श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ४ ॥ सतगुर दइआ करहु हरि मेलहु मेरे प्रीतम प्राण हरि राइआ ॥ हम चेरी होइ लगह गुर चरणी जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखाइआ ॥१॥ राम मै हरि हरि नामु मनि भाइआ ॥ मै हरि बिनु अवरु न कोई बेली मेरा पिता माता हरि सखाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मेरे इकु खिनु प्रान न रहहि बिनु प्रीतम बिनु देखे मरहि मेरी माइआ ॥ धनु धनु वड भाग गुर सरणी आए हरि गुर मिलि दरसनु पाइआ ॥२॥ मै अवरु न कोई सूझै बूझै मनि हरि जपु जपउ जपाइआ ॥ नामहीण फिरहि से नकटे तिन घसि घसि नक वढाइआ ॥३॥ मो कउ जगजीवन जीवालि लै सुआमी रिद अंतरि नामु वसाइआ ॥ नानक गुरू गुरू है पूरा मिलि सतिगुर नामु धिआइआ ॥४॥५॥ {पन्ना 882}

पद्अर्थ: हरि = हे हरी! सतगुर मेलहु = गुरू मिला। हरि राइआ = (हरि राया) हे प्रभू पातशाह! चेरी = दासी। होइ = (होय) बन के। लगह = (वर्तमान काल, उक्तम पुरख, बहुवचन) हम लगें, मैं लगूँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता।1।

राम = हे राम! मै मनि भाइआ = मेरे मन को अच्छा लगता है। बेली = मददगार। सखाइआ = साथी।1। रहाउ।

न रहहि = नहीं रह सकते (बहुवचन)। प्रान = जिंद। मरहि = (मेरे प्राण) मर जाते हैं। माइआ = हे माँ! मिलि = (गुरू को) मिल के। हरि दरसनु = प्रभू का दर्शन।2।

मै = मुझे। अवरु = कोई और (वचन)। मनि = मन में। जपउ = जपूँ। फिरहि = फिरते हैं। से = उस (बहुवचन)। नकटे = नि+लज्ज, बेशर्म। सुआमी = हे स्वामी! रिद = हृदय। मिलि = मिल के।4।

अर्थ: हे (मेरे) राम! हे हरी! मेरे मन को तेरा नाम अच्छा लगता है। हे भाई! परमात्मा के बिना मुझे और कोई मददगार नहीं दिखता। परमात्मा ही मेरी माँ है, परमात्मा ही मेरा पिता है, परमात्मा ही मेरा साथी है।1। रहाउ।

हे हरी! हे मेरे प्रीतम! हे मेरी जिंद के पातशाह! मेहर कर, मुझे गुरू मिला। हे भाई! जिस गुरू ने (सदा) परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखाया है, मैं उसका दास बन के उसके चरणों में गिरा रहूँ।1।

हे मेरी माँ! प्रीतम (गुरू के मिलाप) के बिना मेरी जिंद एक छिन के लिए भी नहीं रह सकती, गुरू के दर्शन किए बिना मेरी (आत्मिक) मौत होती है। वह मनुष्य धन्य हैं धन्य हैं, बहुत भाग्यों वाले हैं, जो गुरू की शरण आ पड़ते हैं। गुरू को मिल के उन्होंने परमात्मा के दर्शन कर लिए हैं।2।

(हे मेरी माँ! प्रभू के नाम के जाप के बिना) मुझे कोई भी और काम नहीं सूझता (अच्छा नहीं लगता)। जैसे गुरू जपने के लिए प्रेरित करता है, मैं अपने मन में प्रभू के नाम का जाप ही जपता हूँ। हे भाई! जो मनुष्य नाम से वंचित रहते हैं, वे बेशर्मों की तरह (दुनियां में) चलते-फिरते हैं, वे अनेकों बार बेईज्जती करा के दुखी होते हैं।3।

हे जगत के जीवन प्रभू! हे मेरे मालिक प्रभू! मेरे हृदय में अपना नाम बसाए रख, और मुझे आत्मिक जीवन दिए रख। हे नानक! (इस नाम की दाति देने का समर्थ) गुरू पूरा ही है गुरू पूरा ही है। गुरू को मिल के ही प्रभू का नाम सिमरा जा सकता है।4।5।

रामकली महला ४ ॥ सतगुरु दाता वडा वड पुरखु है जितु मिलिऐ हरि उर धारे ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ हरि अम्रित नामु समारे ॥१॥ राम गुरि हरि हरि नामु कंठि धारे ॥ गुरमुखि कथा सुणी मनि भाई धनु धनु वड भाग हमारे ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि कोटि तेतीस धिआवहि ता का अंतु न पावहि पारे ॥ हिरदै काम कामनी मागहि रिधि मागहि हाथु पसारे ॥२॥ हरि जसु जपि जपु वडा वडेरा गुरमुखि रखउ उरि धारे ॥ जे वड भाग होवहि ता जपीऐ हरि भउजलु पारि उतारे ॥३॥ हरि जन निकटि निकटि हरि जन है हरि राखै कंठि जन धारे ॥ नानक पिता माता है हरि प्रभु हम बारिक हरि प्रतिपारे ॥४॥६॥१८॥ {पन्ना 882}

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दाति देने वाला। जितु = जिससे। जितु मिलिअै = जिसको मिलने से। उर = हृदय। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरू ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। समारे = संभालता है।1।

राम = हे राम! गुरि = गुरू से। कंठि = गले में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। कथा = सिफत सालाह। मनि भाई = मन को प्यारी लगी है।1। रहाउ।

कोटि = करोड़। न पावहि = नहीं पा सकते। पारे = पार, परला किनारा। हिरदै = हृदय में। कामनी = स्त्री। मागहि = माँगते हैं। रिधि = धन पदार्थ। पसारे = बिखेर के।2।

जसु = यश, सिफत सालाह। जपि = जपा कर। गुरमुखि = गुरू से। रखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। उरि = हृदय में। धारे = धार के, टिका के। भउजलु = संसार समुंद्र।3।

निकटि = नजदीक। कंठि धारे = गले से लगा के। बारिक = बालक, बच्चे।4।

अर्थ: हे मेरे राम! मैं बहुत भाग्यशाली हो गया हूँ, गुरू के द्वारा, हे हरी! तेरा नाम मैंने अपने गले में परो लिया है। गुरू की शरण पड़ कर मैंने तेरी सिफत सालाह सुनी है, और वह मेरे मन को प्यारी लग रही है।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू के नाम की दाति देने वाला गुरू ही सब से बड़ा व्यक्ति है। गुरू को मिलने से मनुष्य परमात्मा को अपने हृदय में बसा लेता है। जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने आत्मिक जीवन की दाति दे दी, वह मनुष्य प्रभू के जीवन देने वाले नाम को (हृदय में) संभाल के रखता है।1।

हे भाई! तेतीस करोड़ (देवते) परमात्मा का ध्यान धरते रहते हैं, पर उसके गुणों का अंत, गुणों का परला छोर नहीं पा सकते। (अनेकों ऐसे भी है जो अपने) हृदय में काम-वासना धार के (परमात्मा के दर से) स्त्री (ही) माँगते हैं, (उसके आगे) हाथ पसार के (दुनिया के) धन पदार्थ (ही) माँगते हैं।2।

हे भाई! परमात्मा की सिफत-सालाह किया कर, परमात्मा के नाम का जाप ही सबसे बड़ा काम है। मैं तो गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम ही अपने हृदय में बसाता हॅूँ। हे भाई! यदि (कोई) अति भाग्यशाली हो तो ही हरी-नाम जपा जा सकता है (जो मनुष्य जपता है उसको) संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है।3।

हे भाई! संत जन परमात्मा के नजदीक बसते हैं, परमात्मा संतजनों के पास बसता है। परमात्मा अपने सेवकों को अपने गले से लगा के रखता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा हमारा पिता है, परमात्मा हमारी माँ है। हमें बच्चों को परमात्मा ही पालता है।4।6।18।

रागु रामकली महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किरपा करहु दीन के दाते मेरा गुणु अवगणु न बीचारहु कोई ॥ माटी का किआ धोपै सुआमी माणस की गति एही ॥१॥ मेरे मन सतिगुरु सेवि सुखु होई ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि दूखु न विआपै कोई ॥१॥ रहाउ ॥ काचे भाडे साजि निवाजे अंतरि जोति समाई ॥ जैसा लिखतु लिखिआ धुरि करतै हम तैसी किरति कमाई ॥२॥ मनु तनु थापि कीआ सभु अपना एहो आवण जाणा ॥ जिनि दीआ सो चिति न आवै मोहि अंधु लपटाणा ॥३॥ जिनि कीआ सोई प्रभु जाणै हरि का महलु अपारा ॥ भगति करी हरि के गुण गावा नानक दासु तुमारा ॥४॥१॥ {पन्ना 882}

पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल। दाते = हे दातें देने वाले! किआ धोपै = क्या धुल सकता है? (मिट्टी की मैल) कभी नहीं धुल सकती (मिट्टी को धोते जाईए और मिट्टी सामने आती जाएगी)। सुआमी = हे मालिक! गति = हालत, दशा।1।

मन = हे मन! सेवि = शरण पड़ा रह। इछहु = माँगेगा। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

काचे भांडे = नाशवंत शरीर। साजि = बना के। निवाजे = वडिआई महिमा दी है, बड़प्पन दिया हुआ है। समाई = टिकी हुई है। लिखतु = लेख। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = करतार ने। किरति = कार।2।

थापि कीआ = समझ लिया, मिथ लिया। ऐहो = यह मिथ ही, ये अपनत्व ही। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। चिति = चिक्त में। मोह = (इस जीवात्मा और शरीर के) मोह में। मनु = जिंद, जीवात्मा। अंधु = अंधा मनुष्य।3।

जिनि = जिस (प्रभू) ने। सेई = वह (प्रभू) ही। महलु = ठिकाना, ऊँचा आसन। अपारा = बेअंत, जिसका परला किनारा नहीं पाया जा सकता। करी = मैं करूँ। गावा = मैं गाता रहूँ।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की शरण पड़ा रह (गुरू के दर पर रहने से ही) आनंद मिलता है। (गुरू के दर पर रह के) जो कामना (तू) करेगा, वही फल हासिल कर लेगा। (इस तरह) कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

हे गरीबों पर बख्शिश करने वाले प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मेरा कोई गुण ना विचारना, मेरा कोई अवगुण ना बिचारना (मेरे अंदर तो अवगुण ही अवगुण हैं)। (जैसे पानी से धोने पर) मिट्टी को धोया नहीं जा सकता, हे मालिक प्रभू! हम जीवों की भी यही हालत है।1।

हे भाई! (हमारे यह) नाशवंत शरीर बना के (परमात्मा ने ही इनको) बड़प्पन दिया हुआ है (क्योंकि इन नाशवंत शरीरों के) अंदर उसकी ज्योति टिकी हुई है। हे भाई! (हमारे किए हुए कर्मों के अनुसार) करतार ने धुर-दरगाह से जैसे (संस्कारों के) लेख (हमारे अंदर) लिख दिए हैं, हम जीव (अब भी) वैसे ही कर्मों की कमाई किए जाते हैं।2।

हे भाई! मनुष्य इस जीवात्मा को, इस शरीर को सदा अपना माने रहता है, यह अपनत्व ही (मनुष्य के लिए) जनम-मरण (के चक्कर का कारण बनी रहती) है। जिस परमात्मा ने ये प्राण (जीवात्मा) दिए हैं ये शरीर दिया है वह उसके चिक्त में (कभी) नहीं बसता, अंधा मनुष्य (जिंद और शरीर के) मोह में फसा रहता है।3।

हे भाई! जिस परमात्मा ने (यह खेल) बनाया है वह (इसको चलाना) जानता है, उस परमात्मा का ठिकाना अपहुँच है (जीव उस परमात्मा की रजा को मर्जी को समझ नहीं सकता)। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मैं तेरा दास हूँ (मेहर कर) मैं तेरी भक्ति करता रहूँ, मैं तेरे गुण गाता रहूँ।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh