श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिनु सतिगुर सेवे किनै न पाइआ मनमुखि भउकि मुए बिललाई ॥ आवहि जावहि ठउर न पावहि दुख महि दुखि समाई ॥ गुरमुखि होवै सु अम्रितु पीवै सहजे साचि समाई ॥६॥ बिनु सतिगुर सेवे जनमु न छोडै जे अनेक करम करै अधिकाई ॥ वेद पड़हि तै वाद वखाणहि बिनु हरि पति गवाई ॥ सचा सतिगुरु साची जिसु बाणी भजि छूटहि गुर सरणाई ॥७॥ जिन हरि मनि वसिआ से दरि साचे दरि साचै सचिआरा ॥ ओना दी सोभा जुगि जुगि होई कोइ न मेटणहारा ॥ नानक तिन कै सद बलिहारै जिन हरि राखिआ उरि धारा ॥८॥१॥ {पन्ना 638}

पद्अर्थ: किनै = किसी ने भी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भउकि = फजूल बोल के। मुऐ = आत्मिक मौत ले बैठे। बिललाई = विलक के। आवहि जावहि = पैदा होते मरते हैं। ठउर = ठिकाना, वह जगह जो जनम मरन से ऊपर है। दुखि = दुख में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजे = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। समाई = लीनता।6।

जनमु = जन्मों के चक्कर। अधिकाई = बहुत। पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। तै = और। वाद = चर्चा, बहसें। पति = इज्जत। सचा = सदा स्थिर (प्रभू का उपदेश करने वाला)। साची = सदा स्थिर प्रभू के सिफत सालाह वाली। भजि = भाग के, दौड़ के। छूटहि = (आत्मिक मौत से) बचते हैं।7।

मनि = मन में। दरि = प्रभू के दर पे। साचे = सुर्ख रू। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पे। सचिआरा = सुर्खरू, इज्जत वाले। जुगि जुगि = हरेक युग में। तिन कै = उन से। सद = सदा। उरि = हृदय में।

अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़े बगैर किसी भी मनुष्य ने (परमात्मा से मिलाप का सुख) हासिल नहीं किया। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य फालतू बोल-बोल के बिलक-बिलक के आत्मिक मौत गले डाल लेते हैं। वे सदा जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं (इस चक्कर से बचने के लिए कोई) जगह वे पा नहीं सकते, (और) दुख में (जीवन व्यतीत करते हुए आखिर) दुख में ही ग़र्क हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, (और, इस तरह) आत्मिक अडोलता में सदा-स्थिर हरी-नाम में लीन रहता है।6।

हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना (मनुष्य को) जन्मों का चक्कर नहीं छोड़ता, वह चाहे अनेकों ही (बनाए हुए धार्मिक) कर्म करता रहे। (पंडित लोग) वेद (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ते हैं, और (उनके बाबत निरी) बहसें ही करते हैं। (यकीन जानिए कि) परमात्मा के नाम के बिना उन्होंने प्रभू दर पर अपना सम्मान गवा लिया है।

हे भाई! गुरू सदा स्थिर प्रभू के नाम का उपदेश करने वाला है, उसकी बाणी भी परमात्मा की सिफत सालाह वाली है। जो मनुष्य दौड़ के गुरू की शरण जा पड़ते हैं, वे (आत्मिक मौत से) बच जाते हैं।7।

हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में परमात्मा आ बसता है, वे मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के दर पे सुर्खरू हो जाते हैं। उन मनुष्यों की उपमा हरेक युग में ही होती है, कोई (निंदक आदि उनकी इस हो रही उपमा को) मिटा नहीं सकता। हे नानक! (कह–) मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने परमात्मा (के नाम) को अपने दिल में बसा के रखा है।8।1।

सोरठि महला ३ दुतुकी ॥ निगुणिआ नो आपे बखसि लए भाई सतिगुर की सेवा लाइ ॥ सतिगुर की सेवा ऊतम है भाई राम नामि चितु लाइ ॥१॥ हरि जीउ आपे बखसि मिलाइ ॥ गुणहीण हम अपराधी भाई पूरै सतिगुरि लए रलाइ ॥ रहाउ ॥ कउण कउण अपराधी बखसिअनु पिआरे साचै सबदि वीचारि ॥ भउजलु पारि उतारिअनु भाई सतिगुर बेड़ै चाड़ि ॥२॥ मनूरै ते कंचन भए भाई गुरु पारसु मेलि मिलाइ ॥ आपु छोडि नाउ मनि वसिआ भाई जोती जोति मिलाइ ॥३॥ हउ वारी हउ वारणै भाई सतिगुर कउ सद बलिहारै जाउ ॥ नामु निधानु जिनि दिता भाई गुरमति सहजि समाउ ॥४॥ {पन्ना 638}

नोट: देखिए गुरू नानक देव जी की अष्टपदी नंबर 4, वह भी दुतुकी है। उसमें भी शब्द ‘भाई’ का प्रयोग वैसे ही हुआ है जैसे इसमें। उसमें भी ‘निगुणिआं’ का ही वर्णन आरम्भ होता है। मतलब, गुरू अमरदासजी के पास गुरू नानक देव जी की सारी बाणी मौजूद थी।

पद्अर्थ: निगुणिआ नो = गुण हीन मनुष्यों को। आपे = खुद ही। भाई = हे भाई! लाइ = लगा के। नामि = नाम में।1।

बखसि = मेहर कर के। मिलाइ = मिला लेता है। अपराधी = पापी। सतिगुरि = गुरू ने। रहाउ।

बखसिअनु = उसने बख्श लिए हैं। कउण कउण = कौन कौन से? बेअंत। साचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले शबद से। वीचारि = विचार में (जोड़ के)। उतारिअनु = उसने पार लंघा दिए हैं। बेड़ै = बेड़े में। चाढ़ि = चढ़ा के।2।

मनूरै ते = जंग लगे लोहे से। कंचन = सोना। मेलि = मिला के। आपु = स्वै भाव। मनि = मन में।3।

हउ = मैं। वारी = कुर्बान। वारणै = सदके। कउ = को, से। सद = सदा। बलिहारै = कुर्बान। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। निधानु = खजाना। जिनी = जिस (गुरू) ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाउ = समाऊँ, मैं लीन रहता हूँ।4।

अर्थ: हे भाई! हम जीव गुणों से वंचित हैं, विकारी हैं। पूरे गुरू ने (जिन्हें अपनी संगति में) मिला लिया है, उनको परमात्मा खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। रहाउ।

हे भाई! गुणों से वंचित जीवों को सतिगुरू की सेवा में लगा के परमात्मा खुद ही बख्श लेता है। हे भाई! गुरू की शरण-सेवा बड़ी श्रेष्ठ है, गुरू (शरण आए मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में जोड़ देता है।1।

हे प्यारे! परमात्मा ने अनेकों ही अपराधियों को गुरू के सच्चे शबद के द्वारा (आत्मिक जीवन की) विचार में (जोड़ के) माफ कर दिया है। हे भाई! गुरू के (शबद-) जहाज में चढ़ा के उस परमात्मा ने (अनेकों जीवों को) संसार समुंद्र से पार लंघाया है।2।

हे भाई! जिन मनुष्यों को पारस गुरू (अपनी संगति में) मिला के (प्रभू चरणों में) जोड़ देता है, वे मनुष्य सड़े हुए लोहे से सोना बन जाते हैं। हे भाई! सवै भाव त्याग के उनके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरू उनकी सुरति को प्रभू की ज्योति में मिला देता है।3।

हे भाई! मैं कुर्बान जाता हूँ, मैं बलिहार जाता हूँ, मैं गुरू से सदा ही सदके जाता हूँ। हे भाई! जिस गुरू ने (मुझे) परमात्मा का नाम खजाना दिया है, उस गुरू की मति ले के मैं आत्मिक अडोलता (सहज अवस्था) में टिका रहता हूँ।4।

गुर बिनु सहजु न ऊपजै भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥ सतिगुर की सेवा सदा करि भाई विचहु आपु गवाइ ॥५॥ गुरमती भउ ऊपजै भाई भउ करणी सचु सारु ॥ प्रेम पदारथु पाईऐ भाई सचु नामु आधारु ॥६॥ जो सतिगुरु सेवहि आपणा भाई तिन कै हउ लागउ पाइ ॥ जनमु सवारी आपणा भाई कुलु भी लई बखसाइ ॥७॥ सचु बाणी सचु सबदु है भाई गुर किरपा ते होइ ॥ नानक नामु हरि मनि वसै भाई तिसु बिघनु न लागै कोइ ॥८॥२॥ {पन्ना 638}

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। गिआनी = आत्मिक जीवन की समझ वाला मनुष्य। आपु = स्वै भाव। गावहि = दूर करके।5।

भउ = डर, अदब। करणी = करणीय, करने योग्य काम। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सारु = श्रेष्ठ। आधारु = आसरा।6।

तिन कै पाइ = उन के पैरों पर। लागउ = लगूँ। सवारी = सवारूँ। लई = लेता हूँ।7।

ते = से, साथ। मनि = मन में। बिघनु = रुकावट।8।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्यों को जा के पूछ लो, (यही उक्तर मिलेगा कि) गुरू की शरण पड़े बिना (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा नहीं हो सकती। (इस वास्ते,) हे भाई! तू भी (अपने) अंदर से स्वै भाव (वाला अहंकार) दूर करके सदैव गुरू की सेवा किया कर।5।

हे भाई! गुरू की मति पर चलने से (मनुष्य के अंदर परमात्मा के लिए) डर-अदब पैदा होता है। (अपने अंदर) डर-अदब (पैदा करना ही) करने योग्य काम है। ये काम सदा-स्थिर रहने वाला है, यही काम (सबसे) श्रेष्ठ है। हे भाई! (इस डर-अदब की बरकति से) परमात्मा के प्यार का कीमती धन प्राप्त हो जाता है, परमात्मा का सदा-स्थिर नाम (जिंदगी का) आसरा बन जाता है।6।

हे भाई! जो मनुष्य अपने गुरू का आसरा लेते हैं, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। (इस तरह) मैं अपना जीवन सुंदर बना रहा हूँ, मैं अपने सारे खानदान के लिए भी परमात्मा की कृपा प्राप्त कर रहा हूँ।7।

हे भाई! गुरू की कृपा से सदा-स्थिर हरी-नाम (हृदय में आ बसता) है, सिफत सालाह की बाणी (हृदय में आ बसती) है, सिफत सालाह का शबद प्राप्त हो जाता है। हे नानक! (कह–) हे भाई! (गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसको (जीवन-यात्रा में) कोई मुश्किल नहीं होती।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh