श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पूजा अरचा बंदन डंडउत खटु करमा रतु रहता ॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ नह मिलीऐ इह जुगता ॥५॥ जोग सिध आसण चउरासीह ए भी करि करि रहिआ ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै हरि सिउ संगु न गहिआ ॥६॥ राज लीला राजन की रचना करिआ हुकमु अफारा ॥ सेज सोहनी चंदनु चोआ नरक घोर का दुआरा ॥७॥ हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥ तेरो सेवकु इह रंगि माता ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु हरि हरि कीरतनि इहु मनु राता ॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥ {पन्ना 642}

पद्अर्थ: अरचा = मूर्ति पूजा। बंधन = नमस्कार। डंडउत = डंडे की तरह सीधे लंबे लेट के नमस्कार करनी। खटु = छे। खटु करमा = ब्राहमण के लिए छे जरूरी धार्मिक कर्म: विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और करवाना, दान लेना और देना। रतु रहता = मगन रहता है। हउ हउ = मैं मैं। इह जुगता = इस तरीके से।5।

सिध = योगासनों में सिद्ध हुए योगी। रहिआ = थक गया। आरजा = उम्र। संगु = साथ। गहिआ = मिला।6।

लीला = रंग तमाशे। रचना = ठाठ बाठ। अफारा = जिसे कोई मोड़ न सके। चोआ = इत्र। घोर = भयानक।7।

कीरति = सिफत सालाह। करमन कै सिरि = सब (धार्मिक) कामों के सिर पर, सब कर्मों से श्रेष्ठ। पुरब लिखे का = पहले जन्म में किए कर्म के अनुसार।8।

रंगि = रंग में। माता = मस्त। कीरतनि = कीर्तन मे। राता = रंगा हुआ। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य देव-पूजा में, देवताओं को नमस्कार दंडवत करने में, खट् कर्म करने में मस्त रहता है। पर वह भी (इन मिथे हुए धार्मिक कर्मों को करने के कारण अपने आप को धार्मिक समझ के) अहंकार करता-करता (माया के मोह के) बँधनों में जकड़ा रहता है। इस ढंग से भी परमात्मा को नहीं मिला जा सकता।5।

योग-मत में सिद्धों के प्रसिद्ध चौरासी आसन हैं। ये आसन कर करके भी मनुष्य थक जाता है। उम्र तो लंबी कर लेता है, पर इस तरह परमात्मा से मिलाप का संजोग नहीं बनता, बार बार जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।6।

हे भाई! कई ऐसे हैं जो राज हकूमत के रंग तमाशे भोगते हैं, राजाओं वाले ठाठ-बाठ बनाते हैं, लोगों पर हुकम चलाते हैं, कोई उनका हुकम मोड़ नहीं सकता। सुंदर स्त्री की सेज भोगते हैं, (अपने शरीर पर) चंदन व इत्र लगाते हैं। पर ये सब कुछ तो भयानक नर्क की ओर ले जाने वाले हैं।7।

हे भाई! साध-संगति में बैठ के परमात्मा की सिफत सालाह करनी- ये कर्म और सारे कर्मों से श्रेष्ठ है। पर, हे नानक! कह– ये अवसर उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके माथे पर पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार लेख लिखा होता है।8।

हे भाई! तेरा सेवक तेरी सिफत सालाह के रंग में मस्त रहता है। हे भाई! दीनों के दुख दूर करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान होता है, उसका ये मन परमात्मा की सिफत सालाह के रंग में रंगा रहता है। रहाउ दूजा।1।3।


रागु सोरठि वार महले ४ की

वार का भाव:

पौड़ी वार भाव:

परमात्मा ने इस जगत की खेल खुद बनाई है, और हर जगह उसकी अपनी ही रौंअ रुमक रही है; पर, ये समझ गुरू के द्वारा ही आती है और गुरू के द्वारा मार्ग पर चल के ही प्रभू की ये महिमा कही जा सकती है।

यद्यपि माया-रहित प्रभू की ही जीवन रौंअ हर जगह है, पर जीव माया के कारण मूर्खपने में लगा रहता है; जिस पर प्रभू की मेहर की नजर होती है वह गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की सिफत सालाह की कार करता है।

इस जगत रचना में त्रिगुणी माया भी ईश्वर ने स्वयं ही बनाई है, इसके मोह में फस के अहंकार के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है; पर, जिस पे प्रभू की मेहर हो उसको सतिगुरू ये भुलेखा समझा देता है।

परमात्मा का कोई ऐसा खास रूप नहीं, कोई रेखा नहीं जिसकी जीव को समझ पड़ सके, इसलिए जीव अपने आप उसकी सिफत सालाह कर ही नहीं सकता; पूरे गुरू के बताए हुए राह पर चल के ही प्रभू के दीदार हो सकते हैं।

इस जगत को बनाने वाला परमात्मा हलांकि हरेक के अंदर आप मौजूद है, पर जीव माया के धंधों में लग के उसको भुलाए रखते हैं और गलत राह पर पड़े रहते हैं; जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है वह माया के मोह में से निकल के गुरू चरणों से प्यार डालता है और भक्ति करता है।

जिस माया की मौजों में उलझ के मनुष्य प्रभू को बिसारता है और पाप कमाता है उसका साथ कुसंभ के रंग की तरह थोड़े ही दिन रहता है। जगत से चलने के वक्त किए विकारों के कारण घबराता है और पछताता है।

पर, जो मनुष्य प्रभू का सिमरन करता है, वह विकारों से बचा रहता है, उसको मौत से कभी घबराहट नहीं होती, वह प्रभू की हजूरी में इज्जत कमा के जाता है। कोई डर, कोई भटकना उसे नहीं रहती। पर, इस राह पर वही चलता है जो प्रभू की मेहर से गुरू के दर पर आता है।

जो भाग्यशाली लोग गुरू की शरण आते हैं, वे मिल के सतसंग में प्रभू की सिफत सालाह करते हैं और सुनते हैं, विकारों में पड़ने की जगह उनका मन प्रभू के नाम में पतीजा रहता है। ऐसे सत्संगियों के दर्शन मुबारक हैं, वे औरों को भी परमात्मा की ओर जोड़ते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा के नाम में मस्त रहते हैं, उन्हें नाम सिमरन की बरकति से प्रभू हर जगह बसता प्रतीत होता है, इस वास्ते उन्हें कोई डर नहीं व्याप्तता। पर, ये दाति प्रभू की अपनी मेहर से गुरू के सन्मुख होने से ही मिलती है।

माया का प्यार और नाम की लगन- दोनों का मेल नहीं हो सकता। जिस मनुष्य का मन दुनियावी मौज-मेलों में भेदा हुआ है, उसकी सुरति उधर ही रहती है। पर जिस पर मेहर हो, वह गुरू की शरण पड़ कर ‘नाम’ से प्यार करता है और माया का मोह उसे आकर्षित नहीं कर सकता।

ये मानस शरीर, मानो, चोली है जो परमात्मा ने अपने पहनने के लिए बनाई है, ये चोली उसे तभी अच्छी लग सकती है अगर इसे भक्ति के रंग से सँवारा जाए, जैसे औरतें कढ़ाई करके फुलकारी को संभाल के बर्तती हैं। पर, ये भक्ति गुरू की शरण पड़ने से ही हो सकती है।

परमात्मा को मिलने का रास्ता गुरमुखों का संग करने से ही मिलता है, ज्यों-ज्यों उनके साथ मिल के गुण ग्रहण करते जाएं और नाम सिमरन करें त्यों-त्यों जीवन सुखी होता है। गुरू के बताए राह की समझ सत्संगियों से ही पड़ती है।

सिफत सालाह करने वाला मनुष्य लोक परलोक दोनों ही जगह शोभा कमाता है; जिसे नाम-अमृत का रस आया है उसकी तृष्णा मिट जाती है; पर इस राह पर वही चलता है जिस पर मेहर हो और जो गुरू की शरण पड़े।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के नाम जपता है, वह परमात्मा के रचे सब लोगों से उसी तरह प्यार करने लग जाता है जैसे वह अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करता है; ये नया आत्मिक जीवन उसे मिलता है।

दुनिया के धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि- इनमें से किसी से भी आखिर तक साथ नहीं निभता, अंत समय साथ टूटते हुए मन बहुत दुखी होता है। एक हरी का नाम ही है जो आखिरी वक्त साथी बनता है और सुखदाई होता है; ये नाम सतिगुरू के सन्मुख होने से ही मिलता है।

धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि व और कार्य-व्यवहार वर्जित नहीं हैं, बल्कि इनके द्वारा भले लोगों की सेवा करो और प्रभू का नाम भी सिमरो। जो मनुष्य सतिगुरू के द्वारा ऐसी रहणी सीखता है वह भाग्यशाली है।

असल शोभा-उपमा वे लोग कमाते हैं जो पूरे गुरू के द्वारा स्वै भाव मिटा के परमात्मा के नाम में इतना लीन हो जाते हैं कि उन्हें हर जगह परमात्मा ही दिखता है।

वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जो गुरू की शरण पड़ कर अपनी मर्जी की जगह गुरू की मर्जी पर चलते हैं; यही एक तरीका है जिससे नाम सिमरा जा सकता है, सिफत सालाह हो जाती है और मन बस में आ सकता है।

जिन मनुष्यों के हृदय में गुरू का निवास है वे मुबारक हैं; उनके दर्शन करके और लोग भी प्रभू के नाम में जुड़ते हैं और अपने अंदर से पाप काट लेते हैं।

उन लोगों को असल धनवान समझो, जो गुरू के सन्मुख हो के उस प्रभू का सिमरन करते हैं जो पत्थरों के अंदर बसते कीड़ों से ले के मनुष्यों तक सारे जीव-जंतुओं को रोजी देने वाला है।

जिस मनुष्य पर मालिक की मेहर की नजर हो वे गुरू के सन्मुख हो के मानस जन्म की बाजी जीत जाता है क्योंकि वह भक्ति क्षमा और प्रेम का श्रृंगार बनाता है जो प्रभू को प्यारा लगता है।

असल संपूर्ण इन्सान वो हैं जो गुरू के सन्मुख हो के सांस-सांस में नाम सिमरते हैं; नाम-रूपी दवा बरतने से उनके सारे आत्मिक रोग व दुख दूर हो जाते हैं; ना उन्हें जगत की मुथाजगी रहती है ना ही जमों की।

जो मनुष्य सतिगुरू की निंदा करता है उसकी सुरति विकारों की ओर ही रहती है, उसकी निंदा करने की आदत इतनी बढ़ जाती है कि घर-घर किसी ना किसी की निंदा करता-फिरता है; पर भाग्यशाली है वह बंदा जो सतिगुरू के सँवारे हुए गुरसिखों की संगति में आता है।

सतिगुरू के बताए हुए राह पर चलने वाले गुरमुखों का दर्शन करने से परमात्मा का सिमरन करने का मन में चाव पैदा होता है, क्योंकि वह गुरमुख गुरू की शरण आ के दिन-रात प्रभू के सिमरन में उम्र गुजारते हैं; गुरू की कृपा से वे प्रभू के चरणों में सदा जुड़े रहते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं उनकी संगति करने से पाप-विकार दूर हो जाते हैं और उस प्रभू के हर वक्त सिमरन का उत्साह पैदा होता है जो सब जीवों को रिज़क दे रहा है और जिसके दर से सब जीव माँगते हैं।

जो मनुष्य भक्ति करने वाले लोगों की चरण-धूड़ माथे पर लगाते हैं वे भी प्रभू का सिमरन करने लग जाते हैं, हरी-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं जैसे रोटी शरीर का आसरा है, हरी-नाम तीर्थ व स्नान करके पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, और प्रभू दर पर कबूल हो जाते हैं।

साध-संगति, जैसे, एक नगर है जो गुरू ने बसाया है; इस नगर में सत्संगी, जैसे, रखवाले हैं। जो मनुष्य इस नगर में आ के बसता है, सत्संगी रक्षकों की बरकति से माया की तृष्णा व अन्य अवगुण कोई भी उस मनुष्य के पास नहीं आते।

सारे जगत को पैदा करके परमात्मा सब जीवों की पालना भी खुद ही करता है; पर, खुशी भरा जीवन केवल उन लोगों का ही होता है जो प्रभू की भक्ति करते हैं, क्योंकि प्रभू सिमरन करने वालों पर प्रसन्न होता है, उनके मन में से प्रभू खुद माया का मोह जला के राख कर देता है।

सारे जगत में परमात्मा का ही हुकम वरत रहा है; उसकी रजा यूँ है कि जो मनुष्य सतिगुरू की मर्जी में चलता है उसे प्रभू दर से वडिआई मिलती है, वह प्रभू को प्राप्त हो जाता है। सो, सतिगुरू की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

समूचा भाव:

(1 से 6 तक) इस सारी जगत खेल में ईश्वर की अपनी ही जीवन-रौंअ रुमक रही है, त्रिगुणी माया भी उसने खुद ही बनाई है, पर जीव को इस बात की परतीति गुरू की शरण के बिना नहीं आ सकती, क्योंकि एक तो जीव माया के मोह में फस के मूर्खता में लग जाता है, दूसरा परमातमा की ऐसी कोई खास रूप-रेखा नहीं है जिसकी जीव को समझ पड़ सके, और जिस माया के मोह में फस के विकारों में उलझता है, उसका साथ भी नहीं निभता।

(7 से 14 तक) गुरू के सन्मुख हो के प्रभू का नाम सिमरने से मनुष्य का मन एक तो विकारों में पड़ने की जगह ‘नाम’ में पतीजा रहता है, माया का मोह उसे कोई कशिश नहीं डाल सकता; दूसरा, सिमरन से प्रभू की सर्व-व्यापकता की अनुभूति से किसी तरह का कोई डर उसे नहीं व्यापता। ऐसा भाग्यशाली जीव परमात्मा को प्यारा लगने लगता है (और उसका) जीवन सुखी हो जाता है, नाम-अमृत का रस आने से तृष्णा मिट जाती है, और प्रभू के रचे हुए बंदों से ऐसे प्यार करने लग पड़ता है जैसे अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करना होता है।

(15 से 23 तक) धन-पदार्थ आदि एकत्र करना जिंदगी का असल मनोरथ नहीं, इनका साथ आखिर तक नहीं निभता; पर ये वर्जित भी नहीं, इनके द्वारा से दुनिया की सेवा करें; इनका गुमान करने की जगह स्वै भाव मिटा के अपने सतिगुरू की रजा में मनुष्य चले और प्रभू का नाम सिमर के अंदर से विकार दूर करे - ऐसा मनुष्य असल धनवान है, ऐसा मनुष्य ही इस जगत-चौपड़ से बाज़ी जीत के जाता है, यही है संपूर्ण इन्सान, क्योंकि नाम सिमरने से सारे आत्मिक रोग-दुख दूर हो जाते हैं। पर, धन-पदार्थ आदि की टेक के कारण मनुष्य को सतिगुरू के चरणों में लगने से घृणा होती है, उसका ख़लकत से भी रिश्ता प्रेम भरा नहीं होता, उसकी सुरति पर विकार ही हावी रहते हैं।

(24 से 27 तक) सतिगुरू के बताए राह पर चल कर प्रभू का नाम सिमरने वाले मनुष्यों की संगति करने वालों के मन में भी सिमरन का इतना चाव और उत्साह पैदा हो जाता है कि विकारों की ओर उनका मन भटकने से हट जाता है। वे हरी-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं, जैसे रोटी शरीर का आसरा है। बंदगी वालों की संगति एक ऐसा नगर समझें जहाँ बसने से किसी विकार-रूपी चोर डाकू का डर नहीं रहता।

(28 व 29) करतार ने जगत-रचना में नियम ही ये रखा है कि मनुष्य सतिगुरू की रजा में चल के भक्ति करे, उसी मनुष्य का जीवन सुख-भरा हो सकता है; सतिगुरू की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

मुख्य भाव:

करतार की रची हुई त्रिगुणी माया जीवों पर प्रभाव डाल के इन्हें कुमार्ग पर डाल देती है; पर जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की भक्ति करते हैं, उन्हें विकार छू नहीं सकते। सतिगुरू की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

‘वार’ की संरचना:

गुरू राम दास जी की उच्चारित इस ‘वार’ में 29 पौड़ियां हैं और 58 शलोक हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो–दो शलोक। शलोकों का वेरवा:

सलोक महला ३---------------48
सलोक महला ४---------------07
सलोक महला ३---------------01
सलोक महला ३---------------02
कुल----------------------------58

ये ‘वार’ गुरू रामदास जी की है, पर 58 शलोकों में से उनके अपने सिर्फ 7 ही हैं। अगर शलोकों समेत ‘वार’ उचारी हुई होती, तो शलोक तकरीबन सारे ही गुरू अमरदास जी के होने के कारण, इसका शीर्षक ‘सोरठि की वार महले ४ की’ ना फॅबता, क्योंकि गुरू रामदास जी की 29 पौड़ियों के मुकाबले गुरू अमरदास जी के 48 शलोक आ गए हैं, दोनों गुरू व्यक्तियों की बाणी में से गिनती के लिहाज से गुरू अमरदास जी की बाणी ज्यादा हो गई। दरअसल, सच्चाई ये है कि सिर्फ पउड़ियों के ही संग्रह का नाम ‘वार’ है।

रागु सोरठि वार महले ४ की
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोकु मः १ ॥ सोरठि सदा सुहावणी जे सचा मनि होइ ॥ दंदी मैलु न कतु मनि जीभै सचा सोइ ॥ ससुरै पेईऐ भै वसी सतिगुरु सेवि निसंग ॥ परहरि कपड़ु जे पिर मिलै खुसी रावै पिरु संगि ॥ सदा सीगारी नाउ मनि कदे न मैलु पतंगु ॥ देवर जेठ मुए दुखि ससू का डरु किसु ॥ जे पिर भावै नानका करम मणी सभु सचु ॥१॥ {पन्ना 642}

पद्अर्थ: मनि = मन में। दंदी मैलु = दातों में मैल, दंतकथा, निंदा। कतु = चीर, दूरी, वैर विरोध। ससुरै = ससुराल वाले घर, परलोक में। पेईअै = पेके घर, इस लोक में। निसंग = बेझिझक। परहरि = छोड़ के। कपड़ु = दिखावा। पिर मिलै = पति को मिले। पिरु रावै = पति भोगता है, खुशी संग, प्रसन्नता से। पतंगु = रक्ती भा भी। ससू = माइआ। देवर जेठ = (सॅस) माया के पुत्र, कामादिक विकार। पिर भावै = पति को अच्छी लगे। करम मणी = भाग्यों की मणि।

अर्थ: सोरठि रागिनी हमेशा मधुर लगे अगर (इसके द्वारा प्रभू के गुण गाने से) सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू मन में बस जाए, निंदा करने वाली आदत ना रहे, मन में किसी से वैर-विरोध ना हो, और जीभ पर सदा सच्चा मालिक हो। (इस तरह जीव-स्त्री) लोक-परलोक में (परमात्मा के) डर में जीवन गुजारती है और गुरू की सेवा करके बेझिझक हो जाती है (भाव, कोई सहम दबा नहीं पाता)। दिखावा छोड़ के अगर पति-प्रभू को मिल जाए तो पति भी प्रसन्न हो के इसको अपने साथ मिलाता है; जिस जीव-स्त्री के मन में प्रभू का नाम टिक जाए वह (इस नाम-श्रृंगार से) सदा सजी रहती है और कभी (विकारों की उसे) रक्ती भर मैल नहीं लगती। उस जीव-स्त्री के कामादिक विकार समाप्त हो जाते हैं, माया का भी कोई दबाव उस पर नहीं रह जाता।

हे नानक! (प्रभू पति को मन में बसा के) अगर जीव-स्त्री पति-प्रभू को अच्छी लगे तो उसके माथे के भाग्यों की टीका (समझें) उसे हर जगह सच्चा प्रभू ही (दिखता है)।1।

मः ४ ॥ सोरठि तामि सुहावणी जा हरि नामु ढंढोले ॥ गुर पुरखु मनावै आपणा गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥ {पन्ना 642}

पद्अर्थ: तामि = तब। प्रेमि = प्रेम से। कसाई = कसी हुई, खिंची हुई। चोला = शरीर।

अर्थ: सोरठि रागिनी तभी सुंदर है, जब (इसके द्वारा जीव-स्त्री) हरी के नाम की खोज करे, अपने बड़े पति हरी को प्रसन्न करे और सतिगुरू की शिक्षा ले के प्रभू का सिमरन करे; दिन रात हरी के प्रेम में खिंची हुई अपने (शरीर रूपी) चोले को हरी के रंग में रंगे रखे।

हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥ {पन्ना 642}

अर्थ: मैंने सारा संसार तलाश के देख लिया है परमात्मा जैसा कोई पुरुष नहीं मिला।

गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जनु नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गोल गोले ॥२॥ {पन्ना 642}

पद्अर्थ: अनत = किसी और तरफ़ से। गोल गोले = गोलों का गोला, दासों का दास।

अर्थ: गुरू सतिगुरू ने हरी का नाम (मेरे हृदय में) दृढ़ किया है, (इसलिए अब) मेरा मन कहीं डोलता नहीं, दास नानक प्रभू का दास है और गुरू सतिगुरू के दासों का दास है।

पउड़ी ॥ तू आपे सिसटि करता सिरजणहारिआ ॥ तुधु आपे खेलु रचाइ तुधु आपि सवारिआ ॥ दाता करता आपि आपि भोगणहारिआ ॥ सभु तेरा सबदु वरतै उपावणहारिआ ॥ हउ गुरमुखि सदा सलाही गुर कउ वारिआ ॥१॥ {पन्ना 642}

पद्अर्थ: सबदु = हुकम, जीवन रौंअ। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।

अर्थ: हे सृजनहार! तू खुद ही संसार को रचने वाला है; (संसार रूप) खेल बना के तूने खुद ही इसे सुंदर बनाया है; संसार रचने वाला तू खुद ही है। इसे दातें बख्शने वाला भी तू स्वयं ही है, उन दातों को भोगने वाला भी तू खुद ही है; हे पैदा करने वाले! सब जगह तेरी जीवन रौंअ बरत रही है। (पर) मैं अपने सतिगुरू से सदके हूँ जिसके सन्मुख हो के तेरी सिफत सालाह सदा कर सकता हूँ।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh