श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माली गउड़ा महला ४ ॥ मेरे मन हरि भजु सभ किलबिख काट ॥ हरि हरि उर धारिओ गुरि पूरै मेरा सीसु कीजै गुर वाट ॥१॥ रहाउ ॥ मेरे हरि प्रभ की मै बात सुनावै तिसु मनु देवउ कटि काट ॥ हरि साजनु मेलिओ गुरि पूरै गुर बचनि बिकानो हटि हाट ॥१॥ मकर प्रागि दानु बहु कीआ सरीरु दीओ अध काटि ॥ बिनु हरि नाम को मुकति न पावै बहु कंचनु दीजै कटि काट ॥२॥ हरि कीरति गुरमति जसु गाइओ मनि उघरे कपट कपाट ॥ त्रिकुटी फोरि भरमु भउ भागा लज भानी मटुकी माट ॥३॥ कलजुगि गुरु पूरा तिन पाइआ जिन धुरि मसतकि लिखे लिलाट ॥ जन नानक रसु अम्रितु पीआ सभ लाथी भूख तिखाट ॥४॥६॥ छका १ ॥ {पन्ना 986}

पद्अर्थ: मन = हे मन! भजु = भजन कर। किलबिख = पाप। उर = हृदय। गुरि पूरे = पूरे गुरू ने। सीसु = सिर। कीजै = करना चाहिए (भेंट)। वाट = रास्ता।1। रहाउ।

मै = मुझे। बार = सिफत सालाह की बात। तिसु = उस (मनुष्य) को। देवउ = देऊँ, मैं दूँ। कटि = काट के। मेलिओ = मिलाया। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। गुर बचनि = गुरू के वचनों द्वारा। हटि = हाट पर। हटि हाट = हाट हाट पर, दुकान दुकान पर।1।

मकर = मकर राशि के वक्त, जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, माघ की संक्रांति को। प्रागि = प्रयाग तीर्थ पर। काटि = काट के (करवत्र से काशी जा के)। को = कोई भी मनुष्य। कंचनु = सोना। दीजै = अगर दिया जाए।2।

कीरति = सिफत सालाह। गुरमति = गुरू की मति ले के। जसु = सिफत सालाह, यश। मनि = मन में। कपट कपाट = किवाड़। त्रिकुटी = (त्रि = तीन। कुटी = टेढ़ी लकीर) माथे पर पड़ी तीन टेढ़ी लकीरें, त्योड़ी, मन की खीझ। फोरि = तोड़ के, देर करके। भरमु = भटकना। भउ = डर (एक वचन)। लज = लोक लाज (की)। मटुकी = छोटी सी मटकी।3।

कलजुगि = कलजुग में, कलेशों भरे जगत में। तिन् = (बहुचवचन) उन्होंने। जिन् मसतकि = जिनके माथे पर। लिलाट = माथा। धुरि = धर से, प्रभू के हुकम अनुसार। रसु अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। सभ = सारी। तिखाट = तिख, त्रेह, प्यास।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, हरी का नाम सारे पाप दूर करने वाला है। पर ये हरी-नाम सदा पूरे गुरू ने ही (प्राणी के) हृदय में बसाया है, (मेरे अच्छे भाग्य हों, यदि) मेरा सिर (ऐसे) गुरू के रास्ते में (भेटा) किया जाए।1। रहाउ।

हे भाई! जो कोई मुझे प्यारे प्रभू की सिफत-सालाह की बात सुनाए, मैं उसको अपना मन टुकड़े-टुकड़े कर के दे दूँ। हे भाई! पूरे गुरू ने ही सज्जन प्रभू मिलाया है। गुरू के वचनों की बरकति से मैं उसका हाट-हाट बिका (हुआ गुलाम) बन चुका हूँ।1।

हे भाई! किसी ने तो माघ की संक्रांति पर प्रयाग तीर्थ पर (जा के) बहुत दान किया, किसी ने काशी जा के करवत्र से अपना शरीर दो-फाड़ करवा लिया (पर ये सब कुछ व्यर्थ ही गया, क्योंकि) परमात्मा के नाम के सिमरन के बिना कोई भी मनुष्य मुक्ति (विकारों से निजात) हासिल नहीं कर सकता, चाहे तीर्थों पर जा के बहुत सारा सोना भी थोड़ा-थोड़ा करके अनेकों को दान कर दिया जाए।2।

हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू की मति पर चल कर परमात्मा की सिफत-सालाह की, प्रभू का यश गाया, उसके मन के भीतर के किवाड़ खुल गए (मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई)। सिफत-सालाह की बरकति से मन की खीझ दूर करने से जिस मनुष्य के अंदर से हरेक किस्म का वहम और डर दूर हो गया, उसकी लोक-लाज की मटुकी भी टूट गई (जो वह सदा अपने सिर पर उठाए फिरता था)।3।

हे दास नानक! (कह-) इस जगत में पूरा गुरू उन प्राणियों ने ही पाया है, जिनके माथे पर धुर से ही ऐसे लेख लिखे होते हैं। (ऐसे लोगों ने जब गुरू की कृपा से) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीया, उनकी माया वाली सारी भूख-प्यास उतर गई।4।6।

छका = छक्का, छह शबदों का जोड़।


माली गउड़ा महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रे मन टहल हरि सुख सार ॥ अवर टहला झूठीआ नित करै जमु सिरि मार ॥१॥ रहाउ ॥ जिना मसतकि लीखिआ ते मिले संगार ॥ संसारु भउजलु तारिआ हरि संत पुरख अपार ॥१॥ नित चरन सेवहु साध के तजि लोभ मोह बिकार ॥ सभ तजहु दूजी आसड़ी रखु आस इक निरंकार ॥२॥ इकि भरमि भूले साकता बिनु गुर अंध अंधार ॥ धुरि होवना सु होइआ को न मेटणहार ॥३॥ अगम रूपु गोबिंद का अनिक नाम अपार ॥ धनु धंनु ते जन नानका जिन हरि नामा उरि धार ॥४॥१॥ {पन्ना 986}

पद्अर्थ: टहल हरि = परमात्मा की सेवा भक्ति। सार = श्रेष्ठ। करै = करता है। जमु = मौत, आत्मिक मौत। सिरि = सिर पर। मार = चोट।1। रहाउ।

मसतकि = माथे पर। ते = वह लोग (बहुवचन)। संगार = सतसंग में। भउजलु = समुंद्र। अपार = बेअंत।1।

साध के = गुरू के। तजि = छोड़ के। आसड़ी = काई आस।2।

इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई लोग। भरमि = भुलेखे में। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए।

साकत = प्रभू से टूटे हुए। अंध अंधार = बिल्कुल अंधे, आत्मिक जीवन की ओर से बिल्कुल अंधे। धुरि = धुर से, प्रभू की रजा के अनुसार। को = कोई भी जीव। मेटणहार = मिटा सकने लायक।3।

अगम = अपहुँच। धनु धंनु = भाग्यशाली। ते जन = वह लोग। उरि = हृदय में।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की सेवा-भगती असल सुख देने वाली है। अन्य (लोगों की) टहलें व्यर्थ हैं, (और-और टहलों खुशामदों के कारण) आत्मिक मौत (मनुष्य के) सिर पर सदा सवार रहती है।1। रहाउ।

हे मन! जिन मनुष्यों के माथे पर (अच्छे भाग्य) लिखे होते हैं वह सत्संग में मिलते हैं, (सत्संग में) बेअंत और सर्व-व्यापक हरी के संत-जन (उनको) संसार-समुंद्र से पार लंघा देते हैं।1।

हे मन! लोभ-मोह आदि विकार छोड़ के सदा गुरू के चरणों में पड़ा रह। हे मन! प्रभू के बिना किसी और की कोई आस त्याग दे। एक परमात्मा की ही आस रख।2।

हे मन! कई ऐसे लोग (जगत में) हैं, जो परमात्मा से टूटे रहते हैं, और (माया की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं, गुरू के बिना वे आत्मिक जीवन से बिल्कुल ही अंधे होते हैं। (पर, उनके भी क्या वश?) प्रभू की रजा के अनुसार जो होना होता है वही हो के रहता है। उस होनी को कोई भी जीव मिटा नहीं सकता।3।

हे मन! परमात्मा की हस्ती अपहुँच है, बेअंत प्रभू के अनेकों ही नाम हैं (उसके अनेकों गुणों के कारण)। हे नानक! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाया हुआ है।4।1।

माली गउड़ा महला ५ ॥ राम नाम कउ नमसकार ॥ जासु जपत होवत उधार ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै सिमरनि मिटहि धंध ॥ जा कै सिमरनि छूटहि बंध ॥ जा कै सिमरनि मूरख चतुर ॥ जा कै सिमरनि कुलह उधर ॥१॥ जा कै सिमरनि भउ दुख हरै ॥ जा कै सिमरनि अपदा टरै ॥ जा कै सिमरनि मुचत पाप ॥ जा कै सिमरनि नही संताप ॥२॥ जा कै सिमरनि रिद बिगास ॥ जा कै सिमरनि कवला दासि ॥ जा कै सिमरनि निधि निधान ॥ जा कै सिमरनि तरे निदान ॥३॥ पतित पावनु नामु हरी ॥ कोटि भगत उधारु करी ॥ हरि दास दासा दीनु सरन ॥ नानक माथा संत चरन ॥४॥२॥ {पन्ना 986}

पद्अर्थ: कउ = को। नमसकार = सिर झुकाओ, आदर से हृदय में बसाओ। जासु जपत = जिसका जाप करने से। उधार = उद्धार, (संसार समुंद्र से) पार उतारा।1। रहाउ।

जा कै सिमरनि = जिस (प्रभू) का सिमरन करने से। मिटहि = मिट जाते हैं (बहुवचन)। धंध = धंधे, जंजाल। बंध = बँधन, जंजाल। कुलह उधर = सारी कुल का पार उतारा।1।

हरै = (मनुष्य) दूर कर लेता है। अपदा = आपदा, बिपता। टरै = टल जाती है। मुचत = समाप्त हो जाती है। संताप = कलेश।2।

रिद बिगास = हृदय का खिलाव। कवला = माया। दासि = दासी। निधि = नौ निधियां। निधान = खजाने। तरे = पार लांघ जाता है। निदान = अंत को, आखिर में।3।

पतित = विकारों में गिरे हुए। पावनु = पवित्र करने वाला। कोटि = करोड़ों। करी = करता है। दीनु = निमाणा। संत चरन = संतों के चरणों पर। नानक माथा = नानक का माथा।4।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम जपने से (संसार-समुंद्र से) पार उतारा हो जाता है, उसके नाम को आदर-सत्कार से अपने हृदय में बसाए रख।1। रहाउ।

जिसके सिमरन से माया के जंजाल मिट जाते हैं (मन पर प्रभाव नहीं डाल सकते), मोह के जंजाल टूट जाते हैं, सारी कुल का ही पार-उतारा हो जाता है (उसको सदा नमस्कार करता रह)।1।

जिसके सिमरन की बरकति से मनुष्य हरेक डर व सारे दुख दूर कर लेता है, जिसके सिमरन से (हरेक) विपत्ति (मनुष्य के सिर से) टल जाती है। जिसके सिमरन से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है। जिसके सिमरन से कोई दुख-कलेश छू नहीं सकता (उस प्रभू को सदा सिर झुकाता रह)।2।

जिसका सिमरन करने से हृदय खिला रहता है, माया (भी) दासी बन जाती है, (इस लोक में, मानो) सारी निधियां और सारे खजाने (मिल जाते हैं), और अंत में मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है (उसको सदा सिमरता रह)।3।

हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है, हरी-नाम करोड़ों भक्तों का उद्धार करता है। नानक का माथा भी संतों के चरणों पर पड़ा है, ये निमाणा भी प्रभू के दासों के दासों की शरण आया है (ता कि नानक को भी परमात्मा का नाम मिल जाए)।4।2।

माली गउड़ा महला ५ ॥ ऐसो सहाई हरि को नाम ॥ साधसंगति भजु पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥ बूडत कउ जैसे बेड़ी मिलत ॥ बूझत दीपक मिलत तिलत ॥ जलत अगनी मिलत नीर ॥ जैसे बारिक मुखहि खीर ॥१॥ जैसे रण महि सखा भ्रात ॥ जैसे भूखे भोजन मात ॥ जैसे किरखहि बरस मेघ ॥ जैसे पालन सरनि सेंघ ॥२॥ गरुड़ मुखि नही सरप त्रास ॥ सूआ पिंजरि नही खाइ बिलासु ॥ जैसो आंडो हिरदे माहि ॥ जैसो दानो चकी दराहि ॥३॥ बहुतु ओपमा थोर कही ॥ हरि अगम अगम अगाधि तुही ॥ ऊच मूचौ बहु अपार ॥ सिमरत नानक तरे सार ॥४॥३॥ {पन्ना 986-987}

पद्अर्थ: अैसो = इस प्रकार का, ऐसा (जैसा आगे बताया जा रहा है)। सहाई = मददगार। को = का। भजु = जपा कर। काम = काम, मनोरथ।1। रहाउ।

बूडत = डूबते। कउ = को। बूझत = बुझ रहे। दीपक = दीया। तिलत = तेल। अगनी = आग (में)। जलत = जलते हुए को। नीर = पानी। मुखहि = मुँह में। खीर = दूध।1।

रण = लड़ाई, युद्ध। सखा = सहायक। भ्रात = भाई। भोजन मात = भोजन मात्र, सिर्फ भोजन ही। किरखहि = खेती को। बरस मेघ = बादल का बरसना। पालन = रक्षा। सेंघ = सिंघ, सिंह, शेर, बहादर।2।

गरुड़ = गारुड़ मंत्र। मुखि = मुँह में। सरप = साँप। त्रास = डर। सूआ = तोता। पिंजरि = पिंजरे में। बिलासु = बिल्ला। आंडो = (कूँज का) अण्डा। हिरदे माहि = याद में। दानो = दाने। चकी दराहि = चक्की के दर पे, चक्की की किल्ली से।3।

ओपमा = उपमा, दृष्टांत। थोर = थोड़ी ही। कही = कही है। अगम = अपहुँच। अगाधि = अथाह। तुही = तू ही (सहायता करने वाला)। मूचौ = बड़ा। सार = लोहा, विकारों से भरे हुए, लोहे की तरह भारे।4।

अर्थ: हे भाई! साध-संगति में (टिक के) परमात्मा का नाम जपा कर। तेरे सारे मनोरथ पूरे होते रहेंगे। हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह मददगार होता है।1। रहाउ।

जैसे डूब रहे को बेड़ी मिल जाए, जैसे बुझ रहे दीए को तेल मिल जाए जैसे आग में जल रहे को पानी मिल जाए, जैसे (भूख से बिलख रहे) बच्चे के मुँह में दूध पड़ जाए।1।

(हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे युद्ध में भाई मददगार होता है, जैसे किसी भूखे को भोजन ही सहायक होता है, जैसे खेती को बादलों का बरसना, जैसे (किसी अनाथ को) शेर (बहादुर) की शरण में रक्षा मिलती है।2।

(हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे जिसके मुँह में गारुड़ मंत्र हो उसको साँप का डर नहीं होता, जैसे पिंजरे में बैठे तोते को बिल्ला नहीं खा सकता, जैसे कुँज की याद में टिके हुए उसके अण्डे (खराब नहीं होते), जैसे दाने चक्के की किल्ली से (टिके हुए पिसने से बचे रहते हैं)।3।

हे भाई! मैंने तो ये थोड़े से ही दृष्टांत दिए हैं, बहुत सारे बताए जा सकते हैं (कि परमात्मा का नाम सहायता करता है)। हे अपहुँच हरी! हे अथाह हरी! तू ही (जीवों का रक्षक है)। हे हरी! तू ऊँचा है, तू बड़ा है, तू बेअंत है। हे नानक! (कह-) नाम सिमरने से पापों से लोहे की तरह भारे हो चुके जीव भी संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं।4।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh