श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक ॥ राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥ पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: कपटं = छल। गरबतह = गुमान। संचंति = संचय करते हैं, इकट्ठा करते हैं। बिखिआ = माया। छिद्र = ऐब, दोष।1।

पेखंदड़ो = देखने को। दिसमु = मुझे दिखा। अढु = आधी कौड़ी। न जुलई = नहीं जाती।

अर्थ: हे नानक! ये राज, रूप, धन (ऊँची) कुल का माण- सब छल रूप है। जीव छल करके दूसरों पर दूषण लगा लगा के (कई ढंगों से) माया जोड़ते हैं, पर प्रभू के नाम के बिना कोई भी चीज यहाँ से साथ नहीं जाती।2।

(मुझसे) देखने में कहाँ भूल हो गई, तुंमा (धतूरे का फल) देखने में तो सुंदर दिखा, पर इसका तो आधी कौड़ी भी मूल्य नहीं मिलता। हे नानक! यही हाल माया का है, (जीव के लिए तो ये एक कौड़ी की भी नहीं क्योंकि यहाँ से चलने के वक्त) ये माया जीव के साथ नहीं जाती।2।

पउड़ी ॥ चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: संजीअै = इकट्ठी करें। तिस का = उसकी खातिर। जिस ते = जिससे। वंजीअै = बिछुड़ जाना है। किउ त्रिपतावै = तृप्त नहीं हो सकता। रंजीअै = प्रसन्न होता है। अन = अन्य, और तरफ। नरकि = नर्क में। समंजीअै = समाते हैं। नानक भउ = नानक का सहम। भंजीअै = नाश कर।

अर्थ: उस माया को इकट्ठा करने का क्या लाभ, जो (जगत से चलने के वक्त) साथ नहीं जाती, जिसने आखिर विछुड़ ही जाना है, उसकी खातिर बताओ क्या प्रयत्न करने हुए? प्रभू को बिसर के (निरी माया से) ना तो तृप्त हुआ जा सकता है ना ही मन प्रसन्न होता है। हे प्रभू! कृपा कर, दया कर, नानक का सहम दूर कर दे।10।

सलोक ॥ नच राज सुख मिसटं नच भोग रस मिसटं नच मिसटं सुख माइआ ॥ मिसटं साधसंगि हरि नानक दास मिसटं प्रभ दरसनं ॥१॥ लगड़ा सो नेहु मंन मझाहू रतिआ ॥ विधड़ो सच थोकि नानक मिठड़ा सो धणी ॥२॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: च = और। न च = और साथ ही। मिसटं = मीठा। रस = स्वाद, चस्के। साध संगि = साध-संगति में। दास मिसटं = दासों को मीठा लगता है। प्रभ दरसनं = प्रभू के दीदार।1।

नेहु = प्रेम। मझारु = अंदर से। रतिआ = रंगा गया है। विधड़ो = भेदा गया है। सच थोक = सच्चे नाम रूपी पदार्थ से। धणी = मालिक प्रभू।2।

अर्थ: ना ही राज के सुख, ना ही भोगों के चस्के और ना ही माया की मौजें - ये कोई भी स्वादिष्ट नहीं हैं। हे नानक! सत्संग में (मिलने से) प्रभू का नाम मीठा है और सेवक को प्रभू के दीदार मीठे लगते हैं।1।

हे नानक! जिस मनुष्य को वह प्यारा लग जाए जिससे अंदर से मन (प्रभू के साथ) रंगा जाए, और जिसका मन सच्चे नाम-रूप पदार्थ (भाव, मोती) से परोया जाए उस मनुष्य को मालिक प्रभू प्यारा लगता है।2।

पउड़ी ॥ हरि बिनु कछू न लागई भगतन कउ मीठा ॥ आन सुआद सभि फीकिआ करि निरनउ डीठा ॥ अगिआनु भरमु दुखु कटिआ गुर भए बसीठा ॥ चरन कमल मनु बेधिआ जिउ रंगु मजीठा ॥ जीउ प्राण तनु मनु प्रभू बिनसे सभि झूठा ॥११॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: आन = और। सभि = सारे। निरनउ = निर्णय, परख। बसीठा = वकील, बिचोला। चरन कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। बेधिआ = भेद दिया। जीउ = जिंद। सभि = सारे। कछू = कुछ भी।11।

अर्थ: परमात्मा (के नाम) के बिना भक्तों को और कोई चीज मीठी नहीं लगती। उन्होंने खोज के देख लिया है कि (नाम के बिना) और सारे स्वाद फीके हैं। सतिगुरू (उनके लिए) वकील बना और (प्रभू को मिलने के कारण उनका) अज्ञान भटकना और दुख सब कुछ दूर हो गया है। जैसे मजीठे से (कपड़े पर पक्का) रंग चढ़ता है, वैसे ही उनका मन प्रभू के सुंदर चरणों में (पक्की तरह से) भेदित हो जाता है। प्रभू ही उनकी जिंद-प्राण है और तन-मन है, अन्य नाशवंत प्यार उनके अंदर से नाश हो गए हैं।11।

सलोक ॥ तिअकत जलं नह जीव मीनं नह तिआगि चात्रिक मेघ मंडलह ॥ बाण बेधंच कुरंक नादं अलि बंधन कुसम बासनह ॥ चरन कमल रचंति संतह नानक आन न रुचते ॥१॥ मुखु डेखाऊ पलक छडि आन न डेऊ चितु ॥ जीवण संगमु तिसु धणी हरि नानक संतां मितु ॥२॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: तिअकत = त्याग के, छोड़ के। मीन = मछली। तिआगि = त्याग के। चात्रिक = पपीहा। मंडल = इलाका। बेधं = भेदा जाता है। च = और। कुरंक = हिरन। नादं = राग। अलि = भौरा। कुसम = फूल। बासनह = वासना, सुगंधि। आन = और कोई। रुचते = पसंद आता, भाता।1।

डेखाऊ = मैं देखूँ। पलक = आँख फड़कने जितने समय के लिए। छडि = छोड़ के। डेऊ = मैं दूँ, देऊँ। जीवण संगम = जीने का संगम। धणी = मालिक।2।

अर्थ: पानी को छोड़ के मछली जी नहीं सकती, बादलों के बिना पपीहे की भी जिंदगी नहीं है, हिरन राग के तीर से भेदा जाता है और फूलों की सुगंधि भौरे के बँधन का कारण बन जाती है। इसी तरह, हे नानक! संत प्रभू के चरणों में मस्त रहते हैं, प्रभू-चरणों के बिना उन्हें और कुछ नहीं भाता।1।

अगर एक पलक मात्र ही मैं तेरा मुख देख लूँ, तो तुझे छोड़ के मैं किसी और की तरफ चिक्त (की प्रीत) ना लगाऊँ। हे नानक! जीवन का जोड़ उस मालिक प्रभू के साथ ही हो सकता है, वह प्रभू संतों का मित्र है।2।

पउड़ी ॥ जिउ मछुली बिनु पाणीऐ किउ जीवणु पावै ॥ बूंद विहूणा चात्रिको किउ करि त्रिपतावै ॥ नाद कुरंकहि बेधिआ सनमुख उठि धावै ॥ भवरु लोभी कुसम बासु का मिलि आपु बंधावै ॥ तिउ संत जना हरि प्रीति है देखि दरसु अघावै ॥१२॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: बूँद = वर्षा की बूँद। कुरंकहि = हिरन को। बेधिआ = भेद डालता है। सनमुख = नाद के सामने, उस तरफ जिधर से घण्डेहेड़े के आवाज आती है। कुसम = फूल। बासु = सुगंधि। आपु = अपने आप को। अघावै = तृप्त हो जाते हैं। चात्रिक = पपीहा। नाद = आवाज (हिरन को पकड़ने के लिए घड़े को खाल से मढ़ के उसमें से आवाज निकालते हैं। ये आवाज हिरन को प्यारी लगती है। जिधर से ये आवाज आती है, हिरन उधर को चल पड़ता है)।12।

अर्थ: जैसे मछली पानी के बिना जी नहीं सकती, जैसे बासात की बॅूँद के बिना पपीहा तृप्त नहीं होता, जैसे (घण्डेहेड़े की) आवाज हिरन को मोहित कर लेती है, वह उधर को ही उठ दौड़ता है, जैसे भौरा फूल की सुगंधि का आशिक होता है, (फूल से) मिल के अपने आप को फसा लेता है। वैसे ही, संतों को प्रभू से प्रेम होता है, प्रभू दीदार करके वे तृप्त हो जाते हैं।12।

सलोक ॥ चितवंति चरन कमलं सासि सासि अराधनह ॥ नह बिसरंति नाम अचुत नानक आस पूरन परमेसुरह ॥१॥ सीतड़ा मंन मंझाहि पलक न थीवै बाहरा ॥ नानक आसड़ी निबाहि सदा पेखंदो सचु धणी ॥२॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: चितवंति = याद करते हैं, ध्यान धरते हैं। सासि सासि = हरेक सास के साथ। अराधनह = याद करते हैं। अचुत = (अ+च्युत, इस शब्द के उच्चारण में ‘अच’ को ‘ॅ’ के साथ पढ़ना है, ताकि उच्चारण का जोर पहले हिस्से में रहे। चयु = नाश होना। च्युत = नाश हो जाने वाला) ना नाश होने वाला।1।

मंन मंझाहि = मन में। न थीवै = नहीं होता। बाहरा = जुदा। सचु धणी = सच्चा मालिक।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू के चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं और श्वास-श्वास उसका सिमरन करते हैं, जो अविनाशी प्रभू का नाम कभी नहीं भुलाते, हे नानक! परमेश्वर उनकी आशाएं पूरी करता है।1।

जिन मनुष्यों के मन में प्रभू (सदा) परोया रहता है, जिनसे एक छिन के लिए भी जुदा नहीं होता, हे नानक! उनकी वह सच्चा मालिक आशाएं पूरी करता है और सदा उनकी संभाल करता है।2।

पउड़ी ॥ आसावंती आस गुसाई पूरीऐ ॥ मिलि गोपाल गोबिंद न कबहू झूरीऐ ॥ देहु दरसु मनि चाउ लहि जाहि विसूरीऐ ॥ होइ पवित्र सरीरु चरना धूरीऐ ॥ पारब्रहम गुरदेव सदा हजूरीऐ ॥१३॥ {पन्ना 708}

पद्अर्थ: आसावंती = जिसने आस लगाई हुई है। गुसाई = हे (गो+सांई) धरती के मालिक! पूरीअै = पूरी कर। गोपाल = हे (गो+पाल) धरती के रक्षक! न झूरीअै = चिंता ना करूँ। मनि = मन में। विसूरीअै = चिंता फिक्र।

अर्थ: हे धरती के पति! हे धरती के रखवाले! हे गोबिंद! मुझ आसवंत की आशा पूरी कर। मुझे मिल, ताकि मैं कभी तौखले चिंता ना करूँ। मेरे मन में कसक है, मुझे दीदार दे और मेरे झोरे मिट जाएं। तेरे पैरों की खाक से मेरा शरीर पवित्र हो जाए। हे प्रभू! हे गुरदेव! (मेहर कर) मैं सदा तेरी हजूरी में रहूँ।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh