श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन राम नामु निसतारा ॥ कोट कोटंतर के पाप सभि खोवै हरि भवजलु पारि उतारा ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ नगरि बसत हरि सुआमी हरि निरभउ निरवैरु निरंकारा ॥ हरि निकटि बसत कछु नदरि न आवै हरि लाधा गुर वीचारा ॥१॥ हरि आपे साहु सराफु रतनु हीरा हरि आपि कीआ पासारा ॥ नानक जिसु क्रिपा करे सु हरि नामु विहाझे सो साहु सचा वणजारा ॥२॥४॥ {पन्ना 720}

पद्अर्थ: मन = हे मन! निसतारा = पार उतारा। कोटु = किला। कोट = किले। कोटि = करोड़। कोट कोटंतर के = अनेकों किलों के, अनेकों जूनियों के। सभि = सारे। खोवै = नाश करता है। भवजलु = संसार समुंद्र।1। रहाउ।

काइआ = शरीर। नगरि = नगर में। निरंकारा = आकार रहित। निकटि = नजदीक। गुर वीचारा = गुरू की दी हुई समझ से।1।

आपे = आप ही। पासारा = खिलारा। विहाझे = खरीदता है। सचा = सदा स्थिर।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम जपा कर, (ये नाम संसार-समुंद्र से) पार उतारा कर देता है। (परमात्मा का नाम) अनेकों जूनियों के (किए) पाप नाश कर देता है, परमात्मा (सिमरन करने वाले जीव को) संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) मालिक प्रभू (हमारे) शरीर-शहर में बसता है, (फिर भी) उसे कोई डर नहीं होता, उसे किसी का वैर नहीं, उसका कोई खास आकार नहीं। परमात्मा (सदा हमारे) नजदीक बसता है, (पर हमें) दिखता नहीं (हाँ,) गुरू की बख्शी हुई सूझ से वही हरी मिल जाता है।1।

(गुरू की बख्शी हुई दाति से ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा स्वयं ही हीरा है, खुद ही रत्न है, खुद ही (इसका व्यापार करने वाला) शाहूकार है सर्राफ है, उसने खुद ही इस जगत का पसारा रचा हुआ है। हे नानक! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य उसके नाम का सौदा करता है, वह मनुष्य (नाम-रत्न का) शाहूकार बन जाता है, वह सदा के लिए (इस नाम-रत्न का) व्यापार करता रहता है।2।4।

बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि निरंजनु निरंकारा ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ सुखदाता जा का अंतु न पारावारा ॥१॥ रहाउ ॥ अगनि कुंट महि उरध लिव लागा हरि राखै उदर मंझारा ॥ सो ऐसा हरि सेवहु मेरे मन हरि अंति छडावणहारा ॥१॥ जा कै हिरदै बसिआ मेरा हरि हरि तिसु जन कउ करहु नमसकारा ॥ हरि किरपा ते पाईऐ हरि जपु नानक नामु अधारा ॥२॥५॥ {पन्ना 720}

पद्अर्थ: मन = हे मन! निरंजनु = (निर+अंजन। अंजन = माया की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। जा का = जिस (हरी) का। पारावार = पार+अवार, इस पार उस पार।1। रहाउ।

अगनि कुंट = अग्नि का कुंड। महि = में। उरध = उल्टा (लटका हुआ)। लिव लागा = सुरति जोड़े रखता है। उदर = (माँ का) पेट। मंझारा = मंझ, में। अंति = आखिरी समय।1।

कै हिरदै = के दिल में। ते = से। पाईअै = ढूँझता है। हरि जपु = हरी का जप। अधारा = आसरा।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा का नाम जपा कर, जो माया के प्रभाव से परे है, जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। हे मन! जिस (प्रभू के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस (के स्वरूप की) हद-बंदी नहीं मिलती, उस सुख देने वाले को सदा ही सिमरना चाहिए।1। रहाउ।

हे मन! जब जीव (माँ के पेट की) आग के कुंड में उल्टा लटका हुआ (उसके चरणों में) सुरति जोड़े रखता है (तब) परमात्मा (माँ के) पेट में उसकी रक्षा करता है। हे मेरे मन! ऐसी समर्था वाले प्रभू की सदा सेवा-भक्ति किया कर, आखिरी वक्त भी वही प्रभू छुड़ा सकने वाला है।1।

जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा सच्चा बसा रहता है, हे मेरे मन! उस मनुष्य के आगे सदा सिर निवाया कर। हे नानक! (कह– हे मन!) परमात्मा की कृपा से ही परमात्मा के नाम का जाप प्राप्त होता है (जिसको प्राप्त हो जाता है) नाम (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है।2।5।

बैराड़ी महला ४ ॥ जपि मन हरि हरि नामु नित धिआइ ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि फिरि दूखु न लागै आइ ॥१॥ रहाउ ॥ सो जपु सो तपु सा ब्रत पूजा जितु हरि सिउ प्रीति लगाइ ॥ बिनु हरि प्रीति होर प्रीति सभ झूठी इक खिन महि बिसरि सभ जाइ ॥१॥ तू बेअंतु सरब कल पूरा किछु कीमति कही न जाइ ॥ नानक सरणि तुम्हारी हरि जीउ भावै तिवै छडाइ ॥२॥६॥ {पन्ना 720}

पद्अर्थ: मन = हे मन! धिआइ = ध्यान धर के। नित = सदा। इछहि = तू चाहेगा। पावहि = तू हासिल कर लेगा। न लागै = नहीं लगेगा। आइ = आ के।1। रहाउ।

जितु = जिस (सिमरन) से। सो जपु = वह (सिमरन भी) जप है। झूठी = नाशवंत। सभ = सारी। बिसरि जाइ = भूल जाती है।1।

सरब = सारी। कल = ताकतें। हरि जीउ = हे प्रभू जी! भावै = (जैसे तुझे) अच्छा लगे। छडाइ = (औरों की प्रीति से) बचा ले।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा प्रभू का नाम जपा कर, प्रभू का ध्यान धरा कर, (उस प्रभू के दर से) जो कुछ माँगेगा, वही प्राप्त कर लेगा। कोई दुख भी तुझे आ के नहीं लग सकेगा।1। रहाउ।

हे मन! जिस सिमरन की बरकति से परमात्मा के साथ प्रीति बनी रहती है, वह सिमरन ही जप है, वह सिमरन ही तप है, वह सिमरन ही वर्त है, वह सिमरन ही पूजा है। प्रभू-चरणों के प्यार के बिना और (जप-तप आदि का) प्यार झूठा है, एक छिन में वह प्यार भूल जाता है।1।

हे नानक! (कह–) हे प्रभू जी! तू बेअंत है, तू सारी ताकतों से भरपूर है, तेरा मूल्य नहीं डाला जा सकता। मैं (नानक) तेरी शरण आया हूँ, जैसे तुझे ठीक लगे, मुझे अपने चरणों की प्रीति के अलावा औरों की प्रीति से बचाए रखो।2।6।

रागु बैराड़ी महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संत जना मिलि हरि जसु गाइओ ॥ कोटि जनम के दूख गवाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ जो चाहत सोई मनि पाइओ ॥ करि किरपा हरि नामु दिवाइओ ॥१॥ सरब सूख हरि नामि वडाई ॥ गुर प्रसादि नानक मति पाई ॥२॥१॥७॥ {पन्ना 720}

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जसु = यश, सिफत सालाह के गीत। गाइओ = गाया। कोटि = करोड़ों। गवाइओ = गवा दिए, दूर कर दिए।1। रहाउ।

चाहत = चाहता है। सोई = वही मुराद। मनि = मन में। पाइओ = प्राप्त कर ली। करि = कर के। दिवाइओ = (प्रभू से) दिला दिया।1।

हरि नामि = प्रभू के नाम में (जुड़ने से)। सरब = सारे। वडाई = आदर इज्ज्त। प्रसादि = कृपा से। मति = अक्ल।2।

अर्थ: हे भाई! जिस भी मनुष्य ने गुरमुखों की संगति में मिल के परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाए हैं, उसके अपने करोड़ों जन्मों के दुख दूर कर लिए है।1। रहाउ।

हे भाई! सिफत सालाह करने वाले मनुष्य ने जो कुछ भी अपने मन में चाह की, उसको वहीं प्राप्त हो गई। (गुरू ने) कृपा करके उसको (प्रभू के दर से) प्रभू का नाम भी दिलवा दिया।

हे भाई! परमात्मा के नाम में (जुड़ने से) सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं, (लोक-परलोक में) इज्जत (भी मिल जाती है)। हे नानक! (प्रभू के नाम में जुड़ने की यह) अकल गुरू की कृपा से ही मिलती है।2।1।7।

नोट:
अंक 1–महला ५ का ------1 शबद
महला ४--------------------6 शबद
महला ५--------------------1 शबद
कुल ------------------------7 शबद।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh