श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ ॥ जिनि तुम भेजे तिनहि बुलाए सुख सहज सेती घरि आउ ॥ अनद मंगल गुन गाउ सहज धुनि निहचल राजु कमाउ ॥१॥ तुम घरि आवहु मेरे मीत ॥ तुमरे दोखी हरि आपि निवारे अपदा भई बितीत ॥ रहाउ ॥ प्रगट कीने प्रभ करनेहारे नासन भाजन थाके ॥ घरि मंगल वाजहि नित वाजे अपुनै खसमि निवाजे ॥२॥ असथिर रहहु डोलहु मत कबहू गुर कै बचनि अधारि ॥ जै जै कारु सगल भू मंडल मुख ऊजल दरबार ॥३॥ जिन के जीअ तिनै ही फेरे आपे भइआ सहाई ॥ अचरजु कीआ करनैहारै नानक सचु वडिआई ॥४॥४॥२८॥ {पन्ना 678}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तुम = तुझे (हे जिंदे!)। तिनहि = उसी ने ही। बुलाऐ = (अपनी ओर) प्रेरणा की है। सहज सेती = आत्मिक अडोलता से। घरि = धर में, हृदय में, स्वै स्वरूप में। आउ = आ, टिका रह। मंगल = खुशी। धुनि = रौं। निहचल राजु = अटॅल हुकम।1।

मेरे गीत = हे मेरे मित्र! दोखी = (कामादिक) वैरी। निवारे = दूर कर दिए हैं। अपदा = मुसीबत। रहाउ।

करनेहार = सब कुछ कर सकने वाले ने। नासन भाजन = भटकना। घरि = हृदय में। वाजहि = बजते हैं। खसमि = पति ने। निवाजे = आदर मान दिया।2।

कबहू = कभी भी। कै बचनि = के वचन में। कै अधारि = के आसरे में। जै जै कारु = शोभा। भू मण्डल = सृष्टि। ऊजल = रौशन।3।

जिस के = जिस प्रभू जी के (शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, आदर सत्कार के रूप में बरता गया है। जैसे, ‘प्रभ जी बसहि साध की रसना’)। जीअ = (शब्द ‘जीव’ का बहुवचन) सारे जीव। फेरे = चक्कर। सहाई = मददगार। अचरजु = अनोखा खेल। सचु = सदा स्थिर।4।

अर्थ: मेरे मित्र (मन)! (अब) तू हृदय-घर में टिका रह (आ जा)। परमात्मा ने खुद ही (कामादिक) तेरे वैरी दूर कर दिए हैं, (कामादिक वैरियों से पड़ रही मार की) विपदा (अब) समाप्त हो गई है। रहाउ।

(हे मेरी जिंदे!) जिसने तुझे (संसार में) भेजा है, उसने तुझे अपनी ओर प्रेरित करना आरम्भ किया हुआ है, तू आनंद से आत्मिक अडोलता से हृदय-घर में टिका रह। हे जिंदे! आत्मिक अडोलता की रौंअ में, आनंद-खुशी पैदा करने वाले हरी-गुण गाया कर (इस तरह कामादिक वैरियों पर) अटल राज कर।1।

(हे मेरी जिंदे!) सब कुछ कर सकने वाले पति-प्रभू ने जिन पर मेहर की, उनके अंदर उसने अपना आप प्रगट कर दिया, उनकी भटकनें खत्म हो गई, उनके हृदय-घर में आत्मिक आनंद के (मानो) बाजे सदा बजने लग जाते हैं।2।

(हे जिंदे!) गुरू के उपदेश पर चल के, गुरू के आसरे रह के, तू भी (कामादिक वैरियों की टक्कर में) मजबूती से खड़ा हो जा, देखना, कभी भी डोलना नहीं। सारी सृष्टि में शोभा होगी, प्रभू की हजूरी में तेरा मुँह उज्जवल होगा।3।

हे नानक! जिस प्रभू जी ने जीव पैदा किए हुए हैं, वह स्वयं ही इनको (विकारों से) बचाता है, वह खुद ही मददगार बनता है। सब कुछ कर सकने वाले परमात्मा ने ये अनोखी खेल बना दी है, उसकी महिमा सदा कायम रहने वाली है।4।4।28।

धनासरी महला ५ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सुनहु संत पिआरे बिनउ हमारे जीउ ॥ हरि बिनु मुकति न काहू जीउ ॥ रहाउ ॥ मन निरमल करम करि तारन तरन हरि अवरि जंजाल तेरै काहू न काम जीउ ॥ जीवन देवा पारब्रहम सेवा इहु उपदेसु मो कउ गुरि दीना जीउ ॥१॥ तिसु सिउ न लाईऐ हीतु जा को किछु नाही बीतु अंत की बार ओहु संगि न चालै ॥ मनि तनि तू आराध हरि के प्रीतम साध जा कै संगि तेरे बंधन छूटै ॥२॥ गहु पारब्रहम सरन हिरदै कमल चरन अवर आस कछु पटलु न कीजै ॥ सोई भगतु गिआनी धिआनी तपा सोई नानक जा कउ किरपा कीजै ॥३॥१॥२९॥ {पन्ना 678}

पद्अर्थ: संत पिआरे = हे संत प्यारे जनों! बिनउ = विनय, विनती। मुकति = (माया के बंधनों से) खलासी। काहू = किसी की भी। रहाउ।

मन = हे मन! तरन = जहाज। अवरि = (‘अवर’ का बहुवचन) अन्य। देवा = प्रकाश रूप। सेवा = भक्ति। मो कउ = मुझे। गुरि = गुरू ने।1।

सिउ = से। हीतु = हित, प्यार। जा को बीतु = जिसका विक्त, जिसकी सीमा। बार = बारी। संगि = साथ। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। साध = संत जन। जा कै संगि = जिनकी संगति में। छूटै = खत्म हो सकते हैं।2।

गहु = पकड़। हिरदै = हृदय में (समा के)। कमल चरन = फूल जैसे कोमल चरण। पटलु = पर्दा, आसरा। कीजै = करना चाहिए। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला। धिआनी = प्रभू चरनों में सुरति जोड़ के रखने वाला। तपा = तप करने वाला।3।

अर्थ: हे प्यारे संत जनो! मेरी विनती सुनो, परमात्मा (के सिमरन) के बिना (माया के बँधनों से) किसी की भी खलासी नहीं होती। रहाउ।

हे मन! (जीवन को) पवित्र करने वाले (हरी सिमरन के) काम किया कर, परमात्मा (का नाम ही संसार-समुंद्र से) पार लंघाने के लिए जहाज है। (दुनिया के) और सारे जंजाल तेरे किसी भी काम नहीं आने वाले। प्रकाश-रूप परमात्मा की सेवा-भक्ति ही (असल) जीवन है– ये शिक्षा मुझे गुरू ने दी है।1।

हे भाई! उस (धन-पदार्थ) से प्यार नहीं डालना चाहिए, जिसकी कोई पायां नहीं। वह (धन-पदार्थ) आखिर के वक्त साथ नहीं जाता। अपने मन में हृदय में तू परमात्मा का नाम सिमरा कर। परमात्मा से प्यार करने वाले संत जनों (की संगति किया कर), क्योंकि उन (संत जनों की) संगति में तेरे (माया के) बँधन समाप्त हो सकते हैं।2।

हे भाई! परमात्मा का आसरा ले, (अपने) हृदय में (परमात्मा के) कोमल चरण (बसा) (परमात्मा के बिना) किसी और की आस नहीं करनी चाहिए, कोई और आसरा नहीं ढूँढना चाहिए। हे नानक! वही मनुष्य भक्त है, वही ज्ञानवान है, वही सुरति-अभ्यासी है, वही तपस्वी है, जिस पर परमात्मा कृपा करता है।3।1।29।

धनासरी महला ५ ॥ मेरे लाल भलो रे भलो रे भलो हरि मंगना ॥ देखहु पसारि नैन सुनहु साधू के बैन प्रानपति चिति राखु सगल है मरना ॥ रहाउ ॥ चंदन चोआ रस भोग करत अनेकै बिखिआ बिकार देखु सगल है फीके एकै गोबिद को नामु नीको कहत है साध जन ॥ तनु धनु आपन थापिओ हरि जपु न निमख जापिओ अरथु द्रबु देखु कछु संगि नाही चलना ॥१॥ जा को रे करमु भला तिनि ओट गही संत पला तिन नाही रे जमु संतावै साधू की संगना ॥ पाइओ रे परम निधानु मिटिओ है अभिमानु एकै निरंकार नानक मनु लगना ॥२॥२॥३०॥ {पन्ना 678}

पद्अर्थ: लाल = हे लाल! हे प्यारे! भलो = अच्छा। रे = हे भाई! पसारि नैन = आँखें खोल के। साधू = गुरू। बैन = बचन। प्रानपति = जिंद का मालिक। चिति = चिक्त में। सगल = सबमें। रहाउ।

चोआ = इत्र। बिखिआ = माया। है = है। फीके = बेस्वाद। को = का। नीको = अच्छा, सुंदर। आपन थापिआ = (तूने) अपना मिथ लिया है। निमख = आँख झपके जितना समय (निमेष)। अरथु = अर्थ,धन। द्रबु = द्रव्य, धन। संगि = साथ।1।

जा को भला करमु = जिसकी अच्छी किस्मत। तिनि = उस (मनुष्य) ने। ओट = आसरा। गही = पकड़ी, ली। पला = पल्ला। तिन = उन्होंने (बहुवचन)। निधानु = खजाना। ऐकै निरंकार = एक निरंकार में।2।

अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे भाई! (परमात्मा के दर से) परमात्मा (का नाम) मांगना सबसे अच्छा काम है। हे सज्जन! गुरू की बाणी (हमेशा) सुनते रहो, जिंद के मालिक प्रभू को अपने दिल में बसाए रखो। आँखें खोल के देखो, (आखिर) सबने मरना है। रहाउ।

हे सज्जन! तू चंदन-इत्र का प्रयोग करता है और अनेकों ही स्वादिष्ट खाने खाता है। पर, देख, ये विकार पैदा करने वाले सारे ही मायावी भोग फीके हैं। संत जन कहते हैं कि सिर्फ परमात्मा का नाम ही अच्छा है। तू इस शरीर का, इस धन को अपना समझ रहा है, (इनके मोह में फंस के) परमात्मा का नाम तू एक छिन भर भी नहीं जपता। देख, ये धन-पदार्थ कुछ भी (तेरे) साथ नहीं जाएगा।

हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य अच्छे हुए, उसने संतों का आसरा लिया, उसने संतों का पल्ला पकड़ा। हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में रहते हैं, उन्हें मौत का डर नहीं सता सकता।

हे नानक! जिस मनुष्य का मन सिर्फ परमात्मा में जुड़ा रहता है उसने सबसे बढ़िया खजाना पा लिया उसके अंदर से अहंकार मिट गया।2।2।30।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh