श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 594 मः ३ ॥ सबदै सादु न आइओ नामि न लगो पिआरु ॥ रसना फिका बोलणा नित नित होइ खुआरु ॥ नानक किरति पइऐ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ {पन्ना 594} अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरू के शबद में रस नहीं आता, नाम में जिसका प्यार नहीं जुड़ा, वह मनुष्य जीभ से फीके वचन ही बोलता है और सदा ख्वार होता है; (पर) हे नानक! (उस के भी क्या वश?) (पिछले किए कर्मों के) उकरे हुए (संस्कारों के) अनुसार उसको (अब भी वैसा ही) कर्म करना पड़ता है; कोई मनुष्य (उसके संस्कारों को) मिटा नहीं सकता।2। पउड़ी ॥ धनु धनु सत पुरखु सतिगुरू हमारा जितु मिलिऐ हम कउ सांति आई ॥ धनु धनु सत पुरखु सतिगुरू हमारा जितु मिलिऐ हम हरि भगति पाई ॥ {पन्ना 594} अर्थ: हमारा सतपुरुख सतिगुरू धन्य है, जिसके मिलने से हमारे हृदय में ठंड पड़ी है, और जिसके मिलने से हमें परमात्मा की भक्ति मिली है। धनु धनु हरि भगतु सतिगुरू हमारा जिस की सेवा ते हम हरि नामि लिव लाई ॥ धनु धनु हरि गिआनी सतिगुरू हमारा जिनि वैरी मित्रु हम कउ सभ सम द्रिसटि दिखाई ॥ {पन्ना 594} अर्थ: हरी का भक्त हमारा सतिगुरू धन्य है, जिसकी सेवा करके हमने हरी के नाम में बिरती जोड़ी है; हरी के ज्ञान वाला हमारा सतिगुरू धन्य है जिसने वैरी क्या और सज्जन क्या- सबकी ओर हमें एकता की नजर (से देखने की जाच) सिखाई है। धनु धनु सतिगुरू मित्रु हमारा जिनि हरि नाम सिउ हमारी प्रीति बणाई ॥१९॥ {पन्ना 594} अर्थ: हमारा सज्जन सतिगुरू धन्य है, जिसने हरी के नाम से हमारा प्यार बना दिया है।19। सलोकु मः १ ॥ घर ही मुंधि विदेसि पिरु नित झूरे सम्हाले ॥ मिलदिआ ढिल न होवई जे नीअति रासि करे ॥१॥ {पन्ना 594} पद्अर्थ: मुंधि = स्त्री। अर्थ: पति का घर (भाव, हृदय) में ही है, (पर उसको) परदेस में (समझते हुए) कमली स्त्री सदा झुरती है और (उसे) याद करती है; अगर नीयत को साफ करे तो मिलते हुए ढील नहीं लगती।1। मः १ ॥ नानक गाली कूड़ीआ बाझु परीति करेइ ॥ तिचरु जाणै भला करि जिचरु लेवै देइ ॥२॥ {पन्ना 594} अर्थ: हे नानक! (हरी से) प्यार के बिना (अर्थात, जब तक प्यार से वंचित रहे) और बातें (करनी) झूठी हैं; (क्योंकि इस तरह) तब तक (हरी को जीव) अच्छा समझता है जब तक (हरी) देता है और (जीव) लेता है (भाव, जब तक जीव को कुछ मिलता रहता है)।2। पउड़ी ॥ जिनि उपाए जीअ तिनि हरि राखिआ ॥ अम्रितु सचा नाउ भोजनु चाखिआ ॥ तिपति रहे आघाइ मिटी भभाखिआ ॥ {पन्ना 594} पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। तिनि = उसने। भभाखिआ = खाने की इच्छा। अर्थ: जिस हरी ने जीव पैदा किए हैं, उसने उनकी रक्षा की है; जो जीव उस हरी का आत्मिक जीवन देने वाला सच्चा नाम (रूप) भोजन खाते हैं और (इस भोजन से) वह बहुत अघा (तृप्त हो) जाते हैं उनकी और खाने की इच्छा समाप्त हो जाती है। सभ अंदरि इकु वरतै किनै विरलै लाखिआ ॥ जन नानक भए निहालु प्रभ की पाखिआ ॥२०॥ {पन्ना 594} अर्थ: सारे जीवों में एक प्रभू स्वयं व्यापक है, पर किसी विरले ने समझा है; और हे नानक! (वह विरला) दास प्रभू का पक्ष करके खिला रहता है (प्रभू के साथ दृढता से जुड़ा रहके आनंदमयी रहता है)।20। सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर नो सभु को वेखदा जेता जगतु संसारु ॥ डिठै मुकति न होवई जिचरु सबदि न करे वीचारु ॥ हउमै मैलु न चुकई नामि न लगै पिआरु ॥ {पन्ना 594} अर्थ: जितना ये सारा संसार है (इसमें) हरेक जीव सतिगुरू के दर्शन करता है (पर) निरे दर्शन करने से मुक्ति नहीं मिलती, जब तक जीव सतिगुरू के शबद में विचार नहीं करता, (क्योंकि विचार किए बिना) अहंकार (-रूपी मन की) मैल नहीं उतरती और नाम के प्रति प्यार उत्पन्न नहीं होता। इकि आपे बखसि मिलाइअनु दुबिधा तजि विकार ॥ नानक इकि दरसनु देखि मरि मिले सतिगुर हेति पिआरि ॥१॥ {पन्ना 594} पद्अर्थ: मिलाइअनु = मिला लिए उसने। दुबिधा = दुचिक्तापन, मेर तेर। अर्थ: कई मनुष्यों को प्रभू ने खुद ही मेहर करके मिला लिया है जिन्होंने मेर-तेर और विकार छोड़े हैं। हे नानक! कई मनुष्य (सतिगुरू के) दर्शन करके सतिगुरू के प्यार में बिरती जोड़ के मर के (भाव, स्वैभाव का अहंकार गवा के) हरी में मिल गए हैं।1। मः ३ ॥ सतिगुरू न सेविओ मूरख अंध गवारि ॥ दूजै भाइ बहुतु दुखु लागा जलता करे पुकार ॥ जिन कारणि गुरू विसारिआ से न उपकरे अंती वार ॥ {पन्ना 594} पद्अर्थ: गावारि = गवार ने। जिन कारणि = जिन की खातिर। उपकरे = पुकरे, आए। अर्थ: अंधे मूर्ख गवार ने अपने सतिगुरू की सेवा नहीं की, माया के प्यार में जब बहुत दुखी हुआ तब जलता हुआ विरलाप करता है; और जिनके लिए सतिगुरू को विसारा था वे आखिरी वक्त पर (मुश्किल में) नहीं (उसका साथ देने पुकारने पर भी) नहीं आते। नानक गुरमती सुखु पाइआ बखसे बखसणहार ॥२॥ {पन्ना 594} अर्थ: हे नानक! गुरू की मति ले के ही सुख मिलता है और बख्शने वाला हरी बख्शता है।2। पउड़ी ॥ तू आपे आपि आपि सभु करता कोई दूजा होइ सु अवरो कहीऐ ॥ हरि आपे बोलै आपि बुलावै हरि आपे जलि थलि रवि रहीऐ ॥ {पन्ना 594} अर्थ: हे हरी! तू स्वयं ही स्वयं है और स्वयं ही सब कुछ पैदा करता है, किसी और दूसरे को जन्मदाता तब कहें, जो कोई और हो ही। हरी खुद ही (सब जीवों में) बोलता है, खुद ही सबको बुलाता है और खुद ही जल में थल व्याप रहा है। हरि आपे मारै हरि आपे छोडै मन हरि सरणी पड़ि रहीऐ ॥ हरि बिनु कोई मारि जीवालि न सकै मन होइ निचिंद निसलु होइ रहीऐ ॥ {पन्ना 594} अर्थ: हे मन! हरी खुद ही मारता है और खुद ही बख्शता है, (इस वास्ते) हरी की शरण में पड़ा रह। हे मन! हरी के बिना कोई और ना मार सकता है ना जीवित कर सकता है (इसलिए) निश्चिंत हो के लंबी तान ले (बेफिक्र हो जा, किसी और की ओट ना देख और सबसे बड़े हरी की आस रख)। उठदिआ बहदिआ सुतिआ सदा सदा हरि नामु धिआईऐ जन नानक गुरमुखि हरि लहीऐ ॥२१॥१॥ सुधु {पन्ना 594} अर्थ: हे दास नानक! अगर उठते-बैठते सोए हुए हर वक्त हरी का नाम सिमरें तो सतिगुरू के सन्मुख हो के हरी मिल जाता है।21।1। सुधु। नोट: ये वार गुरू रामदास जी की उचारी हुई है; 21 पौड़ियां हैं; पहली पौड़ी के साथ 3 सलोक हैं, बाकी पौड़ियों के साथ दो–दो सलोक हैं; कुल 43 सलोक हैं। सलोकों का वेरवा: गुरू राम दास जी, जिनकी ये वार है, का एक भी सलोक नहीं है। सो, ‘वार’ का असल रूप सिर्फ ‘पउड़ियां’ हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |