श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु नट नाराइन महला ४

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मेरे मन जपि अहिनिसि नामु हरे ॥ कोटि कोटि दोख बहु कीने सभ परहरि पासि धरे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु जपहि आराधहि सेवक भाइ खरे ॥ किलबिख दोख गए सभ नीकरि जिउ पानी मैलु हरे ॥१॥ खिनु खिनु नरु नाराइनु गावहि मुखि बोलहि नर नरहरे ॥ पंच दोख असाध नगर महि इकु खिनु पलु दूरि करे ॥२॥ वडभागी हरि नामु धिआवहि हरि के भगत हरे ॥ तिन की संगति देहि प्रभ जाचउ मै मूड़ मुगध निसतरे ॥३॥ क्रिपा क्रिपा धारि जगजीवन रखि लेवहु सरनि परे ॥ नानकु जनु तुमरी सरनाई हरि राखहु लाज हरे ॥४॥१॥ {पन्ना 975}

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। कोटि = करोड़। दोख = पाप। परहरि = दूर करके। पासि धरे = किनारे रखे रह जाते हैं।1। रहाउ।

जपहि = जपते हैं। आराधहि = आराधते हैं। सेवक भाइ = सेवकों वाली भावना से। खरे = अच्छे, सच्चे जीवन वाले। किलबिख = पाप। गऐ नीकरि = निकल गए। हरे = दूर करता है।

नरु नाराइनु = परमात्मा (कृष्ण जी का नाम)। मुखि = मुँह से। नर नरहरे = परमात्मा। पंच = पाँच। असाध = काबू में ना आ सकने वाले। करे = कर देता है। नगर = शरीर नगर।2।

वडभागी = भाग्यशाली। हरे = हरी के। प्रभू = हे प्रभू! जाचउ = याचना करता हूँ, मैं माँगता हूँ। मुगध = मूर्ख। निसतरे = निस्तारा हो जाता है, पार लांघ जाते हैं।3।

जग जीवन = हे जगत के जीवन प्रभू! जनु = दास। लाज = इज्जत। हरे = हे हरी!।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम दिन-रात (सदा) जपा कर। अगर अनेकों और करोड़ों पाप भी किए हुए हों, तो (परमात्मा का नाम) सबको दूर कर के (मनुष्य के हृदय में से) किनारे फेंक देता है।1। रहाउ।

हे मेरे मन! जो मनुष्य सेवक-भावना से परमात्मा का नाम जपते-आराधते हैं, वह सच्चे जीवन वाले बन जाते हैं। (जो प्राणी नाम जपता है उसके अंदर से) सारे विकार सारे पाप (इस तरह) निकल जाते हैं, जैसे पानी (कपड़ों की) मैल दूर कर देता है।1।

हे मेरे मन! (जो मनुष्य) हर छिन (हर पल) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते हैं मुँह से परमात्मा का नाम उचारते रहते हैं, (कामादिक) पाँच विकार जो काबू में नहीं आ सकते और जो (आम तौर पर जीवों के) शरीर में (टिके रहते हैं), (परमात्मा का नाम उनके शरीर में से) एक पल एक छिन में ही दूर कर देता है।2।

हे मेरे मन! परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग बहुत भाग्यशाली लोग परमात्मा का नाम (हर वक्त) सिमरते रहते हैं। हे प्रभू! ऐसे भक्तों की संगति मुझे बख्श! मेरे जैसे अनेकों मूर्ख (उनकी संगति में रह के संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।3।

हे जगत के आसरे प्रभू! मेहर कर, मेहर कर, मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मुझे (इन पाँचों से) बचा ले। हे हरी! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है (नानक की) इज्जत रख ले।4।1।

नट महला ४ ॥ राम जपि जन रामै नामि रले ॥ राम नामु जपिओ गुर बचनी हरि धारी हरि क्रिपले ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि अगम अगोचरु सुआमी जन जपि मिलि सलल सलले ॥ हरि के संत मिलि राम रसु पाइआ हम जन कै बलि बलले ॥१॥ पुरखोतमु हरि नामु जनि गाइओ सभि दालद दुख दलले ॥ विचि देही दोख असाध पंच धातू हरि कीए खिन परले ॥२॥ हरि के संत मनि प्रीति लगाई जिउ देखै ससि कमले ॥ उनवै घनु घन घनिहरु गरजै मनि बिगसै मोर मुरले ॥३॥ हमरै सुआमी लोच हम लाई हम जीवह देखि हरि मिले ॥ जन नानक हरि अमल हरि लाए हरि मेलहु अनद भले ॥४॥२॥ {पन्ना 975}

पद्अर्थ: जपि = जप के। नामि = नाम में। रले = लीन हो जाते हैं। जन = दास। गुर बचनी = गुरू के वचनों द्वारा। क्रिपले = कृपा।1। रहाउ।

अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु) इन्द्रियों की पहुँच से परे। मिलि = मिल के। सलल = पानी। सलले = पानी में। जन कै = जनों से। बलि बलले = बलिहार, सदके।1।

पुरखोतमु = उक्तम पुरख, सर्व व्यापक प्रभू। जनि = (जिस) जन ने। सभि = सारे। दालद = दलिद्र। दलले = दले गए। देही = शरीर। पंच धातू = पाँच कामादिक विकार। परले = प्रलय, नाश।2।

मनि = मन में। ससि = चंद्रमा। कमले = कमल फूल को। उनवै = झुकता है। घनु = बादल। घन = बहुत। घनिहरु = बादल। गरजै = गरजता है। बिगसै = खुश होता है। मोर मुरले = नृत्य करने वाला मोर।3।

लोच = तमन्ना, लगन। जीवह = हम जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मिले = मिल के। अमल = (अफीम आदि जैसा) नशा। भले = सोहणे।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के सेवक परमात्मा के नाम में ही लीन हो जाते हैं। (पर) गुरू के बचनों पर चल के परमात्मा का नाम (सिर्फ उस मनुष्य ने) जपा है (जिस पर) परमात्मा ने खुद मेहर की है।1। रहाउ।

हे भाई! मालिक प्रभू अपहुँच है, इन्द्रियों के माध्यम से उस तक पहुँच नहीं हो सकती। उसके भगत उसका नाम जप के (ऐसे हो जाते हैं जैसे) पानी में पानी मिल के (एक रूप हो जाता है)। हे भाई! जिन संत जनों ने (साध-संगति में) मिल के परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, मैं उन संत जनों से सदके हूँ, कुर्बान हूँ।1।

हे भाई! जिस सेवक ने उक्तम पुरख प्रभू का नाम जपा, प्रभू ने उसके सारे दुख-दलिद्र नाश कर दिए। मानस-शरीर में कामादिक पाँच बली विकार बसते हैं, (नाम जपने वाले के अंदर से) प्रभू ये विकार एक छिन में नाश कर देता है।2।

हे भाई! संत-जनों के मन में परमात्मा ने (अपने चरणों में) प्रीति इस तरह लगाई है, जैसे (चकोर) चंद्रमा को (प्यार से) देखता है, जैसे (भँवरा) कमल के फूल को देखता है, जैसे नाचता हुआ मोर अपने मन में (तब) खुश होता है (जब) बादल झुकते हैं और बहुत गरजते हैं।3।

हे भाई! मेरे मालिक प्रभू ने मेरे अंदर (अपने नाम की) लगन लगा दी है, मैं उसको देख-देख के उसके चरणों में जुड़ के आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। हे दास नानक! (कह-) हे हरी! तूने खुद ही मुझे अपने नाम का नशा लगाया है, मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख, इसी में ही मुझे सुंदर आनंद है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh