श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 635 सोरठि महला १ तितुकी ॥ आसा मनसा बंधनी भाई करम धरम बंधकारी ॥ पापि पुंनि जगु जाइआ भाई बिनसै नामु विसारी ॥ इह माइआ जगि मोहणी भाई करम सभे वेकारी ॥१॥ सुणि पंडित करमा कारी ॥ जितु करमि सुखु ऊपजै भाई सु आतम ततु बीचारी ॥ रहाउ ॥ सासतु बेदु बकै खड़ो भाई करम करहु संसारी ॥ पाखंडि मैलु न चूकई भाई अंतरि मैलु विकारी ॥ इन बिधि डूबी माकुरी भाई ऊंडी सिर कै भारी ॥२॥ दुरमति घणी विगूती भाई दूजै भाइ खुआई ॥ बिनु सतिगुर नामु न पाईऐ भाई बिनु नामै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु सेवे ता सुखु पाए भाई आवणु जाणु रहाई ॥३॥ साचु सहजु गुर ते ऊपजै भाई मनु निरमलु साचि समाई ॥ गुरु सेवे सो बूझै भाई गुर बिनु मगु न पाई ॥ जिसु अंतरि लोभु कि करम कमावै भाई कूड़ु बोलि बिखु खाई ॥४॥ पंडित दही विलोईऐ भाई विचहु निकलै तथु ॥ जलु मथीऐ जलु देखीऐ भाई इहु जगु एहा वथु ॥ गुर बिनु भरमि विगूचीऐ भाई घटि घटि देउ अलखु ॥५॥ इहु जगु तागो सूत को भाई दह दिस बाधो माइ ॥ बिनु गुर गाठि न छूटई भाई थाके करम कमाइ ॥ इहु जगु भरमि भुलाइआ भाई कहणा किछू न जाइ ॥६॥ गुर मिलिऐ भउ मनि वसै भाई भै मरणा सचु लेखु ॥ मजनु दानु चंगिआईआ भाई दरगह नामु विसेखु ॥ गुरु अंकसु जिनि नामु द्रिड़ाइआ भाई मनि वसिआ चूका भेखु ॥७॥ इहु तनु हाटु सराफ को भाई वखरु नामु अपारु ॥ इहु वखरु वापारी सो द्रिड़ै भाई गुर सबदि करे वीचारु ॥ धनु वापारी नानका भाई मेलि करे वापारु ॥८॥२॥ {पन्ना 635-636} पद्अर्थ: आसा मनसा = मायावी आशाओं के फुरने। बंधनी = (माया के मोह में) बंधने वाले। भाई = हे भाई! हे पंडित! करम धरम = वह कर्म जो धार्मिक कहे गए हैं, रस्मी धार्मिक कर्म। बंधकारी = माया के बंधन पैदा करने वाले। पाप पुंनि = (रस्मी तौर पर माने गए) पाप और पुंन के कारण। बिनसै = आत्मिक मौत मरता है। विसारी = बिसार के। जगि = जगत में। वेकारी = व्यर्थ।1। पंडित = हे पंण्डत! करमा कारी = कर्म काण्डी, तीर्थ व्रत आदि मिथे हुए कर्मों में विश्वास करने वाला। जितु = जिस के द्वारा। जितु करमि = जिस कर्म से। आतम ततु = आत्मा का मूल।1। रहाउ। बकै खड़ो = खड़ा उचारता है। करहु = तुम करते हो। संसारी = दुनियावी, माया में प्रवृत करने वाले। पाखंडि = पाखण्ड से। विकारी = विकारों से। माकुरी = मकड़ी, जाला तानने वाला कीड़ा। ऊंडी = उल्टी।2। घणी = बहुत (दुनिया)। भाइ = प्यार में, मोह में। खुआई = गवा गई। रहाई = रह जाता है।3। सचु सहजु = सदा कायम रहने वाली अडोल आत्मिक अवस्था। ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। मगु = मार्ग। अंतरि = अंदर। बोलि = बोल के। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली चीज। खाई = खाता है।4। पंडित = हे पंण्डत! विलोईअै = (अगर) मथें। तथु = तत्व, असल चीज, मक्खन। ऐहा वथु = यही चीज (पानी ही प्राप्त करता है)। विगूचीअै = दुखी होते हैं। देउ = देव, प्रकाश रूप प्रभू। अलखु = जिसका स्वरूप समझा नहीं जा सकता।5। तगो = धागा। को = का। दह दिस = दसों दिशाओं में। माइ = माया (से)। गाठि = गाँठ। छूटई = खुलती। करम = रस्मी धार्मिक कर्म।6। मनि = मन में। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सचु = अटल (आत्मिक जीवन देने वाला)। मजनु = तीर्थ स्नान। विसेखु = विशेषता के हकदार। अंकसु = कुंडा जो हाथी को चलाने के लिए बर्तते हैं। जिनि = जिस (गुरू) ने। मनि = मन में। भेखु = (दिखावे का) लिबास।7। हाटु = दुकान। सराफ़ = शाह। को = का। द्रिढ़ै = दृढ़ कर लेता है, पक्की तरह याद रखता है। धनु = भाग्यशाली। मेलि = मेल में, सत्संग में।8। अर्थ: (तीर्थ वर्त आदि धार्मिक मिथे हुए) कर्मों में विश्वास रखने वाले हे पण्डित! सुन (ये कर्म-धर्म आत्मिक आनंद नहीं पैदा कर सकते)। हे भाई! जिस काम के द्वारा आत्मिक आनंद पैदा होता है वह (ये) है कि आत्मिक जीवन देने वाले जगत मूल (के गुणों) को अपने विचार-मण्डल में (लाया जाए)।1। रहाउ। हे भाई! (तीर्थ-व्रत आदि धर्म के नाम कर्म करते हुए भी मायावी आशाएं और फुरने बरकरार रहते हैं, ये) आशाएं और फुरने माया के मोह में बांधने वाले हैं, (ये रस्मी) धार्मिक कर्म (बल्कि) माया के बंधन पैदा करने वाले हैं। हे भाई! (रस्मी तौर पर माने हुए) पाप और पुंन के कारण जगत पैदा होता है (जनम मरण के चक्कर में आता है), परमात्मा का नाम भुला के आत्मिक मौत मरता है। हे भाई! ये माया जगत में (जीवों को) मोहने का काम किए जा रही है, ये सारे (धार्मिक निहित) कर्म व्यर्थ ही जाते हैं।1। हे पण्डित जी! तुम (लोगों को सुनाने के लिए) वेद-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें) खोल के उचारते रहते हो, पर खुद वही कर्म करते हो जो माया के मोह में फसाए रखें। हे पंडित! (इस) पाखण्ड से (मन की) मैल दूर नहीं हो सकती, विकारों की मैल मन के अंदर ही टिकी रहती है। इस तरह तो मकड़ी भी (अपना जाला आप बुन के फिर उसी जाले में) उल्टी सिर भार हो के मरती है।2। हे भाई! दुर्मति के कारण बेअँत दुनियाँ दुखी हो रही है, परमात्मा को बिसार के और ही मोह में डूबी हुई है। परमात्मा का नाम गुरू के बिना नहीं मिल सकता, और प्रभू के नाम के बिना मन की भटकना दूर नहीं होती। जब मनुष्य गुरू की (बताई हुई) सेवा करता है, तब आत्मिक आनँद प्राप्त करता है, और जनम-मरण के चक्कर को समाप्त कर लेता है।3। हे भाई! बुरी मति के कारण बेअंत दुनिया दुखी हो रही है, परमात्मा को बिसार के और के मोह में भटकी हुई है। परमात्मा का नाम गुरू के बिना नहीं मिल सकता, और प्रभू के नाम के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती। जब मनुष्य गुरू की (बताई हुई) सेवा करता है, गुरू के बिना (ये) रास्ता नहीं मिलता। जिस मनुष्य के मन में लोभ (की लहर) जोर डाल रही हो, ये रस्मी धार्मिक कर्म करने का उसको कोई (आत्मिक) लाभ नहीं हो सकता। (माया की खातिर) झूठ बोल-बोल के वह मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाला ये झूठ-रूपी) जहर खाता रहता है।4। हे पंडित! अगर दही मथें तो उसमें से मक्खन निकलता है, पर अगर पानी मथें, तो पानी ही देखने में आता है। ये (माया-मोह में फसा) जगत (पानी मथ-मथ के) ये पानी ही हासिल करता है। हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना (माया की) भटकना में ही दुखी होते रहते हैं, घट-घट व्यापक अलख परमात्मा से टूटे रहते हैं।5। हे भाई! ये जगत सूत्र का धागा (समझ लें, जैसे धागे में गाँठें पड़ी हुई हों, सांसारिक जीवों को) माया के मोह की दसों दिशाओं से गाँठें पड़ी हुई हैं (भाव, मोह में फसे हुए जीव दसों-दिशाओं में खिचे जा रहे हैं)। (अनेकों जीव ये रस्मी धार्मिक) कर्म कर-कर के हार गए, पर गुरू की शरण पड़े बिना मोह की गाँठ नहीं खुलती। हे भाई! ये जगत (रस्मी धार्मिक कर्म करता हुआ भी मोह की) भटकना में इतना उलझा हुआ है कि बयान नहीं किया जा सकता।6। हे पंडित! अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा का डर-अदब मन में बस जाता है। उस डर-अदब में रह के (माया के मोह से) मरना (जीव के माथे पे किए हुए कर्मों का ऐसा) लेख (है जो इसको अटल) (जीवन देता) है। हे भाई! तीर्थ-स्नान दान-पुंन व और अच्छाईयां परमात्मा का नाम ही हैं, परमात्मा के नाम को ही उसकी हजूरी में प्राथमिकता मिलती है। (माया में मस्त मन-हाथी को सीधे रास्ते पर चलाने के लिए) गुरू (का शबद) कुंडा है, गुरू ने ही परमात्मा का नाम मनुष्य को दृढ़ करवाया है। (गुरू की मेहर से जब नाम) मन में बसता है, तब धार्मिक दिखावा समाप्त हो जाता है।7। हे भाई! ये मानस शरीर परमात्मा-सर्राफ़ की दी हुई एक हाट है जिसमें कभी ना खत्म होने वाला नाम-सौदा है। वही जीव-व्यापारी इस सौदे का (अपने शरीर हाट में) दृढ़ता से वणज करता है जो गुरू के शबद में विचार करता है। हे नानक! वह जीव-व्यापारी भाग्यशाली है जो साध-संगति में (रह के) ये व्यापार करता है।8।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |