुरख विछुंनिआ विछुड़िआ मेलणहारो ॥ रूपु न जाणै सोहणीऐ हुकमि बधी सिरि कारो ॥ बालक बिरधि न जाणनी तोड़नि हेतु पिआरो ॥४॥ नउ दर ठाके हुकमि सचै हंसु गइआ गैणारे ॥ सा धन छुटी मुठी झूठि विधणीआ मिरतकड़ा अंङनड़े बारे ॥ सुरति मुई मरु माईए महल रुंनी दर बारे ॥ रोवहु कंत महेलीहो सचे के गुण सारे ॥५॥ जलि मलि जानी नावालिआ कपड़ि पटि अ्मबारे ॥ वाजे वजे सची बाणीआ पंच मुए मनु मारे ॥ जानी विछुंनड़े मेरा मरणु भइआ ध्रिगु जीवणु संसारे ॥ जीवतु मरै सु जाणीऐ पिर सचड़ै हेति पिआरे ॥६॥ तुसी रोवहु रोवण आईहो झूठि मुठी संसारे ॥ हउ मुठड़ी धंधै धावणीआ पिरि छोडिअड़ी विधणकारे ॥ घरि घरि कंतु महेलीआ रूड़ै हेति पिआरे ॥ मै पिरु सचु सालाहणा हउ रहसिअड़ी नामि भतारे ॥७॥ गुरि मिलिऐ वेसु पलटिआ सा धन सचु सीगारो ॥ आवहु मिलहु सहेलीहो सिमरहु सिरजणहारो ॥ बईअरि नामि सुोहागणी सचु सवारणहारो ॥ गावहु गीतु न बिरहड़ा नानक ब्रहम बीचारो ॥८॥३॥ {पन्ना 580-581} पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सिरंदा = सृजनहार, पैदा करने वाला। सचा = सदा स्थिर। परवदगारो = पालनहार। जिनि = जिस (सृजनहार) ने। आपीनै = (आप ही ने) खुद ही। आपु = अपने आप को। अलख = अदृष्ट। दुइ पुड़ = दोनों पुड़ (धरती और आकाश)। विछोड़िअनु = उसने विछोड़ दिए हैं, उसने अलग-अलग कर दिए हैं। घोरु अंधारे = घोर अंधेरा। सिरजिअनु = उसने पैदा किए हैं। अहि = दिन। निसि = रात। चलतु = (जगत) तमाशा।1। देहि = तू देता है । रहाउ। सिरजी = पैदा की। मेदनी = धरती। सिरजिअै = पैदा करने से। बिखु = जहर। खाणी = उत्पक्ति के चारों वसीले (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज)। बाणी = जीवों की बोलियां। जीआ = जीवों को। आधारो = आसरा। सचि = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)। निबेडणहारो = फैसला करने वाला, लेखा समाप्त करने वाला।2। आवागवणु = जनम मरन का चक्र। थिरु = सदा कायम रहने वाला। आइ गइआ = पैदा हुआ और मर गया। बधिकु = बँधा हुआ। जीउ = जीवात्मा। भूडड़ै = बुरे ने। बूडड़ै = डूबे हुए ने। चारे = चारा, जोर। वणजारो = व्यापारी।3। जानीआ = (शरीर के साथी) जीवात्मा को। हुकमि = हुकम अनुसार। सोहणीअै = सुंदरी का। सिरि = सिर पे।4। नउ दर = नौ दरवाजे, नौ गोलकें (मुंह, 2 कान, 2 नासिकाएं, 2 आँखें, गुदा, लिंग)। ठाके = बंद किए गए। हंसु = जीवात्मा। गैणारे = आकाश में। सा धन = स्त्री, काया (जीवात्मा की स्त्री)। छूटी = अकेली रह गई। विधणीआ = (वि+धणी) निखसमी, बगैर पति के। मिरतकड़ा = लाश। अंञनड़े = आंगन में। माईऐ = हे माँ! मरु = मौत। महल = स्त्री। दरबारे = दहलीजों में। सारे = सारि, संभाल के याद करके।5। जलि = पानी में। मलि = मल के। जानी = प्यारे संबन्धियों ने। पटि = रेशम से। अंबारे = अंबरि, कपड़े से। सची बाणी = सदा स्थिर रहने वाली बाणी, ‘राम नाम सति है’। वाजे वजे = बोल बोले जाने लग पड़े। पंच = (माता पिता भाई स्त्री पुत्र) संबंधि। मुऐ = चिंता में मरे जैसे हो गए। मनु मारे = मन मारि, मन मार के, गम खा के।6। झूठि = झूठे मोह ने। मुठी = लूटा है। हउ = मैं। धावणीआ = माया की दौड़ भाग में। धंधै = माया के चक्कर में। पिरि = पिया ने, पति प्रभू ने। विधण = (वि+धणी) निखसमी। विधण कार = निखसमों वाली कार, पति प्रभू से टूट के किए जाने वाले काम। घरि घरि = हरेक हृदय में। महेलीआ जीव-सि्त्रयां। रुड़ै = सुंदर (प्रभू) के। हेति = प्रेम में। सहु = सदा स्थिर रहने वाला। हउ = मैं। रहसिअड़ी = खिली हुई, प्रसन्न। नामि = नाम में (जुड़ के)।7। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। वेसु = काया। सा धन = जीव स्त्री। बईअरि = स्त्री। नामि = नाम में (जुड़ के)। बिरहड़ा = विछोड़ा। ब्रहम बीचारो = परमात्मा के गुणों का विचार।8। सुोहागणी: अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ लगी हैं। असल शब्द ‘सोहागणी’ है यहाँ पढ़ना है ‘सुहागणी’ । अर्थ: (हे भाई!) निष्चय करो कि जगत को पैदा करने वाला परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, वह सदा स्थिर प्रभू (जीवों की) पालना करने वाला है, जिस सदा स्थिर ने खुद ही अपने आप को (जगत के रूप में) प्रकट किया हुआ है, वह अदृश्य है और बेअंत है। (धरती और आकाश जगत के) दोनों पुड़ जोड़ के (भाव, जगत रचना करके) उस प्रभू ने जीवों को माया के मोह में फसा के अपने से विछोड़ दिया है (भाव, ये प्रभू की रजा है कि जीव मोह में फस के प्रभू को भुला बैठे हैं)। गुरू के बिना (जगत में माया के मोह का) घोर अंधेरा है। उस परमात्मा ने ही सूरज और चंद्रमा बनाए हैं, (सूर्य) दिन के समय (चंद्रमा) रात को (प्रकाश देता है)। (हे भाई!) याद रख कि प्रभू का बनाया हुआ ये जगत तमाशा है।1। हे प्रभू! तू सदा ही स्थिर रहने वाला मालिक है। तू खुद ही सब जीवों को सदा स्थिर रहने वाले प्यार की दाति देता है। रहाउ। हे प्रभू! तूने ही सृष्टि पैदा की है (जीवों को) दुख और सुख देने वाला भी तू ही है। (जगत में) सि्त्रयां और मर्द भी तूने ही पैदा किए है, माया जहर का मोह और प्यार भी तूने ही बनाए हैं। जीव उत्पक्ति की चार खाणियां और जीवों की बोलियां भी तेरी ही रची हुई हैं। सब जीवों को तू ही आसरा देता है। हे प्रभू! ये सारी रचना (-रूप) तख़त तूने (अपने बैठने के लिए) बनाया है, अपने सदा स्थिर नाम में (जोड़ के जीवों के कर्मों के लेख भी) तू खुद ही खत्म करने वाला है।2। हे करणहार करतार! (जीवों के लिए) जनम-मरण का चक्कर तूने ही पैदा किया है, पर तू खुद सदा कायम रहने वाला है (तुझे ये चक्कर व्याप नहीं सकता)। (माया के मोह के कारण) विकारों में बँधा हुआ जीव नित्य पैदा होता है और मरता है, इसे जनम-मरण का चक्कर पड़ा ही रहता है। (माया के मोह में फंसे) बुरे जीव ने (तेरा) नाम भुला दिया है, मोह में डूबे हुए की कोई पेश नहीं चलती। गुणों को छोड़ के (विकारों का) जहर इस जीव ने एकत्र कर लिया है (जगत में आ के सारी उम्र) अवगुणों का ही बणज करता रहता है।3। जब सदा स्थिर रहने वाले करतार के हुकम में उन प्यारों को (यहाँ से कूच करने के) बुलावे आते हैं (जो यहाँ इकट्ठे जीवन निर्बाह कर रहे होते हैं) तो (एक साथ रहने वाले) स्त्री-मर्दों के विछोड़े हो जाते हैं (इस विछोड़े को कोई मिटा नहीं सकता)। विछुड़ों को तो परमात्मा खुद ही मिलाने में समर्थ है। यमराज के सिर पर भी परमात्मा के हुकम में ही (मौत के माध्यम से जीवों के विछोड़े करने की) जिंमेदारी सौंपी गई है, कोई यम किसी सुंदरी के रूप की परवाह नहीं कर सकता (कि इस सुंदरी की मौत ना लाऊँ)। यम बच्चों और बुढों की भी परवाह नहीं करते। सब का (आपस में) मोह प्यार तोड़ देते हैं।4। जब सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के हुकम में (मौत का बुलावा आता है तो शरीर के) नौ दरवाजे बंद हो जाते हैं, जीवात्मा (कहीं) आकाश में चली जाती है। (जिस स्त्री का पति मर जाता है) वह स्त्री अकेली रह जाती है, वह माया के मोह में लुट चुकी होती है, वह विधवा हो जाती है (उसके पति की) लाश घर के आंगन में पड़ी होती है (जिसे देख-देख के) वह स्त्री दहलीजों में बैठी रोती है (और कहती है–) हे माँ! इस मौत (को देख के) मेरी अक्ल ठिकाने नहीं रह गई। हे प्रभू-पति की सि्त्रयो! (हे जीव-सि्त्रयो! शरीर के विछोड़े का ये सिलसिला बना ही रहना है, किसी ने भी यहाँ सदा बैठे नहीं रहना) तुम सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह हृदय में संभाल के (प्रभू-कंत को याद करके) वैराग अवस्था में आओ (तब ही जीवन सफल होगा)। साक-संबंधी (मरे हुए प्राणी की लाश को) मल-मल के स्नान करवाते हैं, और रेशम (आदि) कपड़े से (लपेटते हैं)। (उसे शमशान में ले जाने के लिए) ‘राम नाम सत्य है’ के बोल शुरू हो जाते हैं (माता, पिता भाई, पुत्र, स्त्री आदि) निकटवर्ती दुख में मृतक समान हो जाते हैं। (उसकी स्त्री रोती है और कहती है–) साथी के मरने से मैं भी मरे जैसी हो गई हूँ, अब संसार में मेरे जीने को भी धिक्कार है। (पर ये मोह तो अवश्य ही दुखदाई है, ये शारीरिक विछोड़े तो होने ही हैं, हाँ) जो जीव, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के प्यार में प्रेम में टिक के जगत में कार्य-व्यवहार करते हुए ही मोह से मरता (मुक्त रहता) है, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर पाता है।6। हे जीव-सि्त्रयो! जब तक संसार में तुम्हें माया के मोह ने ठगा हुआ है, तुम दुखी ही रहोगी, (यही समझा जाएगा कि) तुम दुखी होने के लिए ही जगत में आई हो। जब तक मैं माया की आहर में माया की दौड़-भाग में ठॅगी जा रही हूँ, तब तक पति-विहीन स्त्री वाले कर्मों के कारण पति-प्रभू ने मुझे त्यागा हुआ है। पति-प्रभू तो हरेक जीव-स्त्री के हृदय में बस रहा है। उसकी असल सि्त्रयां वही हैं जो उस सुंदर प्रभू के प्यार में प्रेम में मगन रहती हैं। जितना समय मैं सदा स्थिर प्रभू-पति की सिफत सालाह करती हूँ उस पति के नाम में जुड़े रहने के कारण मेरा तन-मन खिला रहता है।7। अगर गुरू मिल जाए तो जीव-स्त्री की काया ही पलट जाती है, जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभू के नाम को अपना श्रृंगार बना लेती है। हे सहेलियो! (हे सत्संगियो!) आओ, मिल के बैठें। मिल जुल के सृजनहार का सिमरन करो। जो जीव-स्त्री प्रभू के नाम में जुड़ती है वह सुहाग-भाग वाली हो जाती है, सदा स्थिर प्रभू उसके जीवन को खूबसूरत बना देता है। हे नानक! (कह– हे सहेलियो!) प्रभू-पति की सिफत सालाह के गीत गाओ, प्रभू के गुणों को अपने हृदय में बसाओ, फिर कभी उससे विछोड़ा नहीं होगा (दुनिया वाले विछोड़े तो एक अटल नियम है, ये तो होते ही रहने हैं)।8।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |