श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1018 करि प्रगासु प्रचंड प्रगटिओ अंधकार बिनास ॥ पवित्र अपवित्रह किरण लागे मनि न भइओ बिखादु ॥५॥ सीत मंद सुगंध चलिओ सरब थान समान ॥ जहा सा किछु तहा लागिओ तिलु न संका मान ॥६॥ सुभाइ अभाइ जु निकटि आवै सीतु ता का जाइ ॥ आप पर का कछु न जाणै सदा सहजि सुभाइ ॥७॥ चरण सरण सनाथ इहु मनु रंगि राते लाल ॥ गोपाल गुण नित गाउ नानक भए प्रभ किरपाल ॥८॥३॥ {पन्ना 1018} पद्अर्थ: करि = करके। प्रगासु = प्रकाश, रोशनी। प्रचंड = तेज़। अंधकार बिनास = अंधेरे का नाश। मनि = (सूरज के) मन में। बिखादु = दुख।5। सीत = ठंडी। मंद = हल्की हल्की। समान = एक जैसी। सरब थान = सब जगह। जहा = जहाँ भी। सा = थी। किछु = कोई (अच्छी बुरी) चीज। तिलु = रक्ती भी। संका = शंका, झिझक। न मान = नहीं माना।6। सुभाय = अच्छी भावना से। अभाइ = दुर्भावना से। जु = जो। निकटि = नजदीक। सीतु = शीत, पाला। आप का = अपना। पर का = पराया। सहजि = अडोलता मे। सुभाइ = अच्छे भाव से।7। सनाथ = नाथ वाले, पति वाले। रंगि = प्यार में। राते = रंगे हुए। लाल रंगि = सोहाने प्रभू के प्रेम रंग में। गाउ = (हे मेरे मन!) गाया कर। नानक = हे नानक! किरपाल = दयावान।8। अर्थ: (हे मेरे मन! सूर्य) तेज़ रौशनी करके (आकाश में) प्रकट होता है और अंधकार का नाश करता है। अच्छे-बुरे सब जीवों को उसकी किरणें लगती हैं, (सूर्य के) मन में (इस बात का) दुख नहीं होता।5। हे मेरे मन! ठंडी (हवा) सुगंधि भरी (पवन) हल्की-हल्की सब जगहों पर एक जैसी ही चलती है; जहाँ भी कोई चीज़ हो (अच्छी हो चाहे बुरी हो) वहाँ भी (सबको) लगती है, रक्ती भर भी संकोच नहीं करती।6। (हे मेरे मन!) जो भी मनुष्य सद्-भावना से अथवा दुर्भावना से (आग के) नज़दीक आता है, उसकी लगी ठंडक दूर हो जाती है। (आग) ये बात बिल्कुल नहीं जानती कि यह अपना है यह पराया है, (आग) अडोलता में रहती है अपने स्वभाव में रहती है।7। (हे मेरे मन! इसी तरह परमात्मा के संत जन) परमात्मा के चरणों की शरण में रह के खसम वाले बन जाते हैं, वे सोहाने प्रभू में रते रहते हैं, उनका यह मन प्रभू के प्रेम-रंग में (रंगा रहता है)। (हे मेरे मन! तू भी) गोपाल प्रभू के गुण गाता रहा कर। हे नानक! (जो गुण गाते हैं उन पर) प्रभू जी दयावान हो जाते हैं।8।3। मारू महला ५ घरु ४ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चादना चादनु आंगनि प्रभ जीउ अंतरि चादना ॥१॥ आराधना अराधनु नीका हरि हरि नामु अराधना ॥२॥ तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोधु लोभु तिआगना ॥३॥ मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना ॥४॥ जागना जागनु नीका हरि कीरतन महि जागना ॥५॥ लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना ॥६॥ इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतकि भागना ॥७॥ कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना ॥८॥१॥४॥ {पन्ना 1018} पद्अर्थ: चादना चादनु = चाँदनियों में से चाँदनी (रौशनियों में से रौशनी)। आंगनि = आँगन में। प्रभ जीउ चादना = प्रभू के नाम की रौशनी। अंतरि = अंदर, हृदय में।1। नीका = (नक्त) सुंदर, सोहाना, अच्छा। आराधना अराधनु = सिमरनों में से सिमरन।2। तिआगना = छोड़ देना।3। मागना मागनु = माँगने में से माँगना। गुर ते = गुरू से।4। हरि कीरतन महि = परमात्म की सिफत सालाह महिमा के कीर्तन में।5। लागना लागनु नीका = लगन लगने से बेहतर लगन। अन्य प्यार करने से बढ़िया प्यार।6। इह बिधि = इस तरह। तिसहि = ('तिसि' की 'सि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर।7। नानक = हे नानक! सरनागना = शरण आ जाता है।8। अर्थ: (हे भाई! लोग खुशी आदि के मौके पर घरों में दीए आदि जला के रौशनी करते हैं, पर मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के नाम की रौशनी हो जाना - ये आँगन में अन्य सभी रौशनियों से उक्तम रौशनी है।1। हे भाई! सदा परमात्मा का ही नाम सिमरना- ये अन्य सभी सिमरनों से बढ़िया सिमरन है।2। (हे भाई! माया के मोह में से निकलने के लिए लोग गृहस्त त्याग जाते हैं, पर) काम-क्रोध-लोभ (आदि विकारों को हृदय में से) त्याग देना- ये अन्य सारे त्यागों में श्रेष्ठ त्याग है।3। हे भाई! गुरू से परमात्मा की सिफत सालाह की खैर माँगना- ये अन्य सभी माँगों से उक्तम माँग है।4। (हे भाई! देवी आदि की पूजा के लिए लोग जगराते करते हैं, पर) परमात्मा की सिफत-सालाह महिमा में जागना -यह और सभी जगरातों से श्रेष्ठतम् जगराता है।5। हे भाई! गुरू के चरणों में मन का प्यार बन जाना- ये अन्य सभी लगी हुई लगनों में से उच्च दर्जे की लगन है।6। पर, हे भाई! ये जुगति उसी ही मनुष्य को प्राप्त होती है, जिसके माथे पर भाग्य जाग उठें।7। हे नानक! कह- जो मनुष्य परमात्मा की शरण में आ जाता है, उसको हरेक सद्-गुण प्राप्त हो जाता है।8।1।4। मारू महला ५ ॥ आउ जी तू आउ हमारै हरि जसु स्रवन सुनावना ॥१॥ रहाउ ॥ तुधु आवत मेरा मनु तनु हरिआ हरि जसु तुम संगि गावना ॥१॥ संत क्रिपा ते हिरदै वासै दूजा भाउ मिटावना ॥२॥ भगत दइआ ते बुधि परगासै दुरमति दूख तजावना ॥३॥ दरसनु भेटत होत पुनीता पुनरपि गरभि न पावना ॥४॥ नउ निधि रिधि सिधि पाई जो तुमरै मनि भावना ॥५॥ संत बिना मै थाउ न कोई अवर न सूझै जावना ॥६॥ मोहि निरगुन कउ कोइ न राखै संता संगि समावना ॥७॥ कहु नानक गुरि चलतु दिखाइआ मन मधे हरि हरि रावना ॥८॥२॥५॥ {पन्ना 1018} पद्अर्थ: जी = हे (सतिगुरू) जी! हमारै = मेरे (हृदय) में। जसु = यश, सिफत सालाह। स्रवन = श्रवण, कानों से। सुनावना = सुनूँ।1। रहाउ। हरिआ = हरा भरा, प्राणमय, आत्मिक जीवन वाला। तुम संगि = तेरी संगति में।1। संत क्रिपा ते = गुरू की कृपा से। ते = से। हिरदै = हृदय में। वासै = बस जाता है। दूजा भाउ = माया का प्यार।2। ते = से। परगासै = चमक पड़ती है। बुधि परगासै = आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है। दुरमति = खोटी मति। दूख = ऐब, विकार। तजावना = त्यागे जाते हैं।3। भेटत = मिलते हुए, करते हुए। पुनीता = पवित्र। पुनरपि = (पुनः अपि) फिर भी, बार बार। गरभि = गर्भ में, जूनियों के चक्कर में।4। नउनिधि = दुनिया के सारे ही नौ खजाने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। तुमरै मनि = तेरे मन में। भावना = प्यारा लगता है।5। संत बिना = गुरू के बिना। मै = मुझे। अवर = किसी और जगह। न सूझै जावना = जाना नहीं सूझता।6। मोहि = मुझे। निरगुन कउ = गुण हीन को। संता संगि = संत जनों की संगति में।7। कह = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरू ने। चलतु = करिश्में, अजीब खेल। मधे = में। रावना = आनंद भोगना।8। अर्थ: हे प्यारे प्रभू! आ। मेरे हृदय-गृह में आ बस, और, मेरे कानों में परमात्मा की सिफत-सालाह सुना।1। रहाउ। हे प्यारे गुरू! तेरे आने से मेरा मन मेरा तन आत्मिक जीवन वाला हो जाता है। हे सतिगुरू! तेरे चरणों में रह के ही परमात्मा का यश गाया जा सकता है।1। हे भाई! गुरू की मेहर से परमात्मा हृदय में आ बसता है, और माया का मोह दूर किया जा सकता है।2। हे भाई! परमात्मा के भगत की किरपा से बुद्धि में आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, दुर्मति के सारे विकार त्यागे जाते हैं।3। हे भाई! गुरू के दर्शन करने से जीवन पवित्र हो जाता है, बार-बार जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ा जाता।4। हे प्रभू! जो (भाग्यशाली) मनुष्य तेरे मन को प्यारा लगने लग जाता है, वह, (मानो) दुनिया के सारे ही नौ खजाने और करामाती ताकतें हासिल कर लेता है।5। हे भाई! गुरू के बिना मेरा और कोई आसरा नहीं, किसी और जगह जाना मुझे नहीं सूझता।6। हे भाई! मेरी गुण-हीन की (गुरू के बिना) और कोई बाँह नहीं पकड़ता। संत जनों की संगति में रह के ही प्रभू-चरणों में लीन हुआ जाता है।7। हे नानक! कह- गुरू ने (मुझे) आश्चर्यजनक तमाशा दिखा दिया है। मैं अपने मन में हर वक्त परमात्मा के मिलाप का आनंद ले रहा हूँ।8।2।5। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |