श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी छंत महला ४ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥ सतिगुरु मिलै सुभाइ सहजि गुण गाईऐ जीउ ॥ गुण गाइ विगसै सदा अनदिनु जा आपि साचे भावए ॥ अहंकारु हउमै तजै माइआ सहजि नामि समावए ॥ आपि करता करे सोई आपि देइ त पाईऐ ॥ हरि जीउ क्रिपा करे ता नामु धिआईऐ जीउ ॥१॥ {पन्ना 690}

पद्अर्थ: धिआईअै = सिमरा जा सकता है। सुभाइ = प्रेम में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाईअै = गा सकते हैं। विगसै = पुल्कित रहता है, खिला रहता है। गाइ = गा के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। साचे भावऐ = सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अच्छा लगे। भावऐ = अच्छा लगे। नामि = नाम में। समावऐ = समा जाता है। देइ = देता है। त = तब, तो।1।

अर्थ: हे भाई! अगर परमात्मा खुद कृपा करे, तो उसका नाम सिमरा जा सकता है। अगर गुरू मिल जाए, तो (प्रभू के) प्रेम में (लीन हो के) आत्मिक अडोलता में (टिक के) परमात्मा के गुण गा सकते हैं। (परमात्मा के) गुण गा के (मनुष्य) सदा हर वक्त खिला रहता है, (पर ये तब ही हो सकता है) जब सदा कायम रहने वाले परमात्मा को स्वयं (ये मेहर करनी) पसंद आए। (गुणगान की बरकति से मनुष्य) अहंकार, अहम्, माया (का मोह) त्याग देता है, और आत्मिक अडोलता में हरी-नाम में लीन हो जाता है। (नाम-सिमरन की दाति) वह परमात्मा खुद ही देता है, जब वह (ये दाति) देता है तब ही मिलती है। हे भाई! परमात्मा कृपा करे, तो उसका नाम सिमरा जा सकता है।1।

अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै जीउ ॥ हउ तिसु सेवी दिनु राति मै कदे न वीसरै जीउ ॥ कदे न विसारी अनदिनु सम्हारी जा नामु लई ता जीवा ॥ स्रवणी सुणी त इहु मनु त्रिपतै गुरमुखि अम्रितु पीवा ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले अनदिनु बिबेक बुधि बिचरै ॥ अंदरि साचा नेहु पूरे सतिगुरै ॥२॥ {पन्ना 690}

पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। नेहु = प्रेम। पूरे सतिगुरै = पूरे सतिगुरू के माध्यम से। हउ = मैं। तिसु = उस (प्रभू) को। सेवी = मैं सेवता हूँ। वीसरै = भूलता। मैं = मुझे। विसारी = मैं भूलाता। समारी = मैं संभालता। लई = लूँ। जीवा = जीऊँ। स्रवणी = श्रवणी, कानों से। सुणी = सुनी। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। पीवा = पीऊँ। बिबेक = (अच्छे बुरे की) परख। बिचरै = विचरती है।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू के द्वारा (मेरे) मन में (परमात्मा से) सदा-स्थिर रहने वाला प्यार बन गया है। (गुरू की कृपा से) मैं उस (प्रभू) को दिन-रात सिमरता रहता हूँ, मुझे वह कभी नहीं भूलता। मैं उसे कभी भी भुलाता नहीं, मैं हर वक्त (उस प्रभू को) हृदय में बसाए रखता हूँ। जब मैं उसका नाम जपता हूँ, तब मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है। जब मैं अपने कानों से (हरी नाम) सुनता हूँ तब (मेरा) ये मन (माया की ओर से) अघा जाता है। हे भाई! मैं गुरू की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता रहता हूँ (जब प्रभू मनुष्य पर मेहर की) निगाह करता है, तब (उसको) गुरू मिलाता है (तब हर समय उस मनुष्य के अंदर) अच्छे-बुरे की परख कर सकने वाली अक्ल काम करती है। हे भाई! पूरे गुरू की कृपा से मेरे अंदर (प्रभू से) सदा कायम रहने वाला प्यार बन गया है।2।

सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥ अनदिनु रहै लिव लाइ त सहजि समावए जीउ ॥ सहजि समावै ता हरि मनि भावै सदा अतीतु बैरागी ॥ हलति पलति सोभा जग अंतरि राम नामि लिव लागी ॥ हरख सोग दुहा ते मुकता जो प्रभु करे सु भावए ॥ सतसंगति मिलै वडभागि ता हरि रसु आवए जीउ ॥३॥ {पन्ना 690}

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। रसु = स्वाद। आवऐ = आता है। अनदिनु = हर रोज, हर समय। लिव = लगन। समावऐ = समावै। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है। अतीतु = विरक्त, माया के मोह से पार लंघा हुआ। बैरागी = निर्मोह। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। अंतरि = में। नामि = नाम में। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। मुकता = स्वतंत्र। भावऐ = भाए।3।

अर्थ: (जिस मनुष्य को) बड़ी किस्मत से साध-संगति प्राप्त हो जाती है, तो उसको परमात्मा के नाम का स्वाद आने लग जाता है, वह हर वक्त (प्रभू की याद में) सुरति जोड़े रखता है, आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। जब मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन हो जाता है, तब परमात्मा को प्यारा लगने लग जाता है, तब माया के मोह से परे लांघ जाता है, निर्लिप हो जाता है। इस लोक में, परलोक में, सारे संसार में उसकी शोभा होने लग जाती है, परमात्मा के नाम में उसकी लगन लगी रहती है। वह मनुष्य खुशी-ग़मी दोनों से स्वतंत्र हो जाता है, जो कुछ परमात्मा करता है वह उसको अच्छा लगने लगता है। हे भाई! जब बड़ी किस्मत से किसी मनुष्य को साध-संगति प्राप्त होती है तब उसको परमात्मा के नाम का रस आने लग पड़ता है।3।

दूजै भाइ दुखु होइ मनमुख जमि जोहिआ जीउ ॥ हाइ हाइ करे दिनु राति माइआ दुखि मोहिआ जीउ ॥ माइआ दुखि मोहिआ हउमै रोहिआ मेरी मेरी करत विहावए ॥ जो प्रभु देइ तिसु चेतै नाही अंति गइआ पछुतावए ॥ बिनु नावै को साथि न चालै पुत्र कलत्र माइआ धोहिआ ॥ दूजै भाइ दुखु होइ मनमुखि जमि जोहिआ जीउ ॥४॥ {पन्ना 690}

पद्अर्थ: दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) और ही प्यार में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। जमि = जम ने, मौत ने, आत्मिक मौत ने। जोहिआ = ताक में रखा, निगाह में रखा। दुखि = दुख में। मोहिआ = फसा हुआ। रोहिआ = रोह में रहता है, क्रोध वान। करत = करते हुए। विहावऐ = बीत जाती है। देइ = देता है। तिसु = उस (प्रभू) को। कलत्र = स्त्री। धोहिआ = छल, ध्रोह, ठॅगी।4।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को आत्मिक मौत ने सदा अपनी निगाह तले रखा हुआ है, माया के मोह के कारण उसे सदा दुख व्यापता है। वह दिन रात ‘हाय हाय’ करता रहता है, माया के दुख में फंसा रहता है। वह सदा माया के दुख में ग्रसा हुआ अहंम् के कारण क्रोधातुर भी रहता है। उसकी सारी उम्र ‘मेरी माया मेरी माया’ करते हुए बीत जाती है। जो परमात्मा (उसे सब कुछ) दे रहा है उस परमात्मा को वह कभी याद नहीं करता, आखिर में जब यहाँ से चलता है तो पछताता है। पुत्र, स्त्री (आदि) हरी-नाम के बिना कोई (मनुष्य के) साथ नहीं जाता, दुनिया की माया उसे छल लेती है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को आत्मिक मौत ग्रसे रखती है, माया के कारण उस को सदा दुख व्यापता है।4

करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पाइआ जीउ ॥ सदा रहै कर जोड़ि प्रभु मनि भाइआ जीउ ॥ प्रभु मनि भावै ता हुकमि समावै हुकमु मंनि सुखु पाइआ ॥ अनदिनु जपत रहै दिनु राती सहजे नामु धिआइआ ॥ नामो नामु मिली वडिआई नानक नामु मनि भावए ॥ करि किरपा लेहु मिलाइ महलु हरि पावए जीउ ॥५॥१॥ {पन्ना 690}

पद्अर्थ: करि = कर के। लेहु मिलाइ = (तू) मिला लेता है। महलु = हजूरी, (चरनों में) जगह। हरि = हे हरी! कर = (बहुवचन) दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मनि = (उसके) मन में। भाइआ = भाया, प्यारा लगा। भावै = प्यारा लगता है। ता = तब। हुकमि = हुकम में। मंनि = मान के। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। नामो नामु = नाम ही नाम।5।

अर्थ: हे हरी! जिस मनुष्य को तू (अपनी) कृपा करके (अपने चरणों में) जोड़ लेता है, उसको तेरी हजूरी प्राप्त हो जाती है। (हे भाई! वह मनुष्य प्रभू की हजूरी में) सदा हाथ जोड़ के टिका रहता है, उसको (अपने) मन में प्रभू प्यारा लगता है। जब मनुष्य को अपने मन में प्रभू प्यारा लगने लगता है, तब वह प्रभू की रजा में टिक जाता है, और हुकम मान के आत्मिक आनंद लेता है। वह मनुष्य हर वक्त दिन रात परमात्मा का नाम जपता रहता है, आत्मिक अडोलता में टिक के वह हरी-नाम सिमरता रहता है। हे नानक! परमात्मा का (हर वक्त) नाम-सिमरने से (ही) उसको वडिआई मिली रहती है, प्रभू का नाम (उसको अपने) मन में प्यारा लगता है। हे हरी! (अपनी) कृपा करके (जिस मनुष्य को तू अपने चरनों में) जोड़ लेता है, उसको तेरी हजूरी प्राप्त हो जाती है।5।1।

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