श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 833 बिलावलु महला ४ असटपदीआ घरु ११ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आपै आपु खाइ हउ मेटै अनदिनु हरि रस गीत गवईआ ॥ गुरमुखि परचै कंचन काइआ निरभउ जोती जोति मिलईआ ॥१॥ मै हरि हरि नामु अधारु रमईआ ॥ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु नावै गुरमुखि हरि हरि पाठ पड़ईआ ॥१॥ रहाउ ॥ एकु गिरहु दस दुआर है जा के अहिनिसि तसकर पंच चोर लगईआ ॥ धरमु अरथु सभु हिरि ले जावहि मनमुख अंधुले खबरि न पईआ ॥२॥ {पन्ना 833} पद्अर्थ: आपै = परमात्मा के आपे में। आपु = अपना आपा। खाइ = खा के, समाप्त करके। हउ = अहंम्। अनदिनु = हर रोज। हरि रस गीत = हरि नाम रस के गीत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। परचै = परच जाता है, पतीजता है। कंचन = सोना, सोने जैसी शुद्ध। काइआ = शरीर। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = जिंद।1। आधारु = आसरा। नामु रमईआ = सोहाने राम का नाम। रहि न सकउ = मै रह नहीं सकता।1। रहाउ। गिरहु = गृह, (शरीर-) घर। दुआर = दरवाजे। जा के = जिस (शरीर घर) के। अहि = दिन। निसि = रात। तसकर = चोर। पंच चोर = (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) पाँच चोर। अरथु = धन। सभु = सारा। हिरि ले जावहि = चुरा ले जाते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधुले = (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधे मनुष्य को।2। अर्थ: हे भाई! सोहाने राम का हरी-नाम मेरे वास्ते (मेरी जिंदगी का) आसरा (बन गया) है, (अब) मैं उसके नाम के बिना एक छिन एक पल भी नहीं रह सकता। गुरू की शरण पड़ कर (मैं तो) हरी-नाम का पाठ (ही) पढ़ता रहता हूँ।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त हरी-नाम रस के गीत गाता रहता है, जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के (हरी-नाम में) पसीजा रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा के) स्वै में अपना स्वै विलीन कर के (अपने अंदर से) अहंकार मिटा लेता है, (विकारों से बचे रहने के कारण) उसका शरीर सोने जैसा शुद्ध हो जाता है, उसकी जिंद निर्भय प्रभू की ज्योति में लीन रहती है।1। हे भाई! (मनुष्य का ये शरीर) एक ऐसा घर है जिसके दस दरवाजे हैं, (इन दरवाजों से) दिन-रात- (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) पाँच चोर सेंध लगाए रखते हैं, (इसके अंदर से) आत्मिक जीवन वाला सारा धन चुरा के ले जाते हैं। (आत्मिक जीवन द्वारा) अंधे हो चुके मन के मुरीद मनुष्य को (अपने लूटे जाने का) पता नहीं लगता।2। कंचन कोटु बहु माणकि भरिआ जागे गिआन तति लिव लईआ ॥ तसकर हेरू आइ लुकाने गुर कै सबदि पकड़ि बंधि पईआ ॥३॥ हरि हरि नामु पोतु बोहिथा खेवटु सबदु गुरु पारि लंघईआ ॥ जमु जागाती नेड़ि न आवै ना को तसकरु चोरु लगईआ ॥४॥ {पन्ना 833} पद्अर्थ: कंचन कोटु = सोने का किला। माणिक = ऊँचे आत्मिक गुणों से, मनकों से। जागे = जो मनुष्य जागते रहे, सचेत रहे। तति = तत्व में। गिआन तति = आत्मिक जीवन के तत्व में। लिव लईआ = सुरति जोड़ के। तसकर = चोर। हेरू = डाकू। कै सबदि = के शबद से। पकड़ि = पकड़ के। बंधि पईआ = बाँध लिए।3। पोतु = जहाज। बोहिथा = जहाज। खेवटु = मल्लाह। जागाती = मसूलिया। को तसकरु = कोई चोर। लगईआ = सेंध लगाता।4। अर्थ: हे भाई! (यह मानव शरीर, जैसे) सोने का किला (उच्च आत्मिक गुणों के) मोतियों से भरा हुआ है, (इन हीरों को चुराने के लिए लूटने के लिए कामादिक) चोर डाकू आ के (इसमें) छुपे रहते हैं। जो मनुष्य आत्मिक जीवन के श्रोत प्रभू में सुरति जोड़ के सचेत रहते हैं, वह मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा (इन चोर-डाकूओं को) पकड़ के बाँध लेते हैं।3। हे भाई! परमात्मा का नाम जहाज है जहाज़। (उस जहाज़ का) मल्लाह (गुरू का) शबद है, (जो मनुष्य इस जहाज़ का आसरा लेता है, उसको) गुरू (विकारों भरे संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। जमराज मूसलिया (भी उसके) नजदीक नहीं आता, (कामादिक) कोई चोर भी सेंध नहीं लगा सकता।4। हरि गुण गावै सदा दिनु राती मै हरि जसु कहते अंतु न लहीआ ॥ गुरमुखि मनूआ इकतु घरि आवै मिलउ गुोपाल नीसानु बजईआ ॥५॥ नैनी देखि दरसु मनु त्रिपतै स्रवन बाणी गुर सबदु सुणईआ ॥ सुनि सुनि आतम देव है भीने रसि रसि राम गोपाल रवईआ ॥६॥ {पन्ना 833} पद्अर्थ: गावै = गा रहा है। जसु = सिफत सालाह। कहते = कहते हुए। अंतु = सिफतों की सीमा। गुरमुखि = गुरू के शरण पड़ कर। इकतु = एक में ही। घरि = घर में। इकतु घरि = एक घर में ही, प्रभू चरणों में ही। आवै = आ जाता है। मिलउ = मिलूँ। नीसानु बजईआ = ढोल बजा के, निसंग हो के।5। गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द 'गोपाल' है। यहाँ पढ़ना है 'गुपाल' । नैनी = आँखों से। देखि = देख के। त्रिपतै = (और वासना से) तृप्त हुआ रहता है। स्रवन = कान। सुनि = सुन के। आतमदेव = आत्मा, जिंद। है भीने = भीगा रहता है। रसि = रस से, स्वाद से। रसि रसि = बड़े स्वाद से। रवईआ = सिमरता है।6। अर्थ: हे भाई! (मेरा मन अब) सदा दिन रात परमात्मा के गुण गाता रहता है, मैं प्रभू की सिफत-सालाह करते-करते (सिफत का) अंत नहीं पा सकता। गुरू की शरण पड़ कर (मेरा यह) मन प्रभू के चरणों में ही टिका रहता है, मैं लोक लाज दूर करके जगत पालक प्रभू को मिला रहता हूँ।5। हे भाई! आँखों से (हर जगह प्रभू के) दर्शन करके (मेरा) मन (और वासना से) तृप्त रहता है, (मेरे) कान गुरू की बाणी गुरू के शबद को (ही) सुनते रहते हैं। (प्रभू की सिफत सालाह) सुन-सुन के (मेरी) जिंद (नाम-रस में) भीगी रहती है, (मैं) बड़े आनंद से राम-गोपाल के गुण गाता रहता हूँ।6। त्रै गुण माइआ मोहि विआपे तुरीआ गुणु है गुरमुखि लहीआ ॥ एक द्रिसटि सभ सम करि जाणै नदरी आवै सभु ब्रहमु पसरईआ ॥७॥ राम नामु है जोति सबाई गुरमुखि आपे अलखु लखईआ ॥ नानक दीन दइआल भए है भगति भाइ हरि नामि समईआ ॥८॥१॥४॥ {पन्ना 833} पद्अर्थ: त्रैगुण = (रजो, सतो, तमो = माया के यह) तीन गुण, इन तीनों गुणों के असर तले रहने वाले जीव। मोहि = मोह में। विआपे = फसे हुए। तुरीआ गुण = वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता, चौथा पद। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। सभ = सारी लुकाई। सम = बराबर, एक सा। जाणै = जानता है। नदरी आवै = दिखता है। सभु = हर जगह। पसरईआ = पसरा हुआ।7। सबाई = सारी सृष्टि। गुरमुखि लखईआ = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य समझ लेता है। आपे = आप ही। अलख = वह परमात्मा जिसका सही स्वरूप नहीं समझा जा सकता। भगति भाइ = भगती के भाव से। (भाउ = प्रेम। भाइ = प्रेम से)। नामि = नाम में।8। अर्थ: हे भाई! माया के तीन गुणों के असर तले रहने वाले जीव (सदा) माया के मोह में फसे रहते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (वह) चौथा पद प्राप्त कर लेता है (जहाँ माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता)। (गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) एक (प्यार-भरी) निगाह से सारी दुनिया को एक जैसा जानता है, उसको (यह प्रत्यक्ष) दिखाई देता है (कि) हर जगह परमात्मा ही पसरा हुआ है।7। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (ये) समझ लेता है कि अलख प्रभू स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद) है, हर जगह परमात्मा का ही नाम है, सारी दुनिया में परमात्मा की ही ज्योति है। हे नानक! दीनों पर दया करने वाले प्रभू जी जिन पर मेहरवान होते हैं, वह मनुष्य भक्ति-भावना से परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।8।1। बिलावलु महला ४ ॥ हरि हरि नामु सीतल जलु धिआवहु हरि चंदन वासु सुगंध गंधईआ ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ मै हिरड पलास संगि हरि बुहीआ ॥१॥ जपि जगंनाथ जगदीस गुसईआ ॥ सरणि परे सेई जन उबरे जिउ प्रहिलाद उधारि समईआ ॥१॥ रहाउ ॥ भार अठारह महि चंदनु ऊतम चंदन निकटि सभ चंदनु हुईआ ॥ साकत कूड़े ऊभ सुक हूए मनि अभिमानु विछुड़ि दूरि गईआ ॥२॥ {पन्ना 833-834} पद्अर्थ: सीतल = ठंढ देने वाला। धिआवहु = सिमरा करो। वासु = सुगंधि। गंधईआ = सुगंधित करती है। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। हिरड = अरिंड, अरण्डी। पलास = पलाह, पलाश, छिछरा। संगि = (चंदन के) साथ। बुहीआ = सुगंधित हो जाता है।1। जपि = जपा कर। जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसईआ = धरती का पति। उबरे = विकारों से बच गए। उधारि = पार उतार करके।1। रहाउ। भार अठारह = सारी बनस्पति (प्राचीन विचार चला आ रहा है कि हरेक पौधे के एक-एक पक्ता ले के तौलने पर 18 भार तोल बनता है। एक भार बराबर है पाँच मन कच्चे का)। निकटि = नजदीक। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। ऊभ सुक = (धरती पर) खड़े हुए सूखे वृक्ष। मनि = मन में। विछुड़ि = विछुड़ के।2। अर्थ: हे भाई! जगत के नाथ, जगत के ईश्वर, धरती के पति प्रभू का नाम जपा कर। जो मनुष्य प्रभू की शरण आ पड़ते हैं, वह मनुष्य (संसार-समुंद्र में से) बच निकलते हैं, जैसे प्रहलाद (आदि भक्तों) को (परमात्मा ने संसार-समुंद्र से) पार लंघा के (अपने चरणों में) लीन कर लिया।1। रहाउ। हे प्रभू! प्रभू का नाम सिमरा करो, ये नाम ठंडक पहुँचाने वाला जल है, ये नाम चंदन की सुगंधि है जो (सारी बनस्पति को) सुगन्धित कर देती है। हे भाई! साध-संगति में मिल के सभ से ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल किया जा सकता है। जैसे अरण्डी और पलाह (आदि निकम्मे पौधे चंदन की संगति में) सुगंधित हो जाते हैं, (वैसे ही) मेरे जैसे जीव (हरी नाम की बरकति से ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं)।1। हे भाई! सारी बनस्पतियों में चंदन सबसे श्रेष्ठ (वृक्ष) है, चंदन के नजदीक (उगा हुआ) हरेक पौधा चंदन बन जाता है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया-ग्रसित प्राणी (उन पौधों जैसे हैं जो धरती से खुराक मिलने पर भी) खड़े हुए ही सूख जाते हैं, (उनके) मन में अहंकार बसता है, (इस वास्ते परमात्मा से) विछुड़ केवे कहीं दूर पड़े रहते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |