श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 640 सचे चरण सरेवीअहि भाई भ्रमु भउ होवै नासु ॥ मिलि संत सभा मनु मांजीऐ भाई हरि कै नामि निवासु ॥ मिटै अंधेरा अगिआनता भाई कमल होवै परगासु ॥ गुर बचनी सुखु ऊपजै भाई सभि फल सतिगुर पासि ॥३॥ मेरा तेरा छोडीऐ भाई होईऐ सभ की धूरि ॥ घटि घटि ब्रहमु पसारिआ भाई पेखै सुणै हजूरि ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु भाई तितु दिनि मरीऐ झूरि ॥ करन करावन समरथो भाई सरब कला भरपूरि ॥४॥ प्रेम पदारथु नामु है भाई माइआ मोह बिनासु ॥ तिसु भावै ता मेलि लए भाई हिरदै नाम निवासु ॥ गुरमुखि कमलु प्रगासीऐ भाई रिदै होवै परगासु ॥ प्रगटु भइआ परतापु प्रभ भाई मउलिआ धरति अकासु ॥५॥ {पन्ना 639-640} पद्अर्थ: सचे = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के। सरेवीअहि = सेवे जाने चाहिए। भ्रमु = भटकना। मिलि = मिल के। मांजीअै = मांजना चाहिए। कै नामि = के नाम में। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अगिआनता = आत्मिक जीवन का अज्ञान। कमल परगासु = (हृदय के) कमल फूल का खिलना। सभि = सारे।3। मेरा तेरा = मेर तेर, भेद भाव। होईअै = बन जाना चाहिए। धूरि = राख। घटि घटि = हरेक घट में। हजूरि = अंग संग हो के। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। जितु दिनि = जिस दिन में। तितु दिनि = उस दिन में। मरीअै = मरते हैं। झूरि = पछता के। करन करावन समरथो = सब कुछ कर सकने वाला और (जीवों से) करवा सकने वाला। कला = शक्ति।4। पदारथु = कीमती धन। मोह बिनासु = मोह का नाश। तिसु भावै = उस (परमात्मा) को अच्छा लगे। हिरदै = हृदय में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। रिदै = दिल में। परगासु = प्रकाश। प्रगट भइआ = उघड़ आया, सामने आ गया। परतापु = ताकत। मउलिआ = खिला हुआ।5। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के चरण हृदय में बसा के रखने चाहिए, (इस तरह मन के) भ्रम का (भटकना का) (हरेक किस्म के) डर का नाश हो जाता है। हे भाई! साध-संगति में मिल के मन को साफ करना चाहिए (इस तरह) परमात्मा के नाम में (मन का) निवास हो जाता है। (साध-संगति की बरकति से) हे भाई! आत्मिक जीवन के पक्ष से अज्ञानता का अंधकार (मनुष्य के अंदर से) मिट जाता है (हृदय का) कमल पुष्प खिल उठता है। हे भाई! गुरू के बचनों पर चलने से आत्मिक आनंद पैदा होता है। सारे फल गुरू के पास हैं।3। हे भाई! भेद भाव त्याग देने चाहिए, सबके चरणों की धूड़ बन जाना चाहिए। हे भाई! परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है, वह सबके अंग-संग हो के (सबके कामों को) देखता है (सबकी बातें) सुनता है। हे भाई! जिस दिन परमात्मा भूल जाए, उस दिन दुखी हो के (हम) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। हे भाई! (ये याद रखो कि) परमात्मा सब कुछ कर सकने वाला है और (जीवों से) करवा सकने वाला है। परमात्मा में सारी ताकतें मौजूद हैं।4। हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के) प्यार का कीमती धन मौजूद है, हरी-नाम मौजूद है (उसके अंदर से) माया के मोह का नाश हो जाता है। हे भाई! उस परमात्मा को (जब) अच्छा लगे तब वह (जिसको अपने चरणों में) मिला लेता है (उसके) हृदय में उस प्रभू के नाम का निवास हो जाता है। हे भाई! गुरू के सन्मुख होने से (हृदय का) कमल फूल खिल उठता है, दिल में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। हे भाई! (गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य के अंदर) परमात्मा की ताकत प्रकट हो जाती है (मनुष्य को समझ आ जाता है कि परमात्मा बेअंत शक्तियों का मालिक है, और प्रभू की ताकत से ही) धरती खिली हुई है, आकाश खिला हुआ है।5। गुरि पूरै संतोखिआ भाई अहिनिसि लागा भाउ ॥ रसना रामु रवै सदा भाई साचा सादु सुआउ ॥ करनी सुणि सुणि जीविआ भाई निहचलु पाइआ थाउ ॥ जिसु परतीति न आवई भाई सो जीअड़ा जलि जाउ ॥६॥ बहु गुण मेरे साहिबै भाई हउ तिस कै बलि जाउ ॥ ओहु निरगुणीआरे पालदा भाई देइ निथावे थाउ ॥ रिजकु स्मबाहे सासि सासि भाई गूड़ा जा का नाउ ॥ जिसु गुरु साचा भेटीऐ भाई पूरा तिसु करमाउ ॥७॥ {पन्ना 640} पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। संतोखिआ = संतोष दिया। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम। रसना = जीभ (से)। रवै = सिमरता है। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य, मनोरथ। करनी = कर्णों से, कानों से। जीअड़ा = (दुर्भाग्य भरी) जीवात्मा। जलि जाउ = जल जाए, (विकारों में) जल जाती है।6। साहिबै = साहिब में। हउ = मैं। तिस कै = उससे (‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है)। बलि = सदके। जाउ = जाऊँ। देइ = देता है। संबाहे = पहुँचाता है। सासि सासि = हरेक सांस में। गूढ़ा = गाढ़ा प्रेम रंग देने वाला। भेटीअै = मिल जाते हैं। करमाउ = किस्मत से।7। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने संतोख की दाति दे दी, (उसके अंदर) दिन रात (प्रभू चरनों का) प्यार बना रहता है, वह मनुष्य सदा (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपता रहता है। (नाम जपने का ये) स्वाद (ये) निशाना (उसके अंदर) सदा कायम रहता है। हे भाई! वह मनुष्य अपने कानों से (परमात्मा की सिफत सालाह) सुन-सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता रहता है, (वह प्रभू-चरणों में) अटल स्थान की प्राप्ति बनाए रहता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को (गुरू पर) ऐतबार नहीं होता उसकी (दुर्भाग्यपूर्ण) जीवात्मा (विकारों में) जल जाती है (और आत्मिक मौत सहेड़ लेती है)।6। हे भाई! मेरे मालिक प्रभू में बेअंत गुण हैं, मैं उससे सदके-कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! वह मालिक गुणहीन को (भी) पालता है, वह निआसरे मनुष्य को सहारा देता है। वह मालिक हरेक सांस के साथ रिजक पहुँचाता है, उसका नाम (सिमरन करने वाले के मन पर प्रेम का) गाढ़ा रंग चढ़ा देता है। हे भाई! जिस मनुष्य को सच्चा गुरू मिल जाता है (उसको प्रभू मिल जाता है) उसकी किस्मत जाग जाती है।7। तिसु बिनु घड़ी न जीवीऐ भाई सरब कला भरपूरि ॥ सासि गिरासि न विसरै भाई पेखउ सदा हजूरि ॥ साधू संगि मिलाइआ भाई सरब रहिआ भरपूरि ॥ जिना प्रीति न लगीआ भाई से नित नित मरदे झूरि ॥८॥ अंचलि लाइ तराइआ भाई भउजलु दुखु संसारु ॥ करि किरपा नदरि निहालिआ भाई कीतोनु अंगु अपारु ॥ मनु तनु सीतलु होइआ भाई भोजनु नाम अधारु ॥ नानक तिसु सरणागती भाई जि किलबिख काटणहारु ॥९॥१॥ {पन्ना 640} पद्अर्थ: न जीवीअै = जी नहीं सकते, आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। कला = ताकतें। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सासि गिरासि = सांस लेते हुए और खाते हुए। पेखउ = मैं देखता हूँ। हजूरि = अंग संग। साधू संगि = गुरू की संगति में। मरदे = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। झूरि = चिंतातुर हो के।8। अंचलि = पॅले से। भउजलु = संसार समुंद्र। करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह। निहालिआ = देखा। कीतोनु = उस ने किया। अंगु = पक्ष। अपारु = बेअंत। सीतल = ठंडा। अधारु = आसरा। किलबिख = पाप। काटणहारु = काट सकने वाला। जि = जो।9। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सारी ही ताकतों से भरपूर है, उस (की याद) के बिना एक घड़ी भी (मनुष्य का) आत्मिक जीवन कायम नहीं रह सकता। हे भाई! मैं तो उस परमात्मा को अपने अंग-संग बसता देखता हूँ, मुझे वह खाते हुए सांस लेते हुए कभी भी नहीं भूलता। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा ने गुरू की संगति में मिला दिया, उसे वह परमात्मा हर जगह मौजूद दिखाई देने लग जाता है। पर, हे भाई! जिनके अंदर परमात्मा का प्यार पैदा नहीं होता, वह सदा चिंतातुर हो-हो के आत्मिक मौत मरता रहता है।8। हे भाई! (शरण में आए मनुष्य को) अपने पल्लू से लगा के परमात्मा खुद इस दुख-रूपी संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है। प्रभू (उस पर) कृपा करके (उसको) मेहर की निगाह से देखता है, उसका बेअंत पक्ष करता है। हे भाई! मनुष्य का मन ठंडा हो जाता है, शरीर शांत हो जाता है, वह (अपने आत्मिक जीवन के लिए) नाम की खुराक़ (खाता है), नाम का सहारा लेता है। हे नानक! (कह–) हे भाई! उस परमात्मा की शरण पड़ो, जो सारे पाप काट सकता है।9।1। सोरठि महला ५ ॥ मात गरभ दुख सागरो पिआरे तह अपणा नामु जपाइआ ॥ बाहरि काढि बिखु पसरीआ पिआरे माइआ मोहु वधाइआ ॥ जिस नो कीतो करमु आपि पिआरे तिसु पूरा गुरू मिलाइआ ॥ सो आराधे सासि सासि पिआरे राम नाम लिव लाइआ ॥१॥ मनि तनि तेरी टेक है पिआरे मनि तनि तेरी टेक ॥ तुधु बिनु अवरु न करनहारु पिआरे अंतरजामी एक ॥ रहाउ ॥ कोटि जनम भ्रमि आइआ पिआरे अनिक जोनि दुखु पाइ ॥ साचा साहिबु विसरिआ पिआरे बहुती मिलै सजाइ ॥ जिन भेटै पूरा सतिगुरू पिआरे से लागे साचै नाइ ॥ तिना पिछै छुटीऐ पिआरे जो साची सरणाइ ॥२॥ {पन्ना 640} पद्अर्थ: मात गरभ = माता का पेट। सागरो = समुंद्र। तह = वहाँ, उस पेट में। काढि = निकाल के। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को खत्म करने वाले मोह का जहर। पसरीआ = बिखेर दी। करमु = बख्शिश। तिसु = उस मनुष्य को। आराधे = सिमरता है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। लिव = लगन, प्रीति।1। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। टेक = आसरा। अवरु = कोई और। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ। कोटि = करोड़ों। भ्रमि = भटक के। पाइ = पा के, सह के। साचा = सदा कायम रहने वाला। जिन = जिन्हें। भेटै = मिलता है। नाइ = नाम में। साचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के नाम में। तिना पिछे = उन की शरण पड़ कर। छुटीअै = (माया के मोह से) बच जाते हैं।2। अर्थ: हे प्यारे प्रभू! (मेरे) मन में (मेरे) हृदय में सदा तेरा ही आसरा है (तू ही माया के मोह से बचाने वाला है)। हे प्यारे प्रभू! तू ही सबके दिलों की जानने वाला है। तेरे बिना और कोई नहीं जो सब कुछ करने की समर्था वाला हो। रहाउ। हे प्यारे (भाई)! माँ का पेट दुखों का समुंद्र है, वहाँ (प्रभू ने जीव से) अपने नाम का सिमरन करवाया (और, इसे दुखों से बचाए रखा)। माँ के पेट में से निकाल के (जन्म दे के, प्रभू ने जीव के लिए, आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाली माया के मोह का) जहर बिखेर दिया (और, इस तरह जीव के हृदय में) माया का मोह बढ़ा दिया। हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभू स्वयं मेहर करता है, उसको पूरे गुरू से मिलवाता है। वह मनुष्य हरेक सांस के साथ परमात्मा का सिमरन करता है, और, परमात्मा के नाम की लगन (अपने अंदर) बनाए रखता है।1। हे भाई! अनेकों जूनियों के दुख सह के करोड़ों जन्मों में भटक के (जीव मनुष्य के जन्म में) आता है, (पर, यहाँ इसे) सदा कायम रहने वाला मालिक भूल जाता है, और इसे बड़ी सजा मिलती है। हे भाई! जिन मनुष्यों को पूरा गुरू मिल जाता है, वे सदा-स्थिर प्रभू के नाम में सुरति जोड़ते हैं। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की शरण में पड़े रहते हैं, उनके पद्-चिन्हों पर चल के (माया के मोह के जहर से) बचा जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |