श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 732 सूही महला ४ ॥ हरि हरि करहि नित कपटु कमावहि हिरदा सुधु न होई ॥ अनदिनु करम करहि बहुतेरे सुपनै सुखु न होई ॥१॥ गिआनी गुर बिनु भगति न होई ॥ कोरै रंगु कदे न चड़ै जे लोचै सभु कोई ॥१॥ रहाउ ॥ जपु तप संजम वरत करे पूजा मनमुख रोगु न जाई ॥ अंतरि रोगु महा अभिमाना दूजै भाइ खुआई ॥२॥ बाहरि भेख बहुतु चतुराई मनूआ दह दिसि धावै ॥ हउमै बिआपिआ सबदु न चीन्है फिरि फिरि जूनी आवै ॥३॥ नानक नदरि करे सो बूझै सो जनु नामु धिआए ॥ गुर परसादी एको बूझै एकसु माहि समाए ॥४॥४॥ {पन्ना 732} पद्अर्थ: करहि = करते हैं। हरि हरि करहि = (ज़बानी ज़बानी) हरी नाम उचारते हैं। कपटु = छल, धोखा। कमावहि = कमाते हैं। सुधु = पवित्र। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। करम = (तीर्थ स्नान आदि निहित हुए धार्मिक) कर्म। सुपनै = सपने में भी।1। गिआनी = हे ज्ञानवान! कोरै = कोरे (कपड़े) को। लोचै = तमन्ना करे। सभु कोई = हरेक जीव।1। रहाउ। संजम = इन्द्रियों को वश करने के लिए शरीर को तंग करने वाले साधन। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अंतरि = अंदर, मन में। अभिमाना = अहंकार। दूजै भाइ = माया के प्यार में। खुआई = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है।2। मनूआ = कोझा मन। दह दिसि = दसों दिशाएं। धावै = दौड़ता है, भटकता है। बिआपिआ = फसा हुआ। चीनै = पहचानता, सांझ डालता।3। नानक = हे नानक! नदरि = मेहर की निगाह। बूझै = समझता है। परसादी = कृपा से, प्रसाद से। ऐको बूझै = एक परमात्मा के साथ ही सांझ पाता है। ऐकसु माहि = एक परमात्मा में ही।4। अर्थ: हे ज्ञानवान! गुरू की शरण पड़े बिना भगती नहीं हो सकती (मन पर प्रभू की भगती का रंग नहीं चढ़ सकता, जैसे) चाहे हरेक मनुष्य तरले करता फिरे, कभी कोरे कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता।1। रहाउ। हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की शरण में नहीं आते वैसे) ज़ुबानी-ज़ुबानी राम-राम उचारते रहते हैं, सदा धोखा-फरेब (भी) करते रहते हैं, उनका दिल पवित्र नहीं हो सकता। वह मनुष्य (तीर्थ स्नान आदि निहित) अनेकों धार्मिक कर्म हर वक्त करते रहते हैं, पर उन्हें कभी सपने में भी आत्मिक आनंद नहीं मिलता।1। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (मंत्रों का) जाप (धूनियों का) तपाना (आदिक) कष्ट देने वाले साधन करता है, ब्रत रखता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का (आत्मिक) रोग दूर नहीं होता। उसके मन में अहंकार का बड़ा रोग टिका रहता है। वह माया के मोह में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है।2। हे भाई! (गुरू से टूटा हुआ मनुष्य) लोगों को दिखाने के लिए धार्मिक भेस बनाता है, बहुत सारी चुस्ती-चालाकी दिखाता है, पर उसका कोझा मन दसों दिशाओं में दौड़ता फिरता है। अहंकार-घमंड में फसा हुआ वह मनुष्य गुरू के शबद से सांझ नहीं डालता, वह बार-बार जूनियों के चक्कर में पड़ा रहता है।3। हे नानक! (कह–हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह (आत्मिक जीवन के रास्ते को) समझ लेता है, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा का नाम सिमरता है, गुरू की कृपा से वह एक परमात्मा के साथ ही सांझ बनाए रखता है, वह एक परमात्मा में ही लीन रहता है।4।4। सूही महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरमति नगरी खोजि खोजाई ॥ हरि हरि नामु पदारथु पाई ॥१॥ मेरै मनि हरि हरि सांति वसाई ॥ तिसना अगनि बुझी खिन अंतरि गुरि मिलिऐ सभ भुख गवाई ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गुण गावा जीवा मेरी माई ॥ सतिगुरि दइआलि गुण नामु द्रिड़ाई ॥२॥ हउ हरि प्रभु पिआरा ढूढि ढूढाई ॥ सतसंगति मिलि हरि रसु पाई ॥३॥ धुरि मसतकि लेख लिखे हरि पाई ॥ गुरु नानकु तुठा मेलै हरि भाई ॥४॥१॥५॥ {पन्ना 732} पद्अर्थ: गुरमति = गुरू की मति ले के। नगरी = शरीर ( = नगरी)। खोजि = खोज कर के। खोजाई = खोज कराई। पाई = ढूँढ लिया।1। मेरै मनि = मेरे मन में। तिसना अगनि = माया की तृष्णा की आग। गुरि मिलिअै = गुरू के मिलने से।1। रहाउ। गावा = गाऊँ, मैं गाता हूँ। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। माई = हे माँ! सतिगुरि = सतिगुरू ने। दइआल = दयालु ने। द्रिढ़ाई = पक्का कर दिया है।2। हउ = मैं। ढूढाई = तलाश कराता हूँ। मिलि = मिल के।3। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। तुठा = प्रसन्न। भाई = हे भाई!।4। अर्थ: हे भाई! (गुरू ने मुझे हरी-नाम की दाति दे के) मेरे मन में ठंड डाल दी है। (मेरे अंदर से) एक छिन में (माया की) तृष्णा की आग बुझ गई है। गुरू के मिलने से मेरी सारी (माया की) भूख दूर हो गई है।1। रहाउ। हे भाई! गुरू की मति ले के मैंने अपने शरीर-नगर की अच्छी तरह खोज की है, और (शरीर में से ही) परमात्मा का कीमती नाम मैंने पा लिया है।1। हे मेरी माँ! (अब ज्यों-ज्यों) मैं परमात्मा के गुण गाता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल रहा है। दया के घर सतिगुरू ने मेरे हृदय में प्रभू के गुण पक्के कर दिए हैं, परमात्मा का नाम पक्का कर दिया है।2। हे भाई! अब मैं प्यारे हरी-प्रभू की तलाश करता हूँ, (सत्संगियों से) तलाश करवाता हूँ। साध-संगति में मिल के मैं परमात्मा के नाम का स्वाद लेता हूँ।3। हे भाई! धुर दरगाह से (जिस मनुष्य के) माथे पर प्रभू-मिलाप का लिखा लेख उघड़ता है, उस पर गुरू नानक प्रसन्न होता है और, उसको परमात्मा मिला देता है।4।1।5। नोट: घर १ के चारों शबदों का संग्रह यहीं समाप्त होता है। आगे अब ‘घरु २’ के शबद का ये पहला शबद है। सूही महला ४ ॥ हरि क्रिपा करे मनि हरि रंगु लाए ॥ गुरमुखि हरि हरि नामि समाए ॥१॥ हरि रंगि राता मनु रंग माणे ॥ सदा अनंदि रहै दिन राती पूरे गुर कै सबदि समाणे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि रंग कउ लोचै सभु कोई ॥ गुरमुखि रंगु चलूला होई ॥२॥ मनमुखि मुगधु नरु कोरा होइ ॥ जे सउ लोचै रंगु न होवै कोइ ॥३॥ नदरि करे ता सतिगुरु पावै ॥ नानक हरि रसि हरि रंगि समावै ॥४॥२॥६॥ {पन्ना 732} पद्अर्थ: मनि = मन में। रंगु = प्यार, प्रेम रंग। लाऐ = पैदा करता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। नामि = नाम में।1। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ। अनंदि = आनंद में। कै सबदि = के शबद में।1। रहाउ। कउ = को, की खातिर। लोचै = चाहता है। सभु कोई = हरेक प्राणी। चलूला = गूढ़ा।2। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मुगधु = मूर्ख। कोरा = प्यार से वंचित, रूखा। सउ = सौ बार।3। नदरि = मेहर की निगाह। रस = रस में। रंगि = रंग में।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, उसका मन आनंद लेता रहता है। वह मनुष्य दिन-रात हर वक्त आनंद में मगन रहता है।, वह पूरे गुरू की बाणी में लीन रहता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य पर मेहर करता है, उसके मन में (अपने चरणों का) प्यार पैदा करता है। वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में सदा लीन रहता है।1। हे भाई! (वैसे तो) हरेक मनुष्य प्रभू (चरणों) के प्यार की खातिर तरले लेता है, पर गुरू की शरण पड़ के ही (मन पर प्रेम का) गाढ़ा रंग चढ़ता है।2। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य प्यार से वंचित हृदय वाला ही रहता है। ऐसा मनुष्य जो सौ बार भी चाहे, उसको (प्रभू के प्यार का) रंग नहीं चढ़ सकता।3। हे नानक! (कह–जब परमात्मा किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है, तो वह गुरू (का मिलाप) प्राप्त करता है, (फिर वह) परमात्मा के नाम-रस में परमात्मा के प्रेम-रंग में समाया रहता है।4।2।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |