श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ३ घरु ५ असटपदी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिस नो प्रेमु मंनि वसाए ॥ साचै सबदि सहजि सुभाए ॥ एहा वेदन सोई जाणै अवरु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥ आपे मेले आपि मिलाए ॥ आपणा पिआरु आपे लाए ॥ प्रेम की सार सोई जाणै जिस नो नदरि तुमारी जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ दिब द्रिसटि जागै भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥ सो जोगी इह जुगति पछाणै गुर कै सबदि बीचारी जीउ ॥२॥ संजोगी धन पिर मेला होवै ॥ गुरमति विचहु दुरमति खोवै ॥ रंग सिउ नित रलीआ माणै अपणे कंत पिआरी जीउ ॥३॥ {पन्ना 1016}

पद्अर्थ: मंनि = मन में। साचै सबदि = सदा स्थिर शबद में। सुभाऐ = प्यार में। ऐहा वेदन = ये (प्रेम की) वेदना। वेदन = पीड़ा, वेदना, चुभन। सोई = वही मनुष्य। कि जाणै = क्या जानता है? नहीं जान सकता। कारी = इलाज। जीउ = हे भाई!।1।

जिस नो: संबंधक 'नो' के कारण शब्द 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

आपे = (प्रभू) स्वयं ही। मेले, मिलाऐ = मिलाता है। सार = कद्र। नदरि = मेहर की निगाह।1। रहाउ।

दिब = (दिव्य, Divine) देवाताओं वाली, ईश्वरीय, आत्मिक जीवन में रोशनी देने वाली। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगाह। भरमु = भटकना। चुकाऐ = दूर कर देती है। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा दर्जा। जुगति = युक्ति, ढंग, तरीका। कै सबदि = के शबद द्वारा। बीचारी = विचारवान, ऊँचे जीवन की सूझ वाला।2।

संजोगी = संयोगी, संयोग से, परमात्मा द्वारा निहित सबब से, पिछले संस्कारों के अनुसार। धन = जीव स्त्री। पिर = पिता, प्रभू पति। गुरमति = गुरू की शिक्षा ले के। विचहु = अपने अंदर से। दुरमति = खोटी मति। रंग सिउ = प्रेम से। कंत पिआरी = कंत की प्यारी।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं (जीव को अपने चरणों के साथ) जोड़ता है, स्वयं ही मिलाता है। (जीव के हृदय में) अपना प्यार परमात्मा स्वयं ही पैदा करता है।

हे प्रभू! (तेरे) प्यार की कद्र (भी) वही जीव जान सकता है, जिस पर तेरी मेहर की निगाह होती है।1। रहाउ।

हे भाई! (परमात्मा) जिस मनुष्य के मन में (अपना) प्यार बसाता है, वह मनुष्य प्रभू की सदा-स्थिर सिफत-सालाह की बाणी में (जुड़ा रहता है), आत्मिक अडोलता में (टिका रहता है) प्रभू प्यार में (लीन रहता है), (प्रेम की चुभन का यही एक इलाज है)। वही मनुष्य इस वेदना को समझता है, कोई और मनुष्य (जिसके अंदर ये चुभन ये वेदना नहीं है, इस पीड़ा का) इलाज नहीं जानता।1।

(हे भाई! जिस मनुष्य के मन में प्रभू अपना प्यार बसाता है उसके अंदर) आत्मिक जीवन का प्रकाश देने वाली निगाह जाग उठती है (और वह निगाह उसकी) भटकना दूर कर देती है। गुरू की कृपा से (वह मनुष्य) सबसे ऊँचा आत्मिक जीवन का दर्जा प्राप्त कर लेता है। (जो मनुष्य) इस जुगति को समझ लेता है वह (सही अर्थों में) जोगी है; गुरू के शबद की बरकति से वह ऊँचे जीवन की सूझ वाला हो जाता है।2।

हे भाई! अच्छे भाग्यों से जिस जीव स्त्री का प्रभू-पति के साथ मिलाप हो जाता है, वह गुरू की मति पर चल कर अपने अंदर से खोटी मति नाश कर देती है, वह प्रेम के सदका प्रभू-पति के साथ आत्मिक मिलाप का आनंद भोगती है, वह अपने प्रभू-पति की लाडली बन जाती है।3।

सतिगुर बाझहु वैदु न कोई ॥ आपे आपि निरंजनु सोई ॥ सतिगुर मिलिऐ मरै मंदा होवै गिआन बीचारी जीउ ॥४॥ एहु सबदु सारु जिस नो लाए ॥ गुरमुखि त्रिसना भुख गवाए ॥ आपण लीआ किछू न पाईऐ करि किरपा कल धारी जीउ ॥५॥ अगम निगमु सतिगुरू दिखाइआ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ॥ अंजन माहि निरंजनु जाता जिन कउ नदरि तुमारी जीउ ॥६॥ गुरमुखि होवै सो ततु पाए ॥ आपणा आपु विचहु गवाए ॥ सतिगुर बाझहु सभु धंधु कमावै वेखहु मनि वीचारी जीउ ॥७॥ {पन्ना 1016}

पद्अर्थ: बाझहु = बिना। वैदु = (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) वैद्य, हकीम। आपे = स्वयं ही। निरंजनु = (निर+अंजनु, माया के मोह की कालिख से रहित) निर्लिप। सतिगुर मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। मंदा = बुरा। गिआन बीचारी = ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार कर सकने वाला।4।

सारु = श्रेष्ठ। गुरमुखि = गुरू की शरण डाल के। गवाऐ = दूर कर देता है। आपणा लीआ = अपने उद्यम से हासिल किया हुआ। कल = सक्ता। धारी = धारता है, पाता है।5।

अगम = आगम, शास्त्र। निगमु = वेद। अगम निगमु = शास्त्रों वेदों का (यह) तत्व (कि 'आपण लीआ किछू न पाईअै, करि किरपा कल धारी जीउ')। सतिगुरू = गुरू के द्वारा। करि = कर के। अपनै घरि = अपने असल घर में, प्रभू के चरणों में। अंजन माहि = माया के पसारे में। जिन कउ = जिन पर।6।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। सो = वह मनुष्य। ततु = तत्व, निचोड़, असल नतीजा। आपु = स्वै भाव। धंधु = माया के मोह में फसाने वाला काम काज। मनि = मन में। वीचारी = विचार के।7।

अर्थ: हे भाई! (प्रेम की वेदना का इलाज करने वाला) हकीम गुरू के बिना और कोई नहीं है (जिसका इलाज गुरू कर देता है उसको यह दिखाई दे जाता है कि) वह निर्लिप परमात्मा स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद है)। हे भाई! अगर गुरू मिल जाए तो (मनुष्य के अंदर से) बुराई मिट जाती है, मनुष्य ऊँचे आत्मिक जीवन की विचार करने के योग्य हो जाता है।4।

हे भाई! गुरू का यह श्रेष्ठ शबद जिसके हृदय में परमात्मा बसा देता है, (उसको) गुरू की शरण में डाल कर (उसके अंदर से) माया की तृष्णा माया की भूख दूर कर देता है। हे भाई! अपनी बुद्धि के बल पर (आत्मिक जीवन का) कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। परमात्मा स्वयं ही मेहर करके यह सक्ता (मनुष्य के अंदर) डालता है।5।

(हे जोगी! यह निश्चय कि 'आपण...धारी जीउ' - यही है हमारे वास्ते 'अगम निगमु') प्रभू ने कृपा करके गुरू के द्वारा (जिस मनुष्य को यह) 'अगम निगमु' दिखा दिया, वह मनुष्य अपने असल घर में आ टिकता है।

हे प्रभू! जिन पर तेरी मेहर की निगाह होती है, वह मनुष्य इस माया के पसारे में तुझ निर्लिप को बसता हुआ पहचान लेते हैं।6।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है, वह (यह) अस्लियत पा लेता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर देता है। हे भाई! अपने मन में विचार कर के देख ले कि गुरू की शरण पड़े बिना हरेक जीव माया के मोह में फसने वाली दौड़-भाग ही कर रहा है।7।

इकि भ्रमि भूले फिरहि अहंकारी ॥ इकना गुरमुखि हउमै मारी ॥ सचै सबदि रते बैरागी होरि भरमि भुले गावारी जीउ ॥८॥ गुरमुखि जिनी नामु न पाइआ ॥ मनमुखि बिरथा जनमु गवाइआ ॥ अगै विणु नावै को बेली नाही बूझै गुर बीचारी जीउ ॥९॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता ॥ गुरि पूरै जुग चारे जाता ॥ जिसु तू देवहि सोई पाए नानक ततु बीचारी जीउ ॥१०॥१॥ {पन्ना 1016}

पद्अर्थ: इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन) कई। भ्रमि = भुलेखे में। भूले = गलत राह पर पड़े हुए। इकना = कई मनुष्यों ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में। रते = रंगे हुए। बैरागी = माया के मोह से उपराम, (जोगियों का एक अंग)। होरि = ('होर' एकवचन है, 'होरि' बहुवचन)। गवारी = मूर्ख, अंजान।8।

मनमुखि = मन के मुरीद लोगों ने। बिरथा = व्यर्थ। अगै = परलोक में। को = कोई। बेली = मददगार। गुर बीचारी = गुरू के शबद के विचार से। बूझै = समझता है।9।

अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। गुरि पूरै = पूरे गुरू से। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। जाता = जाना जाता है, समझ पड़ती है। तू देवहि = (हे प्रभू!) तू देता है। नानक = हे नानक! ततु बीचारी = अस्लियत को समझने वाला।10।

अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो भुलेखे में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़े हुए (अपने इस गलत त्याग पर ही) मान करते फिरते हैं। कई ऐसे हैं जिन्होंने गुरू की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लिया है। हे भाई! असल बैरागी वह हैं जो सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में रंगे हुए हैं, बाकी मूर्ख (अपने त्याग के) भुलेखे में गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं।8।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं किया, उन मन के मुरीदों ने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली है। हे भाई! परलोक में परमात्मा के नाम के बिना और कोई मददगार नहीं है। पर इस बात को गुरू के शबद के विचार के द्वारा ही (कोई विरला मनुष्य) समझता है।9।

हे नानक! (कह- हे प्रभू!) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा आनंद देने वाला है। सदा से पूरे गुरू के द्वारा ही (तेरे इस नाम से) सांझ पड़ती आ रही है। हे प्रभू! वही मनुष्य तेरा नाम प्राप्त करता है जिसको तू स्वयं (ये दाति) देता है। वही मनुष्य असल जीवन-भेद को समझने-योग्य होता है।10।1।

नोट: यह शबद जोगियों-बैरागियों के प्रर्थाय है। गुरू का शबद यह बताता है कि 'अंजन' के बीच में रह कर ही 'निरंजन' को हर जगह देखना है- यही है सिख के लिए 'अगम निगमु'।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh