श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पड़े रे सगल बेद नह चूकै मन भेद इकु खिनु न धीरहि मेरे घर के पंचा ॥ कोई ऐसो रे भगतु जु माइआ ते रहतु इकु अम्रित नामु मेरै रिदै सिंचा ॥३॥ जेते रे तीरथ नाए अह्मबुधि मैलु लाए घर को ठाकुरु इकु तिलु न मानै ॥ कदि पावउ साधसंगु हरि हरि सदा आनंदु गिआन अंजनि मेरा मनु इसनानै ॥४॥ सगल अस्रम कीने मनूआ नह पतीने बिबेकहीन देही धोए ॥ कोई पाईऐ रे पुरखु बिधाता पारब्रहम कै रंगि राता मेरे मन की दुरमति मलु खोए ॥५॥ {पन्ना 687}

पद्अर्थ: रे = हे भाई! सगल = सारे। चूकै = समाप्त होता। भेद = दूरी। धीरहि = धीरज करते। पंचा = ज्ञानेन्द्रियां। रहतु = निर्लिप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदै = हृदय में। सिंचा = सींच दे।3।

जेते = जितने ही। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। घर को ठाकुरु = हृदय घर का मालिक प्रभू। मानै = मानता, पतीजता। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। संगु = साथ, मिलाप। अंजनि = सुरमे से।4।

आस्रम = सारी उम्र के चार हिस्सों के अलग-अलग धर्म (ब्रहमचर्य आश्रम, गृहस्त आश्रम, वामप्रस्थ आश्रम व संयास आश्रम, ये हैं चार आश्रम)। बिबेकहीन = विचारों से वंचित। देही = शरीर। बिधाता = करतार। के रंगि = के प्रेम में। राता = रंगा हुआ।5।

अर्थ: हे भाई! सारे वेद पढ़ के देखे हैं, (इनके पढ़ने से परमात्मा से बरकरार) मन की दूरी समाप्त नहीं होती, (वेद आदि को पढ़ने से) ज्ञान-इन्द्रियां एक पल के लिए भी शांत नहीं होती। हे भाई! कोई ऐसा भगत (मिल जाए) जो (स्वयं) माया से निर्लिप हो (वही भक्त) मेरे हृदय को आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल (अमृत) से सींच सकता है।3।

हे भाई! जितने भी तीर्थ हैं अगर उन पर स्नान किया जाए, वह स्नान बल्कि मन में अहंकार की मैल चढ़ा देते हैं, (इन तीर्थ-स्नानों से) परमात्मा जरा सा भी प्रसन्न नहीं होता। (मेरी तो तमन्ना ये है कि) कभी मैं भी साध-संगति प्राप्त कर सकूँ, (साध-संगति की बरकति से मन में) सदा आत्मिक आनंद बना रहे, और, मेरा मन ज्ञान के अंजन से (अपने आप को) पवित्र कर ले।4।

हे भाई! सारे ही आश्रमों के धर्म कमाने से भी मन नहीं पतीजता। विचार-हीन मनुष्य सिर्फ शरीर को ही साफ-सुथरा करते रहते हैं। हे भाई! (मेरी ये लालसा है कि) परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा हुआ, परमात्मा का रूप कोई महापुरुष मिल जाए, तो वह मेरे मन की बुरी मति की मैल दूर कर दे।5।

करम धरम जुगता निमख न हेतु करता गरबि गरबि पड़ै कही न लेखै ॥ जिसु भेटीऐ सफल मूरति करै सदा कीरति गुर परसादि कोऊ नेत्रहु पेखै ॥६॥ मनहठि जो कमावै तिलु न लेखै पावै बगुल जिउ धिआनु लावै माइआ रे धारी ॥ कोई ऐसो रे सुखह दाई प्रभ की कथा सुनाई तिसु भेटे गति होइ हमारी ॥७॥ सुप्रसंन गोपाल राइ काटै रे बंधन माइ गुर कै सबदि मेरा मनु राता ॥ सदा सदा आनंदु भेटिओ निरभै गोबिंदु सुख नानक लाधे हरि चरन पराता ॥८॥ सफल सफल भई सफल जात्रा ॥ आवण जाण रहे मिले साधा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥ {पन्ना 687}

पद्अर्थ: करम धरम = मिथे हुए धार्मिक कर्म। करम धरम जुगता = (तीर्थ स्नान आदि मिथे हुए) धार्मिक कर्मों में फंसे हुए। निमख = आँख झपकने जितना समय। हेतु = (प्रभू से) प्रेम। गरबि गरबि = बार बार अहंकार में। पड़ै = पड़ता है। जिसु = जिस मनुष्य को। भेटीअै = मिलता है। सफल मूरति = वह गुरू जिसकी हस्ती सारे फल देती है। कीरति = सिफत सालाह। परसादि = कृपा से।6।

हठि = हठ से। तिल = रक्ती भर भी। बगुल = बगुला। माइआ धारी = अपने मन में माया का ही मोह टिका के रखने वाला। सुखह दाई = आत्मिक आनंद देने वाला। तिसु भेटे = उसको मिलने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।7।

गोपाल राइ = प्रभू पातशाह। रे = हे भाई! माइ = माया (के)। कै सबदि = के शबद में। राता = मगन। पराता = पड़ के।8।

जात्रा = मानस जनम की यात्रा। रहे = समाप्त हो गए। मिले = मिल के। साधा = साधु, गुरू (को)।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (तीर्थ-स्नान आदि मिथे हुए) धार्मिक कर्मों में ही व्यस्त रहता है, जरा से वक्त के लिए भी परमात्मा को प्यार नहीं करता, (वह इन किए कर्मों के आसरे) बार-बार अहंकार में टिका रहता है, (इन किए धार्मिक कर्मों में कोई भी कर्म उसके) किसी के काम नहीं आता। हे भाई! जिस मनुष्य को वह गुरू मिल जाता है जो सारी मुरादें पूरी करने वाला है और जिसकी कृपा से मनुष्य सदा परमात्मा की सिफत सालाह करता है, उसकी कृपा से कोई भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को अपनी आँखों से (हर जगह बसता) देख लेता है।6।

हे भाई! जो मनुष्य मन के हठ से (तप आदि मेहनत) करता है, (परमात्मा उसकी इस मेहनत को) जरा सा भी परवान नहीं करता (क्योंकि) हे भाई! वह मनुष्य तो बगुले की तरह ही समाधि लगा रहा होता है; अपने मन में वह माया का मोह ही टिकाए रखता है। हे भाई! अगर कोई ऐसा आत्मिक-आनंद का दाता मिल जाए, जो हमें परमात्मा के सिफत सालाह की बातें सुनाए, तो उसको मिल के हमारी आत्मिक अवस्था ऊँची हो सकती है।7।

हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभू-पातशाह दयालु होता है, (गुरू उसके) माया के बँधन काट देता है। हे भाई! मेरा मन (भी) गुरू के शबद में (ही) मगन रहता है। हे नानक! (गुरू की कृपा से जिस मनुष्य को) सारे डरों से रहित गोबिंद मिल जाता है, उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, परमात्मा के चरणों में लीन रह के वह मनुष्य सारे सुख प्राप्त कर लेता है।8।

(हे भाई! गुरू के दर पर पड़ने से) मानस-जीवन वाली यात्रा सफल हो जाती है। गुरू को मिल के जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ दूजा।1।3।

नोट: से १ अष्टपदी महला ५ की है। महला १ की दो अष्टपदियां हैं। कुल जोड़ 3 बना।

धनासरी महला १ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥ तीरथु सबद बीचारु अंतरि गिआनु है ॥ गुर गिआनु साचा थानु तीरथु दस पुरब सदा दसाहरा ॥ हउ नामु हरि का सदा जाचउ देहु प्रभ धरणीधरा ॥ संसारु रोगी नामु दारू मैलु लागै सच बिना ॥ गुर वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥ साचि न लागै मैलु किआ मलु धोईऐ ॥ गुणहि हारु परोइ किस कउ रोईऐ ॥ वीचारि मारै तरै तारै उलटि जोनि न आवए ॥ आपि पारसु परम धिआनी साचु साचे भावए ॥ आनंदु अनदिनु हरखु साचा दूख किलविख परहरे ॥ सचु नामु पाइआ गुरि दिखाइआ मैलु नाही सच मने ॥२॥ संगति मीत मिलापु पूरा नावणो ॥ गावै गावणहारु सबदि सुहावणो ॥ सालाहि साचे मंनि सतिगुरु पुंन दान दइआ मते ॥ पिर संगि भावै सहजि नावै बेणी त संगमु सत सते ॥ आराधि एकंकारु साचा नित देइ चड़ै सवाइआ ॥ गति संगि मीता संतसंगति करि नदरि मेलि मिलाइआ ॥३॥ कहणु कहै सभु कोइ केवडु आखीऐ ॥ हउ मूरखु नीचु अजाणु समझा साखीऐ ॥ सचु गुर की साखी अम्रित भाखी तितु मनु मानिआ मेरा ॥ कूचु करहि आवहि बिखु लादे सबदि सचै गुरु मेरा ॥ आखणि तोटि न भगति भंडारी भरिपुरि रहिआ सोई ॥ नानक साचु कहै बेनंती मनु मांजै सचु सोई ॥४॥१॥ {पन्ना 687-688}

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। जाउ = मैं जाता हूँ। सबद बीचारु = शबद की विचार। अंतरि = अंदर, मन में। गिआनु = परमात्मा से जान पहचान। साचा = सदा-स्थिर रहने वाला। दस पुरब = दस पवित्र दिन (मसिआ, संगरांद, पूरनमासी, प्रकाश ऐतवार, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, दो अष्टमियां, दो चौदवीं)। दसाहरा = दस पाप हरने वाला दिन, जेठ सुदी दसमी, गंगा का जनम दिन। हउ = मैं। जाचउ = माँगता हूँ। धरणीधरा = (धरणी = धरती। धर = आसरा) हे धरती के आसरे प्रभू! साचु = सदा स्थिर रहने वाला। मजना = स्नान।1।

साचि = सदा-स्थिर प्रभू के नाम में (जुड़ने से)। किआ धोईअै = (तीर्थों आदि पर जा के) धोने की जरूरत नहीं रहती। गुणहि हारु = गुणों का हार। परोइ = परो के। किस कउ रोईअै = किस के आगे रोएं? किसी के आगे पुकार करने की जरूरत नहीं रहती। वीचारि = गुरू के शबद के विचार से। उलटि = दोबारा। आवऐ = आता। पारसु = धातुओं को सोना बना देने वाली पथरी। परम धिआनी = बहुत ऊँची सुरति का मालिक। साचु = सदा स्थिर प्रभू का रूप। भावऐ = पसंद आ जाता है। अनदिनु = हर रोज। हरखु = खुशी। किलविख = पाप। परहरे = दूर कर लेता है। गुरि = गुरू ने । सच मने = सदा स्थिर नाम को जपने वाले मन को।2।

मीत मिलापु = मित्र प्रभू का मिलाप। नावणो = नहाना, स्नान। गावणहारु = गाने योग्य प्रभू। सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ के)। सुहावणो = सुंदर जीवन वाला। सालाहि = सिफत सालाह करके। मंनि = मान के, श्रद्धा रख के। मते = मति। पिर संगि = पति प्रभू की संगति में। भावै = (प्रभू को) प्यारा लगता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बेणी संगमु = त्रिवेणी जंगम, तीन नदियों (गंगा-यमुना-सरस्वती) के मिलाप की जगह, प्रयाग (इलाहावबाद के नजदीक)। सत सते = स्वच्छ से स्वच्छ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। देइ = देता है (जो प्रभू)। चढ़ै सवाइआ = (उसका दिया हुआ) दिनो दिन बढ़ता है। करि = कर के। मेलि = संगति में।3।

कहणु = कथन। कहणु कहै = कथन कथे। सभु कोइ = हरेक जीव। केवडु = कितना बड़ा। केवडु आखीअै = कितना बड़ा कहा जा सकता है कि परमात्मा कितना बड़ा है। हउ = मैं। समझा = मैं समझ सकता हूँ। साखीअै = गुरू के उपदेश से। साखी = शिक्षा, उपदेश, शबद। अंम्रित साखी = आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश। गुरू की भाखी साखी = गुरू का उचारा हुआ शबद। सचु साखी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का शबद। तितु = उस शबद में। बिखु = (माया मोह का) जहर। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद से। आखणि = कहने से, बयान करने से। तोटि = खात्मा, कमी। भंडारी = भंडारों में। भरिपुरि रहिआ = हर जगह मौजूद है। सोई = वह (प्रभू) ही। साचु कहै = सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरता है। कहै बेनंती = अरदासें करता है। मांजै = साफ करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सचु सोई = सदा स्थिर प्रभू ही (हर जगह दिखाई देता है)।4।

अर्थ: मैं (भी) तीर्थों पर स्नान करने जाता हूँ (पर मेरे वास्ते परमात्मा का) नाम (ही) तीर्थ है। गुरू के शबद को विचार-मण्डल में टिकाना (मेरे लिए) तीर्थ है (क्योंकि इसकी बरकति से) मेरे अंदर परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनती है। सतिगुरू का दिया हुआ ये ज्ञान मेरे वास्ते सदा कायम रहने वाला तीर्थ-स्थान है, मेरे लिए दसों पवित्र दिन हैं, मेरे लिए गंगा का जन्म-दिन है। मैं तो सदा प्रभू का नाम ही माँगता हूँ और (अरदास करता हूँ-) हे धरती के आसरे प्रभू! (मुझे अपना नाम) दे। जगत (विकारों में) रोगी हुआ पड़ा है, परमात्मा का नाम (इन रोगों का) इलाज है। सदा-स्थिर प्रभू के नाम के बिना (मन को विकारों की) मैल लग जाती है। गुरू का पवित्र शबद (मनुष्य को) सदा (आत्मिक) प्रकाश (देता है, यही) नित्य सदा कायम रहने वाला तीर्थ है, यही तीर्थ स्नान है।1।

सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ने से मन को (विकारों की) मैल नहीं लगती, (फिर तीर्थ आदि पर जा के) कोई मैल धोने की आवश्यक्ता नहीं रहती। परमात्मा के गुणों का हार (हृदय में) परो के किसी के आगे पुकार करने की भी जरूरत नहीं रहती।

जो मनुष्य गुरू के शबद के विचार द्वारा (अपने मन को विकारों की ओर से) मार लेता है, वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है, (औरों को भी) पार लंघा लेता है, वह दोबारा (के चक्कर) में नहीं आता। वह मनुष्य आप पारस बन जाता है, बड़ी ही ऊँची सुरति का मालिक हो जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभू का रूप बन जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभू को प्यारा लगने लग पड़ता है। उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, सदा-स्थिर रहने वाली खुशी पैदा हो जाती है, वह मनुष्य अपने (सारे) दुख-पाप दूर कर लेता है।

जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभू का नाम प्राप्त कर लिया, जिसको गुरू ने (प्रभू) दिखा दिया, उसके सदा-स्थिर नाम जपते मन को कभी विकारों की मैल नहीं लगती।2।

साध-संगति में मित्र-प्रभू का मिलाप हो जाना - यही वह तीर्थ-स्नान है जिसमें कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के गाने-योग्य प्रभू (के गुण) गाता है उसका जीवन सुंदर बन जाता है। सतिगुरू को (जीवन-दाता) मान के सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करके मनुष्य की मति दूसरों की सेवा करने वाली सब पर दया करने वाली बन जाती है। (सिफत सालाह की बरकति से मनुष्य) पति-प्रभू की संगति में रह के उसको प्यारा लगने लग जाता है आत्मिक अडोलता में (मानो आत्मिक) स्नान करता है; यही उसके लिए स्वच्छ से स्वच्छ त्रिवेणी संगम (का स्नान) है।

(हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले एक अकालपुरुख को सिमर, जो सदा (सब जीवों को दातें) देता है और (जिसकी दी हुई दातें दिनो दिन) बढ़ती ही जाती हैं। मित्र-प्रभू की संगति में, गुरू-संत की संगति में आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, प्रभू मेहर की नजर करके अपनी संगति में मिला लेता है।3।

हरेक जीव (परमात्मा के बारे में) कथन करता है (और कहता है कि परमात्मा बहुत बड़ा है, पर) कोई नहीं बता सकता कि वह कितना बड़ा है। (मैं इतने लायक नहीं कि परमात्मा का स्वरूप बयान कर सकूँ) मैं (तो) मूर्ख हूँ, जीव स्वभाव का हूँ, अंजान हूँ, मैं तो गुरू के उपदेश से ही (कुछ) समझ सकता हूँ (अर्थात, मैं तो उतना कुछ ही मुश्किल से समझ सकता हूँ जितना गुरू अपने शबद से समझाए)। मेरा मन तो उस गुरू-शबद में ही पतीज गया है जो सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करता है और जो आत्मिक जीवन देने वाला है।

जो जीव (माया-मोह के) जहर से लदे हुए जगत में आते हैं (गुरू के शबद को विसार के और तीर्थ-स्नान आदि की टेक रख के, उसी जहर से लदे हुए ही जगत से) कूच कर जाते हैं, पर जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ते हैं, उनको मेरा गुरू उस जहर के भार से बचा लेता है।

(परमात्मा के गुण बेअंत हैं, गुण) बयान करने से खत्म नहीं होते, (परमात्मा की भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं, जीवों को भक्ति की दाति बाँटने से) भक्ती के खजानों में कोई कमी नहीं आती, (पर भगती करने से प्रभू की सिफत सालाह करने से मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) परमात्मा ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन करता है, जो प्रभू-दर पर अरदासें करता है (और इस तरह) अपने मन को विकारों की मैल से साफ कर लेता है उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभू ही दिखता है (तीर्थ-स्नानों से यह आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं होती)।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh