श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 944 सहज भाइ मिलीऐ सुखु होवै ॥ गुरमुखि जागै नीद न सोवै ॥ सुंन सबदु अपर्मपरि धारै ॥ कहते मुकतु सबदि निसतारै ॥ गुर की दीखिआ से सचि राते ॥ नानक आपु गवाइ मिलण नही भ्राते ॥५४॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: सहज भाइ = सहज अवस्था के भाव में, अडोलता में पहुँच के। सुंन सबदु = निरगुण प्रभू की सिफत सलाह की बाणी। अपरंपरि = अपरंपर में, बेअंत प्रभू में। सबदि = शबद से। दीखिआ = वह शिक्षा जिससे सिख अपने आप को गुरू के हवाले करता है। भ्राते = भ्रांति, भटकना। अर्थ: अगर अडोलता में रह के (प्रभू को) मिलें तो (सम्पूर्ण) सुख होता है। जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है वह सचेत रहता है (माया की) नींद में नहीं सोता, परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी उसको बेअंत प्रभू में टिकाए रखती है, (इस बाणी को) उचार-उचार के गुरमुख अहंकार से स्वतंत्र हो जाता है और (औरों को) इस शबद के माध्यम से मुक्त कराता है। हे नानक! जिन्होंने गुरू की शिक्षा ग्रहण की है वह सच्चे प्रभू में रंगे गए हैं, अहंकार को मिटा के उनका मेल (प्रभू से) हो जाता है, (मन की) भटकना मिट जाती है।54। कुबुधि चवावै सो कितु ठाइ ॥ किउ ततु न बूझै चोटा खाइ ॥ जम दरि बाधे कोइ न राखै ॥ बिनु सबदै नाही पति साखै ॥ किउ करि बूझै पावै पारु ॥ नानक मनमुखि न बुझै गवारु ॥५५॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: चवावै = चुका दे, दूर कर दे। सो = ये बात। कित ठाइ = किस जगह पर? दरि = दर पर। पति साख = इज्जत और एतबार। पारु = परला छोर। अर्थ: (प्रश्न:) ये बात किस जगह पर हो सकती है कि मनुष्य अपनी दुर्मति दूर कर ले? मनुष्य क्यों अस्लियत नहीं समझता और दुखी होता है, जम के दर पर बँधे हुए की कोई सहायता नहीं कर सकता, सतिगुरू के शबद के बिना इसकी कहीं इज्जत नहीं, ऐतबार नहीं (भाव, गुरू के शबद ना चलने के कारण मनुष्य लोगों में अपनी इज्जत व ऐतबार गवा लेता है, दुनियां की मौजों में फसे होने के कारण मौत से भी हर वक्त डरता है, ऐसी चोटें खाता रहता है, दुखी रहता है, फिर भी अस्लियत को नहीं समझता। ऐसा क्यों?)। हे नानक! मनमुख मूर्ख समझता नहीं, ये कैसे समझे और ('दुष्तर सागर' के) उस पार लगे?।55। कुबुधि मिटै गुर सबदु बीचारि ॥ सतिगुरु भेटै मोख दुआर ॥ ततु न चीनै मनमुखु जलि जाइ ॥ दुरमति विछुड़ि चोटा खाइ ॥ मानै हुकमु सभे गुण गिआन ॥ नानक दरगह पावै मानु ॥५६॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: भेटै = मिले। दुरमति = बुरी अकल के कारण। चोटा खाइ = मार खाता है, दुखी होता है। अर्थ: (उक्तर:) सतिगुरू का शबद विचारने से दुर्मति दूर होती है। जब गुरूमिल जाता है, तब इस दुर्मति से मुक्ति का राह (भी) मिल जाता है। (पर) जो मनुष्य मन के पीछे चलता है वह अस्लियत को नहीं पहचानता, (विकारों में) जलता रहता है दुर्मति के कारण (प्रभू से) विछुड़ के दुखी होता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू का हुकम मानता है, उसमें सारे गुण आ जाते हैं, उसे सारी सूझ प्राप्त हो जाती है, और वह प्रभू की हजूरी में आदर पाता है।56। साचु वखरु धनु पलै होइ ॥ आपि तरै तारे भी सोइ ॥ सहजि रता बूझै पति होइ ॥ ता की कीमति करै न कोइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ नानक पारि परै सच भाइ ॥५७॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: पलै होइ = हासिल किया हो। सोइ = वह मनुष्य। सहजि = सहज में, अडोलता में। पति = आदर, इज्जत। सच भाइ = सच के भाव में, सच्चे प्रभू के अनुसार हो के, सच्चे के अनुसार रह के। अर्थ: जिस मनुष्य ने नाम-धन रूपी सच्चा-सौदा कमाया है वह स्वयं ('दुष्तर सागर' से) पार होता है और (औरों को भी) पार करा देता है, अडोल अवस्था में रह कर अस्लियत को समझता है और आदर पाता है। ऐसे मनुष्य का कोई मोल नहीं कर सकता। हे नानक! सच्चे की रजा में रहके वह मनुष्य ('दुष्तर सागर' से) पार लांघ जाता है, जिधर देखता है उधर प्रभू ही प्रभू उसको व्यापक दिखाई देता है।57। (नोट: पौड़ी नं:55 के शब्द 'पारु' और यहाँ आए शब्द 'पारि' में फर्क याद रखें। 'पारु' है 'संज्ञा' (परला किनारा) 'पारि' है 'क्रिया विशेषण' (परले किनारे पर) )। सु सबद का कहा वासु कथीअले जितु तरीऐ भवजलु संसारो ॥ त्रै सत अंगुल वाई कहीऐ तिसु कहु कवनु अधारो ॥ बोलै खेलै असथिरु होवै किउ करि अलखु लखाए ॥ सुणि सुआमी सचु नानकु प्रणवै अपणे मन समझाए ॥ गुरमुखि सबदे सचि लिव लागै करि नदरी मेलि मिलाए ॥ आपे दाना आपे बीना पूरै भागि समाए ॥५८॥ {पन्ना 844} पद्अर्थ: सु = उस। जितु = जिस (शबद) से। कथीअले = कहा जाए। त्रै सत = तीन और सात, दस। वाई = प्राण। (नोट: जोगियों के ख्याल के अनुसार सांस बाहर की तरफ निकालने से दस उंगलियों के फासले तक जाती है, फिर सांस अंदर की ओर खींचते हैं)। त्रै सत अंगुल वाई = दस उंगली प्रमाण, प्राण। कहु = बताओ। कवनु = कौन सा? सुणि = सुन के। मन समझाऐ = कैसे अपने मन को समझाएं? (नोट: पहली चार तुकों में जोगी का प्रश्न है, पाँचवीं तुक में उक्तर शुरू होता है)। गुरमुखि = गुरू के हुकम के अनुसार चलने वाला मनुष्य। सबदे = शबद के द्वारा। सचि = सच्चे प्रभू में। नदरी = मेहर की नजर। दाना = दिल की जानने वाला प्रभू। बीना = पहचानने वाला। पूरै भागि = ऊँची किस्मत से। समाऐ = (प्रभू में) लीन रहता है। अर्थ: (प्रश्न:) जिस शबद से संसार-समुंद्र तैरा जाता है उस शबद का ठिकाना कहाँ कहा जा सकता है? 'प्राण' (भाव, श्वास) को दस-अंगुली-प्रमाण कहा जाता है बताओ, इसका आसरा क्या है? (जो जीवात्मा इस शरीर में) बोलती और कलोल करती है वह सदा के लिए कैसे अडोल हो सकती है और कैसे उस प्रभू को देखें जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं है। नानक कहता है (जोगियों ने पूछा-) हे स्वामी! सच्चे प्रभू की बात सुन के मनुष्य अपने मन को कैसे सद्बुद्धि दे सकता है? (उक्तर:) जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है, गुरू के शबद द्वारा उसकी लिव सच्चे प्रभू में लग जाती है, (और, प्रभू) मेहर की नजर करके उसको अपने में जोड़ लेता है, (क्योंकि) प्रभू (उसके दिल की) स्वयं ही जानता है, स्वयं ही पहचानता है। (इस तरह) ऊँची किस्मत से (गुरमुख मनुष्य प्रभू में) लीन रहता है।58। सु सबद कउ निरंतरि वासु अलखं जह देखा तह सोई ॥ पवन का वासा सुंन निवासा अकल कला धर सोई ॥ नदरि करे सबदु घट महि वसै विचहु भरमु गवाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी नामुो मंनि वसाए ॥ सबदि गुरू भवसागरु तरीऐ इत उत एको जाणै ॥ चिहनु वरनु नही छाइआ माइआ नानक सबदु पछाणै ॥५९॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: कउ = को। निरंतरि = एक रस। (नोट: पौड़ी नं:21 में जोगी का प्रश्न है: 'सुंन कहा घर वासै'। पौड़ी नं:23 में सतिगुरू जी का जवाब है: 'सुंन निरंतरि वासु लीआ'। इसी तरह पौड़ी नं: 58 में प्रश्न है: 'सु सबद का कहा वासु'। यहाँ उक्तर है: 'सु सबद कउ निरंतरि वासु'। भाव, 'सुंन' और 'सबद' दोनों का 'निरंतरि वासु' है। इसका भाव ये है कि गुरू नानक देव जी की नजरों में 'प्रभू' और उसकी सिफतसालाह का 'शबद' एक रूप हैं)। देखा = देखता हूँ। पवन = शबद, गुरू का शबद, प्रभू की सिफत-सालाह का शबद। (नोट: 'त्रै सत अंगुल वाई' का उक्तर पौड़ी नं: 60 में है। सो, यहाँ 'पवन' का अर्थ 'वायु' अथवा 'हवा' नहीं है। भाई गुरदास जी लिखते हैं- 'पवन गुरू गुरसबदु है,' भाव, 'पवन' 'गुरसबदु' है)। अकल = (संस्कृत: अकल = नास्ति कला अवयवो यस्य) जिसके टुकड़े टुकड़े नहीं हैं, पूरन पारब्रहम। कलाधार = सक्ता धरने वाला। नामुो = (अक्षर 'म' को दो मात्राएं हैं, पढ़ना 'मो' है। देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। मंनि = मन में। भव = संसार। छाइआ = प्रभाव, साया। अर्थ: (जिस शबद से 'दुष्तर सागर' तैरा जाता है) उस 'शबद' को एकरस जगह (निरंतर) (मिली हुई) है (भाव, वह शबद हर जगह भरपूर है), 'शबद' अलख (प्रभू का रूप) है, मैं जिधर देखता हूँ वह शबद ही शबद है, जैसे अफुर प्रभू का वास (हर जगह) है वैसे ही 'शबद' का वास (हर जगह) व्यापक है।'शबद' वही है जो संपूर्ण सक्ताधारी (प्रभू) है (भाव, 'प्रभू' और प्रभू की सिफतसालाह का 'शबद' एक ही हैं)। जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उसके हृदय में ये 'शबद' बसता है, वह मनुष्य हृदय में से भटकना दूर कर लेता है, उसका तन उसका मन और उसकी बाणी पवित्र हो जाती है। प्रभू का नाम ही वह मनुष्य अपने मन में बसाए रखता है। सतिगुरू के 'शबद' के द्वारा संसार-समुंद्र पार किया जाता है। (जो पार हो गया है वह) यहाँ और वहाँ (इस लोक में और परलोक में हर जगह) एक प्रभू को व्यापक जानता है। हे नानक! जो मनुष्य इस 'शबद' को पहचान लेता है 'शबद' के साथ गहरी सांझ बना लेता है उस पर माया का प्रभाव नहीं रहता और उसका अपना अलग चिन्ह और वर्ण नहीं रह जाता (भाव, उसका अपना अलगपना मिट जाता है, उसके अंदर से मेर-तेर दूर हो जाती है)।59। त्रै सत अंगुल वाई अउधू सुंन सचु आहारो ॥ गुरमुखि बोलै ततु बिरोलै चीनै अलख अपारो ॥ त्रै गुण मेटै सबदु वसाए ता मनि चूकै अहंकारो ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ता हरि नामि लगै पिआरो ॥ सुखमना इड़ा पिंगुला बूझै जा आपे अलखु लखाए ॥ नानक तिहु ते ऊपरि साचा सतिगुर सबदि समाए ॥६०॥ {पन्ना 944} पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! आहारो = खुराक, आसरा। बोलै = जपता है। ततु = अस्लियत। विरोलै = मथता है। ईड़ा = बाई नासिका की नाड़ी। पिंगुला = दाहिनी नासिका की नाड़ी। सुखमना = बीच की नाड़ी जहाँ प्राणायाम के वक्त श्वास टिकाए जाते हैं। तिहु ते = तिन से, ईड़ा = पिंगला और सुखमना के अभ्यास से, प्राणयाम से। मनि = मन में से। चूकै = खत्म हो जाता है। अर्थ: (उक्तर:) हे जोगी! दस-उंगली-प्रमाण प्राणों की खुराक अफुर सच्चा प्रभू है (भाव, हरेक सांस में प्रभू का नाम ही जपना है, प्रभू का नाम ही प्राणों का आसरा है) जो मनुष्य गुरू के हुकम में चल के (श्वास-श्वास प्रभू का नाम) जपता है, वह अस्लियत (भाव, जगत के मूल को) हासिल कर लेता है (प्रभू के साथ गहरी सांझ बना लेता है)। जब मनुष्य गुरू का शबद हृदय में बसाता है (शबद की बरकति से माया का) त्रै-गुणी प्रभाव मिटा लेता है, तब उसके मन में अहंकार का नाश हो जाता है। (इस तरह) जब वह अपने अंदर और बाहर (जगत में) एक प्रभू को ही देखता है, तब उसका प्यार प्रभू के नाम में बन जाता है। हे नानक! जब अलख प्रभू अपना आप लखाता है (अर्थात अपने स्वरूप की समझ बख्शता है), तब गुरमुख ईड़ा-पिंगला और सुखमना को समझ लेता है (भाव, गुरमुख को ये समझ आ जाती है कि) सदा कायम रहने वाला प्रभू ईड़ा-पिंगा व सुखमना के अभ्यास से ऊपर है, उसमें तो सतिगुरू के शबद द्वारा ही समाया जाता है।60। मन का जीउ पवनु कथीअले पवनु कहा रसु खाई ॥ गिआन की मुद्रा कवन अउधू सिध की कवन कमाई ॥ बिनु सबदै रसु न आवै अउधू हउमै पिआस न जाई ॥ सबदि रते अम्रित रसु पाइआ साचे रहे अघाई ॥ कवन बुधि जितु असथिरु रहीऐ कितु भोजनि त्रिपतासै ॥ नानक दुखु सुखु सम करि जापै सतिगुर ते कालु न ग्रासै ॥६१॥ {पन्ना 944-945} पद्अर्थ: जीउ = जिंद, आसरा। पवनु = प्राण। रसु = खुराक। कहा = कहाँ? मुद्रा = साधन। अउधू = हे जोगी! सिध = जोग साधना में सिद्धस्त योगी। कवन कमाई = क्या मिल जाता है? अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। कितु भोजनि = किस भोजन से? त्रिपतासै = तृप्त रहा जाता है। सम = बराबर, एक समान। ग्रासै = ग्रसता, व्यापता। अर्थ: (प्रश्न:) मन का आसरा प्राण कहें जाते हैं, प्राण कहाँ से खुराक़ लेते हैं? (भाव, प्राणों का आसरा कौन है?) हे जोगी! ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है? जोग-साधना में सिद्धस्थ योगी को क्या प्राप्त हो जाता है? (उक्तर:) हे जोगी! सतिगुरू के शबद के बिना (प्राणों को) रस नहीं आता (भाव, गुरू का शबद ही प्राणों का आसरा है, प्राणों की खुराक़ है)। गुरू-शबद के बिना अहंकार की प्यास नहीं मिटती। जो मनुष्य गुरू के शबद में रंगे जाते हैं, उनको सदा टिके रहने वाला नाम-रस मिल जाता है, वे सच्चे प्रभू में तृप्त रहते हैं ( भाव, नाम में जुड़ के संतोषी हो जाते हैं)। (प्रश्न:) वह कौन सी मति है जिसके माध्यम से मन सदा टिका रह सकता है? कौन सी खुराक़ से मन सदा तृप्त रह सके? (उक्तर:) हे नानक! सतिगुरू से (जो मति मिलती है उससे) दुख और सुख एक-समान प्रतीत होने लगते हैं, सतिगुरू से (जो नाम-भोजन मिलता है, उसके सदका) मौत (का डर) छू भी नहीं सकता।61। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |