श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 675 धनासरी महला ५ ॥ मेरा लागो राम सिउ हेतु ॥ सतिगुरु मेरा सदा सहाई जिनि दुख का काटिआ केतु ॥१॥ रहाउ ॥ हाथ देइ राखिओ अपुना करि बिरथा सगल मिटाई ॥ निंदक के मुख काले कीने जन का आपि सहाई ॥१॥ साचा साहिबु होआ रखवाला राखि लीए कंठि लाइ ॥ निरभउ भए सदा सुख माणे नानक हरि गुण गाइ ॥२॥१७॥ {पन्ना 675} पद्अर्थ: लागो = लग गया। सिउ = से। हेतु = प्यार। सहाई = मददगार। जिनि = जिस (गुरू) ने। केतु = चोटी वाला तारा जो मनहूस समझा जाता है, झण्डा।1। रहाउ। देइ = दे के। करि = बना के। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दर्द। सगल = सारी। निंदक के मुख = निंदकों के मुँह। जन = सेवक।1। सारा = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले से। माणे = इस्तेमाल करे, भोगे। सुख = आत्मिक आनंद। गाइ = गा के।2। अर्थ: हे भाई! जिस गुरू ने (शरण आए हरेक मनुष्य का) चोटी वाला तारा ही सदा के लिए काट दिया है (जो गुरू हरेक शरण आए मनुष्य के दुखों की जड़ ही काट देता है), वह गुरू मेरा भी सदा के लिए मददगार बन गया है (और, उसकी कृपा से) मेरा परमात्मा से प्यार बन गया है।1। रहाउ। (हे भाई! वह परमात्मा अपने सेवकों को अपना) हाथ दे के (दुखों से) बचाता है, (सेवकों को) अपने बना के उनका सारा दुख-दर्द मिटा देता है। परमात्मा अपने सेवकों का आप मददगार बनता है, और, उनकी निंदा करने वालों का मुँह काला करता है।1। हे नानक! सदा कायम रहने वाला मालिक (अपने सेवकों का स्वयं) रक्षक बनता है, उनको अपने गले से लगा के रखता है। परमात्मा के सेवक परमात्मा के गुण गा-गा के, और सदा आत्मिक आनंद पा कर (दुख-कलेशों से) निडर हो जाते हैं।2।17। धनासिरी महला ५ ॥ अउखधु तेरो नामु दइआल ॥ मोहि आतुर तेरी गति नही जानी तूं आपि करहि प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ ॥ धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे दुतीआ भाउ निवारि ॥ बंधन काटि लेहु अपुने करि कबहू न आवह हारि ॥१॥ तेरी सरनि पइआ हउ जीवां तूं सम्रथु पुरखु मिहरवानु ॥ आठ पहर प्रभ कउ आराधी नानक सद कुरबानु ॥२॥१८॥ {पन्ना 675} पद्अर्थ: अउखधु = औषधि, दवा। दइआल = हे दया के घर! आतुर = दुखी। मोहिह आतुर = मैं दुखी ने। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। करहि = तू करता है।1। रहाउ। अनुग्रहु = कृपा। दुतीआ भाउ = दूसरा भाव, मेर तेर, माया का मोह। निवारि = दूर कर। काटि = काट के। करि लेहु = बना ले। आवह = हम आएं। हारि = हार के।1। हउ जीवां = मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ। संम्रथु = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। कउ = को। आराधी = मैं आराधता रहूँ। सद = सदा।2। अर्थ: हे दया के घर प्रभू! तेरा नाम (मेरे हरेक रोग की) दवा है, पर, मुझ दुखी ने समझा ही नहीं कि तू कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, (फिर भी) तू खुद मेरी पालना करता है।1। रहाउ। हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर (मेरे अंदर से) माया का मोह दूर कर। हे प्रभू! हमारे (माया के मोह के) बँधन काट के हमें अपने बना लो, हम कभी (मानस जनम की बाजी) हार के ना आएं।1। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) तेरी शरण पड़ कर मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ (मुझे अपनी शरण में रख) तू सारी शक्तियों का मालिक है, तू सर्व-व्यापक है, तू (सब पर) दया करने वाला है। (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) मैं आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रहूँ, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।2।18। रागु धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हा हा प्रभ राखि लेहु ॥ हम ते किछू न होइ मेरे स्वामी करि किरपा अपुना नामु देहु ॥१॥ रहाउ ॥ अगनि कुट्मब सागर संसार ॥ भरम मोह अगिआन अंधार ॥१॥ ऊच नीच सूख दूख ॥ ध्रापसि नाही त्रिसना भूख ॥२॥ मनि बासना रचि बिखै बिआधि ॥ पंच दूत संगि महा असाध ॥३॥ जीअ जहानु प्रान धनु तेरा ॥ नानक जानु सदा हरि नेरा ॥४॥१॥१९॥ {पन्ना 675} पद्अर्थ: हा हा = हाय हाय। प्रभ = हे प्रभू! हम ते = हम जीवों से। स्वामी = हे स्वामी!1। रहाउ। सागर = समुंद्र। अगनि = आग। कुटंब = परिवार (का मोह)। भरम = भटकना। अगिआन = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। अंधार = अंधेरे।1। ऊच = मन का ऊँचा हो जाना, अहंकार। नीच = गिरती कला में सोच, विचारों का ढलान की ओर होना। ध्रापसि नाही = अघाता नहीं, तृप्त नहीं होता।2। म्नि = मन में। बासना = वासना। रचि = रच के, बना के। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = रोग। दूत = वैरी। संगि = साथ। असाध = काबू ना आ सकने वाले।3। जीअ = सारे जीव (‘जीउ’ का बहुवचन)। नानक = हे नानक! जानु = समझ। नेरा = नजदीक।4। अर्थ: हे प्रभू! हमें बचा ले, हमें बचा ले। हे मेरे मालिक! (इन विकारों से बचने के लिए) हम जीवों से कुछ नहीं हो सकता। मेहर कर! अपना नाम बख्श!।1। रहाउ। हे प्रभू! ये संसार-समुंद्र परिवार (के मोह) की आग (से भरा पड़ा) है। भटकना, माया का मोह, आत्मिक जीवन से बेसमझी- ये सारे घुप अंधकार बनाए हुए हैं।1। हे प्रभू! दुनिया के सुख मिलने से जीव को अहंकार पैदा हो जाता है, दुख मिलने पर वह ढलती सोच वाली हालत में जाता है। जीव (माया से किसी भी समय) तृप्त नहीं होता, इसे माया की प्यास माया की भूख चिपकी रहती है।2। हे प्रभू! जीव अपने मन में वासनाएं खड़ी करके विषौ-विकारों के कारण रोग सहेड़ लेता है। ये बड़े आकी (कामादिक) पाँचो वैरी इसके साथ चिपके रहते हैं।3। हे नानक! (अगर इन वैरियों से बचना है, तो) परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ (उसके आगे अरदास किया कर- हे प्रभू!) ये सारे जीव, ये जगत, ये धन, जीवों के प्राण - ये सब कुछ तेरा ही रचा हुआ है (तू ही विकारों से बचाने के समर्थ है)।4।1।19। नोट: अंक 1 बताता है कि ‘महला ५’ के शबदों का ये एक नया संग्रह है। धनासरी महला ५ ॥ दीन दरद निवारि ठाकुर राखै जन की आपि ॥ तरण तारण हरि निधि दूखु न सकै बिआपि ॥१॥ साधू संगि भजहु गुपाल ॥ आन संजम किछु न सूझै इह जतन काटि कलि काल ॥ रहाउ ॥ आदि अंति दइआल पूरन तिसु बिना नही कोइ ॥ जनम मरण निवारि हरि जपि सिमरि सुआमी सोइ ॥२॥ बेद सिम्रिति कथै सासत भगत करहि बीचारु ॥ मुकति पाईऐ साधसंगति बिनसि जाइ अंधारु ॥३॥ चरन कमल अधारु जन का रासि पूंजी एक ॥ ताणु माणु दीबाणु साचा नानक की प्रभ टेक ॥४॥२॥२०॥ {पन्ना 675} पद्अर्थ: दीन = गरीब, अनाथ। निवारि = दूर करके। जन = सेवक। राखै = लाज रखता है। तरण = जहाज। निधि = खजाना। न सकै बिआपि = व्याप नहीं सकता।1। साधू संगि = गुरू की संगति में। गोपाल = धरती का पालने वाला। आन = (अन्य) कोई और। संजम = जुगति। कटि = काट ले। कलि काल = संसार की कल्पना, जगत के झमेले। रहाउ। आदि = शुरू से। अंति = आखिर में। आदि अंति = जगत के आरम्भ से लेकर आखीर तक, सदा ही। दइआल = दया का घर। पूरन = सर्व व्यापक। निवारि = दूर कर ले। जपि = जप के। सोइ = वही।2। करहि = करते हैं। मुकति = (जगत के झगड़ों झमेलों से) खलासी। अंधारु = अंधेरा।3। अधारु = आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला।4। अर्थ: हे भाई! गुरू की संगति में (रह के) परमात्मा का नाम जपा कर। इन यत्नों से ही संसार के झमेलों के फंदों को काट। (मुझे इसके बिना) और कोई युक्ति नहीं सूझती। रहाउ। हे भाई! परमात्मा अनाथों के दुख दूर करके अपने सेवकों की लाज स्वयं रखता है। वह प्रभू (संसार समुंद्र से पार) लंघाने के लिए (जैसे) जहाज है, वह हरी सारे सुखों का खजाना है, (उसकी शरण पड़ने से कोई) दुख व्याप नहीं सकता।1। हे भाई! जो दया का घर, सर्व-व्यापक प्रभू हमेशा ही (जीवों के सिर पर रखवाला) है और उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं उसी मालिक का नाम सदा सिमरा कर, उसी हरी का नाम जप के अपने जनम-मरण के चक्कर दूर कर।2। हे भाई! वेद-स्मृति-शास्त्र (हरेक धर्म पुस्तक जिस परमात्मा का) वर्णन करती है, भक्त जन (भी जिस परमात्मा के गुणों के) विचार करते हैं, साध-संगति में (उसका नाम सिमर के जगत के झमेलों से) निजात मिलती है, (माया के मोह के) अंधेरे दूर हो जाते हैं।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण ही भक्तों (के आत्मिक जीवन) की राशि-पूँजी है, परमात्मा की ओट ही उनका बल है, सहारा है, सदा कायम रहने वाला आसरा है।4।2।20। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |