श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 695

धनासरी बाणी भगतां की त्रिलोचन    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी ॥ दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ॥१॥ रहाउ ॥ संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ॥ कुल जन मधे मिल्यिो सारग पान रे ॥ करम करि कलंकु मफीटसि री ॥१॥ बिस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआरथी पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा ॥ करम करि अरुण पिंगुला री ॥२॥ अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ॥ करम करि कपालु मफीटसि री ॥३॥ अम्रित ससीअ धेन लछिमी कलपतर सिखरि सुनागर नदी चे नाथं ॥ करम करि खारु मफीटसि री ॥४॥ दाधीले लंका गड़ु उपाड़ीले रावण बणु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ॥ करम करि कछउटी मफीटसि री ॥५॥ पूरबलो क्रित करमु न मिटै री घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं ॥ बदति त्रिलोचन राम जी ॥६॥१॥ {पन्ना 695}

पद्अर्थ: निंदस काइ = तू क्यों निंदा करती है? भूली गवारी = हे भूली हुई मूर्ख जीव स्त्री! दुक्रितु = पाप। सुक्रितु = कीया हुआ भला काम। थारो = तेरा (अपना)। री = हे (जीव स्त्री!)।1। रहाउ।

संकरा मसतकि = शिव के माथे पर। सुरसरी = गंगा। रे = हे भाई! मधे = में। मिलि्हो = मिलियो, आ के मिला, पैदा हुआ। सारगपान = विष्णू। करम करि = किए कर्मों के कारण। मफीटसि = ना हटा।1।

बिस्व = विश्व, सारा जगत। दीपकु = दीया, प्रकाश देने वाला। रे = हे भाई! सुआरथी = सारथी, रथवाही, रथ चलाने वाला। पंखी राइ = पक्षियों का राजा। चे = दे। बाधवा = रिश्तेदार। अरुण = प्रभात, सुबह की लालिमा। पौराणिक कथा अनुसार ‘अरुण’ गरुड़ का बड़ा भाई था, सूरज का सारथी मिथा गया है। ये पैदायशी ही पिंगला था।2।

पातिक = पाप। हरता = नाश करने वाला। नाथु = पति। तीरथि तीरथि = हरेक तीर्थ पर। पारु = परला छोर, खलासी। कपालु = खोपरी।

नोट: पौराणिक कथा के अनुसार ब्रहमा अपनी बेटी सरस्वती पर मोहित हो गया, शिव ने उसका पाँचवां सिर काट डाला; शिव से ये ब्रहम–हत्या हो गई; वह खोपरी हाथ के साथ चिपक गई, कई तीर्थों पर गया, आखिर कपाल मोचन पर जा के छूटी।3।

ससीअ = चंद्रमा। धेन = गाय। कलप तर = मनोकामना पूरी करने वाला वृक्ष कल्पतरु। सिखरि = (शिखरिन् भाव लंबे कानों वाले उच्चै श्रवस् Long eared) लंबे कानों वाला सत् मुँहा घोड़ा, जो समुंद्र मंथन में से निकला। सुनागर = बड़ा समझदार वैद्य धनवंतरी। नदी चे = नदियों के। खारु = खारा पन।4।

दाधीले = जला दिया। उपाड़ीअले = उखाड़ दिया। बणु = बाग़। सलि बिसलि = संस्कृत: शल्य विशल्या। शल्य = पीड़ा। विशल्या = दूर करने वाली। आणि = ला के। तोखीले = खुश किया।5।

क्रित = किया हुआ। पूरबले = पहले जन्म का। घर गेहणि = हे (शरीर-) घर की मालकिन! हे मेरी जिंदे! ता चे = इसलिए। मोहि = मैं।6।

अर्थ: हे भूली हुई मूर्ख जिंदे! तू परमात्मा को क्यों दोष देती है? पाप-पुंन तेरा अपना किया हुआ कर्म है (जिसके कारण दुख-सुख सहना पड़ता है)।1। रहाउ।

(हे मेरी जिंदे!) अपने किए कर्मों के कारण (चंद्रमा का) दाग़ ना हट सका; भले ही वह शिव जी के माथे पर बसता है, नित्य गंगा में स्नान करता है, और उसी की कुल में विष्णु जी ने (कृष्ण रूप धार के) जन्म लिया।1।

(हे घर की गृहणी!) अपने कर्मों के कारण अरुण पिंगला ही रहा, चाहे सारे जगत को प्रकाश देने वाला सूरज उसका स्वामी है, उस सूरज का वह सारथी है, और पक्षियों का राजा गरुड़ उसका रिश्तेदार है।2।

(ब्रहम-हत्या के) किए कर्म के अनुसार (शिव जी के हाथों से) खोपरी नहीं उतर सकी थी, चाहे (शिव जी) सारे जगत का नाथ (समझा जाता) है, (और जीवों के) अनेकों पाप नाश करने वाला है, पर वह हरेक तीर्थ पर भटकता फिरा, तो भी (उस खोपरी से) उसकी खलासी नहीं हो रही थी।3।

(हे मेरी जिंदे!) अपने किए (मंद कर्म) अनुसार (समुंद्र का) खारा पन नहीं हट सका, चाहे वह सारी नदियों का नाथ है और उसमें से अमृत, चंद्रमा, कामधेनु, लक्ष्मी, कल्पतरु, सतमुँही घोड़ा, धनवंतरी वैद्य (आदि) नौ रत्न निकले थे।4।

(हे घर गेहणि!) अपने किए कर्मों के अधीन (हनुमान के भाग्यों से) उसकी छोटी सी कच्छी ना हट सकी, चाहे उसने (श्री रामचंद्र जी के खातिर) लंका का किला जलाया, रावण का बाग़ उजाड़ दिया, सल दूर करने वाली बूटी ला के रामचंद्र जी को प्रसन्न ही किया।5।

हे मेरी जिंदे! पिछला किया हुआ कोई भी कर्म (अवतार पूजा, तीर्थ स्नान आदि से) नहीं मिटता, इसीलिए मैं तो परमात्मा का ही नाम सिमरता हूँ। त्रिलोचन कहता है कि मैं तो ‘राम राम’ ही जपता हूँ (भाव, परमात्मा की ओट लेता हूँ और अपने किए कर्म करके आए दुख से प्रभू को दोष नहीं देता)।6।1।

जरूरी नोट: भक्त त्रिलोचन जी जाति के ब्राहमण थे। ब्राहमण–आगुओं की चलाई हुई परिपाटी के अनुसार लोग अवतार पूजा को ही श्रेष्ठ भक्ति मान रहे थे; और दान–पुंन, तीर्थ स्नान आदि कामों को पापों की निर्विती व स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति का साधन समझते थे।

पर इस शबद के द्वारा भक्त जी ने इन दोनों कामों का खण्डन किया है। जिन देवताओं व अवतारों की पूजा खास प्रचलित है, उनका वर्णन शबद के चारों बंदों में करते हुए कहते हैं;

1. तुम विष्णु की (कृष्ण की मूर्ति की) पूजा करते हो और गंगा में स्नान करने को पुन्य–कर्म समझते हो पर तुम ये भी बताते हो कि अपनी स्त्री अहिल्या के संबंध में गौतम ने चंद्रमा को दाग़ लगा दिया था, ये दाग़ चंद्रमा के माथे पर उसके कुकर्म का कलंक है। नित्य का गंगा–स्नान और विष्णु जी का (कृष्ण रूप धार के) चंद्रमा की कुल में पैदा होना भी चंद्रमा के उस कलंक को दूर नहीं कर सके। बताओ; गंगा का स्नान करके और कृष्ण की मूर्ति की पूजा करके तुम्हारे पाप व कुकर्म कैसे धुल जाएंगे?

2. तुम गरुड़ को पंछियों का राजा मानते हो, और, दशहरे वाले दिन उसकें दर्शन करने के लिए दौड़ते फिरते हो; सूरज को देवता जान के हर संक्रांति को उसकी पूजा करते हो। देखो, तुम पिंगुले अरुण को सूरज का सारथी मानते हो, और गरुड़ का रिश्तेदार समझते हो। अगर गरुड़ अपने रिश्तेदार का, और सूरज अपने सारथी की अभी तक पिंगुलापन दूर नहीं कर सके, तो ये दोनों तुम्हारा क्या सँवारेंगे?

3. तुम एक टिटहरी के बच्चों की कहानी सुना के बताते हो कि टिटहरी के बच्चों को बहा के ले जाने के अपराध में समुंद्र आज तक खारा चला आ रहा है। पर साथ ही तुम ये भी कहते हो कि समुंद्र में से चौदह रत्न निकले थे जिनमें कामधेनु व कल्पतरु भी थे, और समुंद्र में ही तुम विष्णु जी का निवास भी बताते हो। पर यदि ये विष्णु जी, कामधेनु और कल्पतरु अभी तक समुंद्र के अपराध का असर नहीं मिटा सके, समुंदर का खारापन दूर नहीं कर सके, तो तुम इस विष्णू पूजा से किस लाभ की आशा रखते हो? तुम पुन्य–दान के आसरे स्वर्ग में पहुँचके इसी कामधेनु व कल्पतरु से मन की मुरादें कैसे पूरी कर लोगे?

4. तुम श्री रामचंद्र जी की मूर्ति पूजते हो, और खुद ही कहते हो कि हनुमान को इनकी अटुट सेवा करने पर भी एक छोटी सी कच्छी ही मिली। क्या तुम श्री रामचंद्र जी को हनूमान से ज्यादा प्रसन्न कर लोगे?

जिस शिव को बलि देव समझ के मंदिरों में टिका के पूजा करते हो, उसकी बाबत ये भी कहते हो कि जब ब्रहमा अपनी ही पुत्री पर मोहित हो गया, तब शिव ने उसका सिर काट डाला, और ये सिर शिव के हाथ से जुड़ गया। कई तीर्थों पर भटकते फिरे, फिर भी सिर शिव के हाथ से नहीं उतरा। बताओ, जो शिव खुद इतने आतुर व दुखी हुए वे तुम्हारा क्या सवारेंगे?

अपनी घर–गृहिणी को, जिंद को संबोधन करके अवतार–पूजा के बारे में समझाते हुए त्रिलोचन जी आखिर में कहते हैं कि एक परमात्मा की भक्ति ही पिछले कुकर्मों के संस्कारों को मिटाने में समर्थ है॥

त्रिलोजन जी के इस शबद को गुरमति से अजुड़वां समझ के भगत बाणी के विरोधी सज्जन इस बारे में यूँ लिखते हैं– ‘इस शबद में पौराणिक बातें लिख के कर्मों को प्रबल माना है, परंतु शिव जी की जटाओं में से गंगा का आना और चंद्रमा का माथे पर होना और गरुड़ पर विष्णु की सवारी होनी आदि बताया गया है। ये सब ख्याल सृष्टि–नियम के बिल्कुल उलट हैं।

और

“ये झगड़ा भगत जी और उनकी स्त्री का है जो नारायण की निंदा करती है। इस शबद से लोगों ने ईश्वर को इनके घर रसोईआ बन के रहने की साखी घड़ी है।”

और

“इनके नाम के साथ बहुत सारी कथाएं भी लगाई हुई हैं। कहते हैं कि इनके घर ईश्वर रसोईया बन के रोटियां पकाता रहा। पर ये पुराने मन–घड़ंत मसले हैं।”

उपरोक्त दी गई लिखत में तीन ऐतराज मिलते हैं– 1. भगत जी ने कर्मों को प्रबल माना है। 2. शबद में दी गई बातों का ख्याल सृष्टि नियमों के बिल्कुल उलट है। 3. ईश्वर के रसोईऐ बन के भगत जी के घर रोटियां पकाने वाली कहानी एक मन घड़ंत मसला है।

इन ऐतराजों पर विचार करने पर स्पष्ट होता है– पहला ये कि ईश्वर के रसोईए बनने वाली कहानी मन–घड़ंत है और ना ही उक्त शबद से इसका कोई संबंध है। शबद में इस संबंधी कोई भी जिकर ही नहीं है, पता नहीं ये कहानी क्यूँ घड़ी गई। ये बात मानी ही नहीं जा सकती। बस! इस कहानी को ना माने। शबद से नाराज होने का कोई कारण ही नहीं बनता। शबद के अर्थ के नीचे दिए गए ‘जरूरी नोट’ को दोबारा ध्यान से पढ़ें। धार्मिक आगू ब्राहमणों द्वारा चलाई हुई पौराणिक कहानियों का हवाला दे के भगत जी (जो खुद भी जाति के ब्राहमण ही हैं) उन कहानियों को मानने वालों को समझा रहे हैं कि ये अवतार–पूजा, मूर्ति–पूजा और गंगा–स्नान ने पिछले किए कर्मों के संस्कारों को नहीं मिटा सकते। अगर पिछले बँधनों से निजात चाहिए तो एक परमात्मा का नाम जपो।

ये विचार पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पौराणिक कहानियों को मानने वालों को उनकी ही कहानियों का हवाला दे के समझाना कोई बुरी बात नहीं है। सतिगुरू जी ने स्वयं भी सैकड़ों ही जगह पर ऐसे हवाले दिए हैं। मिसाल के तौर पर देखें, रामकली की वार महला ३ पउड़ी नं 14 पंना 953; सलोकु महला १:

सहंसर दान देइ इंद्रु रोआइआ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ॥
अजै सु रोवै भीखिआ खाइ॥ अैसी दरगह मिलै सजाइ॥
.....   ...   ...
रोवै जनमेजा खुइ गइआ॥ ऐकी कारणि पापी भइआ॥
... ... ...
.... .... ... नानक दुखीआ सभु संसारु॥
मंने नाउ सोई जिणि जाइ॥ अउरी करम न लेखै लाइ॥१॥१४॥

यहाँ कई पौराणिक कहानियाँ दी गई हैं। इन कहानियों के मानने वालों को इन कहानियों के माध्यम से ही समझाते हैं कि ‘मंने नाउ सोई जिणि जाइ’। हू–ब–हू यही तरीका भगत त्रिलोचन जी ने इस्तेमाल किया है।

बाकी रहा ऐतराज कर्म की प्रबलता की। इस बारे एक नहीं सैकड़ों प्रमाण गुरबाणी में मिलते हैं कि किए कर्मों के संस्कार मिटाने के लिए एक मात्र वसीला है, और वह है परमात्मा का नाम सिमरना। मिसाल के तौर पर देखें:

 नानक पइअै किरति कमावणा कोइ न मेटणहारु॥2।17। (सलोक म:१, सूही की वार महला ३)
 नानक पइअै किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ॥ (पउड़ी 17, सारंग की वार)
 पइअै किरति कमावणा कोइ न मेटणहार॥ (सूही म: ३ घर १०)
 पइअै किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ।1।4। (सलोक म:३ वडहंस की वार)
 पइअै किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंनि्।1।12। (सलोक म: ३, बिलावल की वार)

घड़ी हुई कहानी के कारण हमने सच्चाई से नहीं रूठना। भगत त्रिलोचन जी ब्राहमण के बनाए धर्म–जाल का पाज खोल रहे हैं। उनकी आवाज को कमजोर करने के लिए उनके जीवन से जोड़ के व्यर्थ की कहानियां घड़ी जा सकती हैं।

स्री सैणु ॥ धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥ वारने जाउ कमला पती ॥१॥ मंगला हरि मंगला ॥ नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ ॥ ऊतमु दीअरा निरमल बाती ॥ तुहीं निरंजनु कमला पाती ॥२॥ रामा भगति रामानंदु जानै ॥ पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥ मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥ सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥ {पन्ना 695}

पद्अर्थ: घ्रित = घी। साजि = बना के, इकट्ठे करके। वारने जाउ = मैं सदके जाता हूँ। कमलापती = लक्ष्मी का पति परमात्मा।1।

मंगलु = आनंद। राजा = मालिक। को = का (का बख्शा हुआ)।1। रहाउ।

दीअरा = सोहणा सा दीया। निरमल = साफ। निरंजनु = माया से रहित।2।

रामा भगति = परमात्मा की भक्ति से। रामा नंदु = (राम+आनंद) परमात्मा (के मेल) का आनंद। पूरन = सर्व व्यापक। बखानै = उचारता है।3।

मदन मूरति = वह मूर्ति जिसे देख के मस्ती आ जाए, सुंदर रूप वाला। भै तारि = डरों से पार लंघाने वाला। गोबिंद = (गो = सृष्टि। बिंद = जानना, सार लेनी) सृष्टि की सार लेने वाला। भणै = कहता है। भजु = सिमर। परमानंदे = परमानंद लेने वाले को।4।

अर्थ: हे माया के मालिक प्रभू! मैं तुझसे सदके जाता हूँ (तुझसे सदके जाना ही) धूप, दीप और घी (आदि) सामग्री इकट्ठी करके तेरी आरती करनी है।1।

हे हरी! हे राजन! हे राम! तेरी मेहर से (मेरे अंदर) सदा (तेरे नाम-सिमरन का) आनंद-मंगल हो रहा है।1। रहाउ।

हे कमलापति! तू निरंजन ही मेरे लिए (आरती करने के लिए) सुंदर अच्छा दीपक और साफ-सुथरी बाती है।2।

जो मनुष्य सर्व-व्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभू के गुण गाता है, वह प्रभू की भक्ति की बरकति से उसके मिलाप का आनंद लेता है।3।

सैण कहता है– (हे मेरे मन!) उस परम-आनंद परमात्मा का सिमरन कर, जो सुंदर स्वरूप वाला है, जो (संसार के) डरों से पार लंघाने वाला है और जो सृष्टि की सार लेने वाला है।4।2।

नोट: इस शबद को भी गुरमति के उलट समझ के भुलेखा खाने वाले विरोधी सज्जन ने इस बारे में यूँ लिखा है:

“उक्त शबद द्वारा भगत जी ने अपने गुरू गोसाई रामानंद जी के आगे आरती उतारी है। (‘मदन मूरति’ विष्णू जी हैं, भगत जी पक्के वैश्नव थे) परंतु गुरमति के अंदर ‘गगन मै थालु’ वाले शबद में भगत वाली आरती का खण्डन है। दीए जला के आरती करने वाले महा अज्ञानी बताए गए हैं। साथ ही ये भी हुकम है ‘किसन बिसन कबहूँ न धिआऊ’। इस करके साबत होता है कि भगत सैण जी की रचना गुरू–आशै के बिल्कुल ही विरुद्ध है।”

इस तरह शबद को गुरमति के विरुद्ध समझने वाले सज्जन जी ने भगत जी के बारे में तीन बातें बताई हैं– 1. इस शबद के द्वारा सैण जी ने अपने गुरू रामानंद जी की आरती उतारी है। 2. भगत जी पक्के वैश्णव थे। 3. दीए को जला के आरती करने वाला महा अज्ञानी है।

पर आश्चर्य इस बात का है कि इस शबद में इन तीनों ही दूषणों में से एक भी नहीं मिलता। आईए, विचार के देखें:

1. जिसकी उस्तति यहाँ कर रहे हैं, उसके लिए सैण जी जो शब्द बरते हैं वे ये हैं– कमलापती, हरी, राजा राम, निरंजन, पूरन, परमानंद, मदन मूरति, भै तारि, गोबिंद। इन शब्दों में सैण जी के गुरू का कोई वर्णन नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि शक करने वाले सज्जन ने शबद के तीसरे बंद में बरते गए शब्द ‘रामानंद’ से गलती की है। इस तुक का अर्थ यूँ है– जो मनुष्य सर्व–व्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभू के गुण गाता है, वह प्रभू की भक्ति की बरकति से उस राम के मिलाप का आनंद पाता है (देखें शबद के दिए गए पदअर्थों को)।

2. शब्द ‘मदन मूरति’ के बरतने से, भगत जी को वैश्णव समझ लेना एक भूल है। शबद ‘मदन’ का अर्थ है ‘खेड़ा, खुशी, हिलोरे देने वाला’ (देखें पदार्थ)।

3. शबद के बंद 1 और 2 से सैण जी को दीए जला के आरती करने वाला समझा गया है, पर वे तो कहते हैं– हे कमलापती! मैं तुझसे सदके जाता हूँ, यही धूप, दीप और घी (आदि) सामग्री इकट्ठी करके तेरी आरती करनी है।1। हे कमलापति! तू निरंजन ही मेरे वास्ते (आरती करने के लिए) सुंदर बढ़िया दीपक और साफ–सुथरी बाती है।2।

4. सो, कम से कम इस शबद से तो साबित नहीं होता कि भगत सैण जी की रचना गुरू आशय से कहीं भी विरुद्ध है।

पीपा ॥ कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ॥ काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजउ पाती ॥१॥ काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई ॥ ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ॥१॥ रहाउ ॥ जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ॥ पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होइ लखावै ॥२॥३॥ {पन्ना 695}

पद्अर्थ: कायउ = काया ही, शरीर। काइअउ = कायउ, काया ही। देवल = (सं: देव+आलय) देवाला, मंदिर। जंगम = शिव उपासक रमते जोगी, जिनके सिर पर मोरों के पंख बंधे होते हैं। जाती = यात्री। नईबेदा = दूध की खीर आदि स्वादिष्ट भोजन, जो मूर्ति को भेट किए जाएं। पूजउ = मैं पूजता हूँ। पती = पत्र (आदि भेट धर के)।1।

बहु खंड = देश देशांतर। नव निधि = (नाम रूप) नौ खजाने। आइबो = आएगा, पैदा होगा। जाइबो = जाएगा, मरेगा। दुहाई = तेज प्रताप।1। रहाउ।

पिंडे = शरीर में। पावै = पा लेता है। प्रणवै = विनती करता है। परम ततु = परम आत्मा, परमात्मा, सबसे बड़ी अस्लियत, परले से परला तत्व, सृष्टि का असल श्रोत। लखावै = जनाता है।2।1।

अर्थ: देश-देशांतरों को खोज के (आखिर अपने) शरीर के अंदर ही मैंने प्रभू के नाम रूप नौ-निधियां पा ली हैं, (अब मेरी काया में) परमात्मा (की याद) का ही तेज प्रताप है (उसकी बरकति से मेरे लिए) ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है (भाव, मेरा जनम-मरण मिट गया है)।1। रहाउ।

(सो) काया (की खोज) ही मेरा देवता है (जिसकी मैंने आरती करनी है), शरीर (की खोज) ही मेरा मंदिर है (जहॉ। मैं शरीर के अंदर बसते प्रभू की आरती करता हूँ), काया (की खोज) ही (मेरे वास्ते मेरे अंदर बसते देवते के लिए) धूप-दीप और नैदेव है, काया की खोज (करके) ही मैं मानो, पत्र भेट रख के (अपने अंदर बसते ईष्ट देव की) पूजा कर रहा हूँ।1।

पीपा विनती करता है– जो सृष्टि का रचनहार परमात्मा सारे ब्रहमण्ड में (व्यापक) है वही (मनुष्य के) शरीर में है, जो मनुष्य खोज करता है वह उसको ढूँढ लेता है, अगर सतिगुरू मिल जाए तो (अंदर ही) दर्शन करा देता है।2।1।

नोट: मूर्ति–पूजा के घॅुप अंधेरे में कहीं–कहीं विरली जगह प्रभू–सिमरन की ये लौअ जग रही थी। सतिगुरू नानक देव जी ने भारत के सारे वह स्थान जो धर्म–प्रचार का केन्द्र कहलवाते थे, घूम के देखे। ये भगत अपने–अपने वतन में बैठे गलत राह पर जा रहे लोगों को प्रभू–भक्ति का प्रकाश देने की कोशिश करते रहे। ये हो नहीं था सकता कि रॅबी–नूर के आशिक सतिगुरू जी की नजरों से वह प्रकाश, जिसे वे स्वयं प्यार करने वाले थे, से परे रह जाता। जबकि वे खुद सारे भारत में यही प्रकाश फैलाने के लिए पूरे आठ साल कई मुश्किलें सहते हुए घूमते रहे।

नोट: इस शबद में भगत पीपा जी मूर्ति–पूजा का खण्डन करते हैं और कहते हैं कि मन्द्रिर में स्थापित किए देवते को धूप, दीप और नईवेद पत्र आदि की भेट रख के पूजने की जगह शरीर–मन्द्रिर में बसते राम को सिमरो।

हरेक शबद का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। सो, ‘रहाउ’ की तुक से शुरू करने से भगत पीपा जी के शबद का भाव यूँ बनता है– जिस मनुष्य के शरीर में राम की याद की दोहाई मच जाती है, वह देश–देशोतरों के तीर्थों व मन्दिरों में भटकने की जगह राम को अपने शरीर में ही पा लेता है। सो, उस राम को अपने शरीर के अंदर ही तलाशो, यही असल देवते की तलाश है, यही असल मन्दिर है, यही असल पूजा है। पर उस परम–तत्व (परमात्मा) को निरा अपने शरीर में ही ना समझ रखना, सारे ब्रहमण्ड में भी वही बसता देखो। ये सूझ सतिगुरू जी से मिलती है।

भगत जी ने इस शबद में निम्न–लिखित चार बातों पर जोर दिया है– 1. परमात्मा की याद, साधारण याद नहीं बल्कि परमात्मा की दुहाई परमात्मा की तीव्र याद; 2. परमात्मा की याद ही असल देव पूजा है; 3. वह परमात्मा हरेक मनुष्य के अंदर बसता है, सारी सृष्टि में भी बसता है, और सारी सृष्टि का रचनहार है; 4. सतिगुरू ही परमात्मा से मिलाप करवा सकता है।

पर, विरोधी सज्जन ने इस शबद को भी गुरमति के उलट समझते हुए इस बारे में यूँ लिखते हैं:

“ये शबद वेदांत मत का है और गोसाई रामानंद जी की रचना से मिलता–जुलता है, मानो, दोनों शबद एक की रचना हों। भगत जी काया में ईश्वर को मानते है। मैं ब्रहम हूँ (अहं ब्रहमास्मि) का सिद्धांत है। इस शबद के अंदर प्रेमा भक्ति का लेस बिल्कुल नहीं, केवल ज्ञान–विचार चर्चा है। वेदांती मुँह–जबानी लेखा–पत्र निबेड़ के अपने आप को ही ईश्वर कल्पित करते हैं, पर गुरमति के अंदर इस आशय का पूरन तौर पर खण्डन है। वेदांत मत अहंकार की गठड़ी है। गुरमति और वेदांत मत में दिन रात का फर्क है।”

इस तरह शबद के विरुद्ध उस सज्जन ने दो ऐतराज उठाए हैं–1. ये शबद वेदांत मत का है, भगत जी काया में रॅब मानते है, ‘मैं ब्रहम हूं’ का सिद्धांत है। 2. इस शबद में प्रेमा भक्ति का लेस बिल्कुल नहीं है।

एतराज करने वाले सज्जन जी ने ऐतराज करने में कुछ जल्दबाजी कर दिखाई है। इनको तो ‘प्रेम–भक्ति का लेस’ मात्र भी नहीं मिला, पर भगत जी ने तो ‘रहाउ’ की तुक में शबद के मुख्य भाव में ही ये कहा है मन्दिर में जा के मूर्ति–पूजा करने की जगह अपने शरीर के अंदर ही ‘राम की दोहाई’ मचा दो, इतनी तीव्रता से याद में जुड़ो कि किसी और तरह की पूजा का फुरना उठे ही ना, अंदर राम ही राम की लिव बन जाए।

ऐतराज करने वाले सज्जन को यहाँ वेदांत मत दिखाई दिखा है, पर भगत जी ने अपने रॅब के बारे में तीन बातें साफ कही हैं– वह ईश्वर मानस शरीर में बसता है, वह प्रभू सारे ब्रहमण्ड में बसता है, और वह परमात्मा ‘परम तत्व’ है, भाव सारी रचना का मूल कारण है, बहमण्ड में निरा बसता ही नहीं है, ब्रहमण्ड को बनाने वाला भी है।

बेहतर हो कि किसी पक्षपात में आ के जल्दबाजी में ऐसे ही मुँह ना मोड़ते जाएं। समय दे के सहज–सहज सांझ डालें, समझने की कोशिश करें, इस शबद और गुरमति में कोई फर्क नहीं दिखेगा।

धंना ॥ गोपाल तेरा आरता ॥ जो जन तुमरी भगति करंते तिन के काज सवारता ॥१॥ रहाउ ॥ दालि सीधा मागउ घीउ ॥ हमरा खुसी करै नित जीउ ॥ पन्हीआ छादनु नीका ॥ अनाजु मगउ सत सी का ॥१॥ गऊ भैस मगउ लावेरी ॥ इक ताजनि तुरी चंगेरी ॥ घर की गीहनि चंगी ॥ जनु धंना लेवै मंगी ॥२॥४॥ {पन्ना 695}

पद्अर्थ: आरता = जरूरतमंद, दुखिया, मंगता (सं: आर्तं)।1। रहाउ।

सीधा = आटा। मागउ = मांगता हूँ। जीउ = जिंद, मन। पनीआ = जूती (सं: उपानहृ)। छादनु = कपड़ा। नीका = बढ़िया, सुंदर। सत सी का अनाज = वह अन्न जो खेत को सात बार जोत के पैदा किया हुआ हो।1।

लावेरी = दूध देने वाली। ताजनि तुरी = अरबी घोड़ी। गीहनि = (सं: गृहिनी) स्त्री। मंगी = मांग के।2।

अर्थ: हे पृथ्वी को पालने वाले प्रभू! मैं तेरे दर का मंगता हूँ (मेरी जरूरतें पूरी कर); जो जो मनुष्य तेरी भक्ति करते हैं तू उनके काम सिरे चढ़ाता है।1। रहाउ।

मैं (तेरे दर से) दाल, आटा और घी माँगता हूँ, जो मेरी जिंद को नित्य सुखी रखे, जूती व बढ़िया कपड़ा भी माँगता हूँ, और सात जोताई वाला अन्न भी (तुझी से) माँगता हूँ।1।

हे गोपाल! मैं गाय भैंस लावेरी भी माँगता हूँ, और एक बढ़िया अरबी घोड़ी भी चाहिए। मैं तेरा दास धंना तुझसे माँग के घर की अच्छी स्त्री भी लेता हूँ।2।1।

नोट: संस्कृत शब्द ‘आरत’ (आर्तं) का अर्थ है दुखिया, जरूरतमंद। ‘रहाउ’ की तुक और बाकी के सारे शबद को ध्यान से पढ़ने से भी यही बात साबित होती है कि प्रभू के दर से रोजमर्रा के जीवन की जरूरतें ही माँग रहे हैं। शब्द ‘गोपाल’ – में भी यही इशारा मिलता है (भाव, धरती को पालने वाला)।

पर, चुँकि शब्द ‘आरती’ के साथ शब्द ‘आरता’ मिलता-जुलता है, इस वास्ते इस शबद को भी ‘आरती’ वाले शबदों के साथ ही धनासरी राग में दर्ज किया गया है, वैसे ‘आरती’ के बारे में इसमें कोई जिक्र नहीं है, क्योंकि ‘आरती’ में फूल दीए आदि होना लाजमी है।

नोट: भगत बाणी को गुरमति के विरुद्ध समझने वाला सज्जन भगत धंन्ना जी के बारे में यूँ लिखते हैं– “भगत धंन्ना जी के पिता का नाम माही थां इनका वतन इलाका मारवाड़ था। आप मामूली से जिंमीदार थे। किसी ब्राहमण से सालिगराम ले के पूजा करने लगे। जब कुछ फल प्राप्त ना हुआ तो आखिर में उसी ब्राहमण को जा के सालिगराम वापिस कर दिया। कहने लगे कि सालिगराम मेरे से रूठे हुए हैं, मेरी रोटी नहीं खाते। ब्राहमण ने असलियत बताई कि भाई! ये तो पत्थर है, ये खाता–पीता कुछ नहीं, ईश्वर तो और है।”.... इस बात का असर धंन्ना जी के दिल पर काफी हुआ। आखिर आप रामानंद जी की मण्डली के साथ मिल गए। इनके सम्बंध में कई अनबन सी कथाएं हैं कि आप ईश्वर से बातें किया करते थे, और उससे पशु चरवाते।”

इस शबद के बारे में विरोधी सज्जन लिखते हैं– उक्त शबद के अंदर भगत जी ने अपने गुरू से गऊ, स्त्री, घोड़ी आदि की मांगें मांगी है। इस किस्म का एक शबद कबीर जी ने भी लिखा है। ये शबद उसी का अनुवाद रूप है, पर ये सिद्धांत गुरमत–सिद्धांत की विरोधता करता है। सतिगुरू साहिबान का सिद्धांत ये है:

सिरि सिरि रिजकु संबाहे ठाकुरु, काहे मन भउ करिआ॥
काहे रे मन चितवहि उदमु, जा आहरि हरि जीउ परिआ॥
सैल पथर महि जंत उपाऐ ता का रिजकु आगै करि धरिआ॥ (गुजरी महला ५)

अकाल पुरख बिन मांगे ही रोजी देने वाला है। परंतु उद्यम के साधन करने मनुष्य का परम धर्म है।

पर, जिस शबद का हवाला विरोधी सज्जन जी ने दिया है, उसमें तो रोजी के लिए तौखले कराने से रोका गया है। ये तो कहीं भी नहीं कहा गया कि परमात्मा के दर से कुछ भी नहीं माँगना। ये तो ठीक है कि वह बिन मांगे दान देता है। पर, फिर भी उसके दर से दुनियावी चीजें माँगने की मनाही कहीं भी नहीं की गई। बल्कि अनेकों शबद मिलते है, जिनसे परमात्मा के दर से दुनियावी माँगें भी माँगी गई हैं। हाँ, ये हुकम किया गया है कि दातार प्रभू के बिना किसी और के दर से ना माँगो।

“मांगउ राम ते सभि थोक॥
मनुखर कउ जाचत स्रमु पाईअै, प्रभ कै सिमरनि मोख॥१॥ रहाउ॥५०॥ ” (धनासरी म: ५)

“मै ताणु दीबाणु तू है मेरे सुआमी, मै तुधु आगै अरदासि॥ मै होरु थाउ नाही जिसु पहि करउ बेनंती, मेरा दुखु सुखु तुधु ही पासि॥२॥१॥१२॥ ” (सूही म:४)

सिख की श्रद्धा ये है कि दुनिया के हरेक कार्य–व्यवहार शुरू करने के समय उसकी सफलता वास्ते प्रभू दर पर अरदास करनी है। सिख विद्यार्थी परिक्षा देने जा रहा है, चलने के वक्त अरदास करे। सिख सफर में चला है, अरदास करके चले। सिख अपना रिहायशी मकान बनाने लगा है, नींव रखने के समय पहले अरदास करे। हरेक दुख–सुख के समय सिख अरदास करे। जब कोई रोग आदि बिपता प्रभू की मेहर से दूर होती है, तब भी सिख शुकराने के तौर पर अरदास करे। क्या ये सारा कुछ गुरमति के विरुद्ध है? बाणी में हुकम तो यही है:

कीता लोड़ीअै कंमु, सु हरि पहि आखीअै॥
कारजु देइ सवारि, सतिगुर सचु साखीअै॥२०॥ (सिरी राग की वार)

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh