श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 900 रामकली महला ५ ॥ ईंधन ते बैसंतरु भागै ॥ माटी कउ जलु दह दिस तिआगै ॥ ऊपरि चरन तलै आकासु ॥ घट महि सिंधु कीओ परगासु ॥१॥ ऐसा सम्रथु हरि जीउ आपि ॥ निमख न बिसरै जीअ भगतन कै आठ पहर मन ता कउ जापि ॥१॥ रहाउ ॥ प्रथमे माखनु पाछै दूधु ॥ मैलू कीनो साबुनु सूधु ॥ भै ते निरभउ डरता फिरै ॥ होंदी कउ अणहोंदी हिरै ॥२॥ देही गुपत बिदेही दीसै ॥ सगले साजि करत जगदीसै ॥ ठगणहार अणठगदा ठागै ॥ बिनु वखर फिरि फिरि उठि लागै ॥३॥ संत सभा मिलि करहु बखिआण ॥ सिम्रिति सासत बेद पुराण ॥ ब्रहम बीचारु बीचारे कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥४॥४३॥५४॥ {पन्ना 900} पद्अर्थ: ईधन ते = ईधन से, लकड़ी से। बैसंतरु = आग। कउ = को। दहदिस = दसों तरफ। ऊपरि = ऊपर की ओर। तलै = नीचे की तरफ। आकासु = ऊपर वाला हिस्सा, सिर। घट महि = घड़े में। सिंधु = समुंद्र, बेअंत प्रभू।1। संम्रथु = समर्थता वाला, सभ ताकतों का मालिक। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। जीअ भगतन कै = भक्तों की जीवात्मा में से। मन = हे मन! ता कउ = उस (प्रभू) को। जापि = जपता रह।1। रहाउ। प्रथमे = पहले। पाछै = पीछे। मैलू = मैल को, माता के लहू को। सूधु = शुद्ध, सफेद (दूध)। भै ते = डरों से। निरभउ = जीव जो असल में डर रहित प्रभू की अंश है। होंदी कउ = अस्तित्व वाली जीवात्मा को। अणहोंदी = जिसकी कोई (अलग) हस्ती नहीं। हिरै = चुरा लेती है, ठग लेती है।2। देही = देह के मालिक, शरीर की मालिक आत्मा। बिदेही = जो आत्मा नहीं, शरीर। साजि = सजा के। जगदीसै = जगदीश ही, जगत का मालिक ही। ठगणहार = (सबको) ठगने वाली माया। अणठगदा = (परमात्मा की अंश जीव) जो ठॅगी नहीं जाना चाहिए। वखर = सौदा, नाम पूँजी। बिनु वखर = नाम की पूँजी से वंचित। फिरि फिरि = बार बार। उठि = उठ के। लागै = माया में फसता है, माया को चिपकता है।3। बखिआण = विचार, व्याख्या। बीचारे कोइ = (बीचारे कोय) जो कोई बिचारता है। ता की = उस मनुष्य की। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: हे मन! परमात्मा खुद बहुत सारी ताकतों का मालिक हैं वह परमात्मा अपने भक्तों के मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं बिसरता। हे मन! तू भी उसको आठों पहर जपा कर।1। रहाउ। (हे मन! देख उस प्रभू की आश्चर्यजनक ताकतें!) लकड़ी से आग परे भागती है (लकड़ी में आग हर वक्त मौजूद है, पर उसको जलाती नहीं)। (समुंद्र का) पानी धरती को हर तरफ से त्यागे रहता है (धरती समुंद्र में रहती है, पर समुंद्र इसको डुबोता नहीं)। (वृक्ष के) पैर (जड़ें) ऊपर की ओर हैं, और सिर नीचे की तरफ है। घड़े में (छोटे-छोटे शरीरों में) समुंद्र-प्रभू अपना आप प्रकाशित करता है।1। (हे भाई! पहले दूध होता है, उस दूध को मथने से उस दूध का तत्व-मक्खन बाद में निकलता है। पर देख! सृष्टि का तत्व-) मक्खन परमात्मा पहले ही मौजूद है, ओर (उसका पसारा-जगत) दूध बाद में (बनता) है (जगत-पसारे रूप दूध में तत्व-प्रभू-मक्खन सर्व-व्यापक है)। (जीवों की पालना के लिए) मैल को (माँ के लहू को) शुद्ध साबन जैसा सफेद दूध बना देता है। निर्भय-प्रभू का अंश जीव दुनिया के अनेकों डरों से डरता फिरता है, माया जीव को भगाए फिरती है।2। हे भाई! शरीर की मालिक आत्मा (शरीर में) छुपी रहती है, सिर्फ शरीर दिखाई देता है। सारे जीवों को पैदा करके जगत का मालिक प्रभू (अनेकों करिश्मे) करता रहता है। ठॅगनी-माया जीव को सदा ठॅगती रहती है। नाम की पूँजी से वंचित जीव बार-बार माया को चिपकता है।3। हे नानक! (कह- हे भाई!) संत-सभा में मिल के स्मृतियों-शास्त्रों-वेद-पुराणों की व्याख्या करके (बेशक) देख लें (इस ठगने वाली माया से बचा नहीं जा सकता)। जो कोई मनुष्य सत्संग में परमात्मा के गुणों की विचार विचारता है उसी की ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था बनती है।4।43।54। रामकली महला ५ ॥ जो तिसु भावै सो थीआ ॥ सदा सदा हरि की सरणाई प्रभ बिनु नाही आन बीआ ॥१॥ रहाउ ॥ पुतु कलत्रु लखिमी दीसै इन महि किछू न संगि लीआ ॥ बिखै ठगउरी खाइ भुलाना माइआ मंदरु तिआगि गइआ ॥१॥ निंदा करि करि बहुतु विगूता गरभ जोनि महि किरति पइआ ॥ पुरब कमाणे छोडहि नाही जमदूति ग्रासिओ महा भइआ ॥२॥ बोलै झूठु कमावै अवरा त्रिसन न बूझै बहुतु हइआ ॥ असाध रोगु उपजिआ संत दूखनि देह बिनासी महा खइआ ॥३॥ जिनहि निवाजे तिन ही साजे आपे कीने संत जइआ ॥ नानक दास कंठि लाइ राखे करि किरपा पारब्रहम मइआ ॥४॥४४॥५५॥ {पन्ना 900} पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है, पसंद आता है। थीआ = हो रहा है। आन = अन्य। बीआ = दूसरा।1। रहाउ। कलत्र = स्त्री। दीसै = (जो कुछ) दिखता है। किछू = कुछ भी। संगि = साथ। बिखै ठगउरी = विषयों भरी ठॅग बूटी (धतूरा)। खाइ = (खाय) खा के। भुलाना = सही राह से भटकता रहता है। मंदरु = सुंदर घर।1। करि करि = बार बार करके। विगूता = ख्वार होता है। किरति = किए अनुसार। पइआ = पड़ गया। पूरब कमाणे = पूर्बले जन्मों के किए काम। जमदूति = जम दूत ने। ग्रासिओ = काबू कर लिया। भइआ = भयानक।2। अवरा = और ही। कमावै = कर्म करता है। हइआ = 'है है', हाय हाय (हाय माया हाय माया = ये आग लगी रहती है)। असाध = लाइलाज, जिसका इलाज ना हो सके। दूखनि = निंदा के कारण। देह = शरीर। खइआ = खई रोग, (क्षय रोग)।3। जिनहि = जिस (प्रभू) ने। निवाजे = आदर सत्कार दिया है। तिन ही = (तिनि ही) उस (प्रभू) ने ही। साजे = पैदा किए हुए हैं। आपे = आप ही। जइआ = जयी, जीत के मालिक। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। करि = कर के। मइआ = दया।4। अर्थ: हे भाई! जो कुछ प्रभू को अच्छा लगता है वही हो रहा है। (इस वास्ते) सदा ही उस प्रभू की शरण पड़ा रह। प्रभू के बिना कोई और दूसरा (कुछ करने के योग्य) नहीं है।1। रहाउ। हे भाई! पुत्र, स्त्री, माया - ये जो कुछ दिखाई दे रहा है, इनमें से कुछ भी (अंत के समय जीव) अपने साथ नहीं ले के जाता। विषौ-विकारों की ठॅगबूटी खा के जीव गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, आखिर में ये माया, ये सुंदर घर (सब कुछ) छोड़ के चला जाता है।1। हे भाई! जीव दूसरों की निंदा कर कर के बहुत ख्वार होता रहता है, और अपने इस किए अनुसार जनम-मरण के चक्कर में जा पड़ता है। (ये आम असूल की बात है कि) पूर्बले किए कर्मों के संस्कार जीव को छोड़ते नहीं हैं, और बहुत भयानक जमदूत इसे काबू में किए रखता है।2। (माया के मोह की ठॅगबूटी खा के माया की खातिर जीव) झूठ बोलता है (मुँह से बोलता और है, और,) करता कुछ और है, इसकी माया की भूख मिटती नहीं, माया की 'हाय हाय' सदा इसको लगी रहती है। संत जनों की निंदा करने के कारण (माया की तृष्णा का) ला-इलाज रोग (जीव के अंदर) पैदा हो जाता है इस बड़े क्षय रोग में ही इसका शरीर नाश हो जाता है।3। (पर, हे भाई! संत जनों की निंदा से जीव को कुछ भी हासिल नहीं होता) प्रभू ने स्वयं ही संत जनों को जीत का मालिक बनाया होता है, उन्हें उसी प्रभू ने पैदा किया हुआ है जिसने उनको आदर-सम्मान दिया हुआ है। हे नानक! परमात्मा मेहर करके दया करके अपने दासों को खुद ही अपने गले से लगाए रखता है।4।44।55। रामकली महला ५ ॥ ऐसा पूरा गुरदेउ सहाई ॥ जा का सिमरनु बिरथा न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ दरसनु पेखत होइ निहालु ॥ जा की धूरि काटै जम जालु ॥ चरन कमल बसे मेरे मन के ॥ कारज सवारे सगले तन के ॥१॥ जा कै मसतकि राखै हाथु ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथु ॥ पतित उधारणु क्रिपा निधानु ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबानु ॥२॥ निरमल मंतु देइ जिसु दानु ॥ तजहि बिकार बिनसै अभिमानु ॥ एकु धिआईऐ साध कै संगि ॥ पाप बिनासे नाम कै रंगि ॥३॥ गुर परमेसुर सगल निवास ॥ घटि घटि रवि रहिआ गुणतास ॥ दरसु देहि धारउ प्रभ आस ॥ नित नानकु चितवै सचु अरदासि ॥४॥४५॥५६॥ {पन्ना 900} पद्अर्थ: गुरदेव = गुरू। सहाई = सहायता करने वाला, मददगार। जा का सिमरनु = जिसका दिया हुआ हरी सिमरन का उपदेश। बिरथा = व्यर्थ।1। रहाउ। पेखत = देखते हुए। निहालु = प्रसन्न। जम जालु = जम की फाही। मेरे = मेरे (ष्गुरू) ने। चरन कमल = सोहणे चरन। मन के तन के सगले कारज = (उस मनुष्य के) मन और शरीर के सारे काम।1। जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। अनाथ को नाथु = अनाथों का सहारा (मिल जाता है)। पतित उधारणु = विकारों में गिरे हुओं को बचाने वाला। निधानु = खजाना। कुरबानु = सदके। जाईअै = जाना चाहिए।2। निरमल मंतु = पवित्र उपदेश। देइ = (देय) देता है। तजहि = छोड़ जाते हैं। बिनसै = नाश हो जाता है। साध कै संगि = गुरू की संगति में। कै रंगि = के रंग में, की मौज में।3। सगल = सब जीवों में। घटि घटि = हरेक शरीर में। गुणतास = गुणों का खजाना। देहि = तू दे (शब्द 'देइ' और 'देहि' का अंतर समझना चाहिए)। धारउ = मैं धरता हूँ, मैं रखता हूँ। प्रभ = हे प्रभू! नानक चितवै = नानक याद करता रहे। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू।4। अर्थ: हे भाई! पूरा गुरू ऐसी मदद करने वाला है कि उसका दिया हुआ हरी-सिमरन का उपदेश व्यर्थ नहीं जाता।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू के) दर्शन करने से (मनुष्य तन से मन से) खिल उठता है, उस गुरू के चरणों की धूल जमों की फाही काट देती है। हे भाई! प्यारे गुरू के सुंदर चरण (जिस मनुष्य के हृदय में) आ बसते हैं, (उसके) मन के (उसके) शरीर के सारे काम (गुरू) सँवार देता है।1। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (गुरू अपना) हाथ रखता है उसको मेरा वह प्रभू (मिल जाता है) जो निआसरों का आसरा है। हे भाई! गुरू विकारों में गिरे हुओं को विकारों से बचाने वाला है, गुरू कृपा का खजाना है। हे भाई! गुरू से सदा ही बलिहार जाना चाहिए।2। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू अपना पवित्र उपदेश बख्शता है, सारे विकार उसको छोड़ जाते हैं उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे भाई! गुरू की संगति में रह के एक परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। (गुरू के द्वारा) परमात्मा के प्रेम-रंग में रहने से सारे पापों का नाश हो जाता है।3। हे भाई! गुरू-परमात्मा सब जीवों में बसता है, सारे गुणों का खजाना हरेक हृदय में मौजूद है। हे प्रभू! मुझे अपने दर्शन दे, मैं तेरे दर्शनों की आस रखे बैठा हूँ। यही मेरी अरदास है कि (तेरा सेवक) नानक सदा-स्थिर प्रभू को याद करता रहे।4।45।56। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |