श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1020 जमि जमि मरै मरै फिरि जमै ॥ बहुतु सजाइ पइआ देसि लमै ॥ जिनि कीता तिसै न जाणी अंधा ता दुखु सहै पराणीआ ॥५॥ खालक थावहु भुला मुठा ॥ दुनीआ खेलु बुरा रुठ तुठा ॥ सिदकु सबूरी संतु न मिलिओ वतै आपण भाणीआ ॥६॥ मउला खेल करे सभि आपे ॥ इकि कढे इकि लहरि विआपे ॥ जिउ नचाए तिउ तिउ नचनि सिरि सिरि किरत विहाणीआ ॥७॥ मिहर करे ता खसमु धिआई ॥ संता संगति नरकि न पाई ॥ अम्रित नाम दानु नानक कउ गुण गीता नित वखाणीआ ॥८॥२॥८॥१२॥२०॥ {पन्ना 1020} पद्अर्थ: जमि = पैदा हो के। जमि जमि मरै = बार बार पैदा होता है मरता है, जनम मरण के चक्कर में पड़ा जाता है। सजाइ = सजा, दण्ड। देसि लंमै = लंबे देश में, (बार बार पैदा होने मरने के) लंबे रास्ते में। जिनि = जिस (प्रभू) ने। कीता = पैदा किया। अंधा = (माया के मोह में) अंधा (हुआ मनुष्य)। ता = तभी। सहै = सहता है। पराणीआ = प्राणी, जीव।5। खालक = खालिक, पैदा करने वाला। थावहु = जगह से, से। भुला = भूला हुआ, टूटा हुआ। मुठा = ठॅगा जा रहा है। खेलु = तमाशा, जादू का खेल। बुरा = खराब। रुठ = रूठा। तुठा = खुश हुआ। सिदकु = शांति, तसल्ली। सबूरी = सब्र, तृप्ति। संतु = गुरू। वतै = भटकता फिरता है। आपण भाणीआ = अपने मन की मर्जी के अनुसार।6। मउला = खुदा, रॅब। सभि = सारे। खेल = (बहुवचन। 'खेलु' एकवचन)। आपे = स्वयं ही। इकि = ('इक' का बहुवचन)। विआपे = फसे हुए। नचाऐ = नचाता है। नचनि = नाचते हैं। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक (के) सिर पर। किरत = (पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई। विहाणीआ = बीतती है, असर डालती है।7। ता = तब, तो। धिआई = मैं ध्याता हूँ। नरकि = नर्क में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। दानु = खैर। कउ = को (दे)। गुण गीता = गुणों के गीत, सिफत सालाह के गीत। वखाणीआ = मैं बखानूँ।8। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य (माया के मोह में) अंधा (हो के) उस परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता जिसने इसको पैदा किया है, तब यह (जनम-मरण के चक्कर का) दुख सहता है, इसको बहुत सजा मिलती है, यह (जनम-मरन के चक्कर के) लंबे रास्ते पर पड़ जाता है, ये बार-बार पैदा हो के (बार-बार) मरता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है।5। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू नहीं मिलता, वह अपने मन का मुरीद हो के भटकता फिरता है, उसके अंदर माया की तरफ से ना शांति है ना तृप्ति; वह मनुष्य सृजनहार से टूटा रहता है, वह अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी लुटा बैठता है; यह जगत-तमाशा उसको बुरा (दुखी करता है), कभी (माया के गवा बैठने पर ये) घबरा जाता है, कभी माया के मिलने पर ये खुश हो हो के बैठता है।6। (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही सारे खेल कर रहा है। कई ऐसे हैं जो माया के मोह की लहरों में फंसे हुए हैं, कई ऐसे हैं जिनको उसने इन लहरों में से निकाल लिया है। हे भाई! परमात्मा जैसे-जैसे जीवों को (माया के हाथों में) नचाता है, वैसे-वैसे जीव नाचते हैं। हरेक जीव के सिर पर (उसके पिछले जन्मों के किए कर्मों की) कमाई असर डाल रही है।7। हे भाई! परमात्मा स्वयं मेहर करे, तो ही मैं उस पति-प्रभू को सिमर सका हूँ। (जो मनुष्य सिमरता है) वह संत जनों की संगति में रह के नर्क में नहीं पड़ता। हे प्रभू! नानक को आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-दान दे, (ता कि मैं नानक) तेरी सिफत-सालाह के गीत सदा गाता रहूँ।8।2।8।12।20। नोट: अंकों का निर्णय: अंक नं:2- यह दो अंजुलीआं (आरजूएं हैं, विनतियां हैं) महला ५ की। अंक नं: 8- महला ५ की कुल अष्टपदीयां (2 अँजुलियों समेत) 8 हैं। महला १ की अष्टपदीयां---------11 मारू सोलहे महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ साचा सचु सोई अवरु न कोई ॥ जिनि सिरजी तिन ही फुनि गोई ॥ जिउ भावै तिउ राखहु रहणा तुम सिउ किआ मुकराई हे ॥१॥ आपि उपाए आपि खपाए ॥ आपे सिरि सिरि धंधै लाए ॥ आपे वीचारी गुणकारी आपे मारगि लाई हे ॥२॥ आपे दाना आपे बीना ॥ आपे आपु उपाइ पतीना ॥ आपे पउणु पाणी बैसंतरु आपे मेलि मिलाई हे ॥३॥ आपे ससि सूरा पूरो पूरा ॥ आपे गिआनि धिआनि गुरु सूरा ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै साचे सिउ लिव लाई हे ॥४॥ आपे पुरखु आपे ही नारी ॥ आपे पासा आपे सारी ॥ आपे पिड़ बाधी जगु खेलै आपे कीमति पाई हे ॥५॥ आपे भवरु फुलु फलु तरवरु ॥ आपे जलु थलु सागरु सरवरु ॥ आपे मछु कछु करणीकरु तेरा रूपु न लखणा जाई हे ॥६॥ आपे दिनसु आपे ही रैणी ॥ आपि पतीजै गुर की बैणी ॥ आदि जुगादि अनाहदि अनदिनु घटि घटि सबदु रजाई हे ॥७॥ आपे रतनु अनूपु अमोलो ॥ आपे परखे पूरा तोलो ॥ आपे किस ही कसि बखसे आपे दे लै भाई हे ॥८॥ आपे धनखु आपे सरबाणा ॥ आपे सुघड़ु सरूपु सिआणा ॥ कहता बकता सुणता सोई आपे बणत बणाई हे ॥९॥ पउणु गुरू पाणी पित जाता ॥ उदर संजोगी धरती माता ॥ रैणि दिनसु दुइ दाई दाइआ जगु खेलै खेलाई हे ॥१०॥ आपे मछुली आपे जाला ॥ आपे गऊ आपे रखवाला ॥ सरब जीआ जगि जोति तुमारी जैसी प्रभि फुरमाई हे ॥११॥ आपे जोगी आपे भोगी ॥ आपे रसीआ परम संजोगी ॥ आपे वेबाणी निरंकारी निरभउ ताड़ी लाई हे ॥१२॥ खाणी बाणी तुझहि समाणी ॥ जो दीसै सभ आवण जाणी ॥ सेई साह सचे वापारी सतिगुरि बूझ बुझाई हे ॥१३॥ सबदु बुझाए सतिगुरु पूरा ॥ सरब कला साचे भरपूरा ॥ अफरिओ वेपरवाहु सदा तू ना तिसु तिलु न तमाई हे ॥१४॥ कालु बिकालु भए देवाने ॥ सबदु सहज रसु अंतरि माने ॥ आपे मुकति त्रिपति वरदाता भगति भाइ मनि भाई हे ॥१५॥ आपि निरालमु गुर गम गिआना ॥ जो दीसै तुझ माहि समाना ॥ नानकु नीचु भिखिआ दरि जाचै मै दीजै नामु वडाई हे ॥१६॥१॥ {पन्ना 1020-1021} सोलहे-16 बँदों का शबद। आम तौर पर तो हरेक में 16 पद (बंद) हैं, पर कम-ज्यादा भी मिलते है॥ गुरू ग्रंथ साहिब जी में सोलहे अष्टपदियों के बाद में दर्ज हैं। इनको अष्टपदीयाँ ही समझना चाहिए। 'सोलहे' सिर्फ मारू राग में। इनमें 'रहाउ' की तुक नहीं है। पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। सचु = सदा स्थिर, अटल। सोई = वह परमात्मा ही। जिनि = जिस (प्रभू) ने। सिरजी = पैदा की। तिन ही = तिनि ही ('तिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। देखें, 'गुरबाणी व्याकरण')। फुनि = दोबारा, पुनः। गोई = नाश की गई। मुकराई = ना नुकॅर, इन्कार।1। खपाऐ = नाश करता है। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर (किए कर्मों के लेख लिख के)। धंधै = धंधे में, किरत कार में। वीचारी = जीवों के कर्मों को विचारने वाला। गुणकारी = (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला। मारगि = (सही जीवन-) मार्ग पर।2। दाना = (जीवों के दिल की) जानने वाला। बीना = (जीवों के किए कर्म) देखने वाला। आपु = अपने आप को। उपाइ = (सृष्टि में) प्रकट करके, पैदा करके। पतीना = पतीजता है, खुश होता है। बैसंतरु = आग। मेलि = (सब तत्वों को) इकट्ठा करके।3। ससि = (शशि) चंद्रमा। सूरा = सूरज। पूरो पूरा = हर जगह पूर्ण, हर जगह अपना प्रकाश देने वाला। गिआनि = ज्ञान का मालिक। धिआनि = ध्यान का मालिक। सूरा = सूरज। जोहि न साकै = ताक नहीं सकता। लिव = लगन।4। पासा = चौपड़, संसार का आकार। सारी = नर्दें, जीव। कीमति = मूल्य, कद्र, परख।5। तरवरु = वृक्ष। रैणी = (रजनी) रात। पतीजै = खुश होता है। बैणी = वचनों से। अनाहदि = नाश रहित। रजाई = रजा के मालिक प्रभू का।7। अनूपु = बेमिसाल। अमोलो = जिसका मूल्य ना पड़ सके। कसि = कसवटी पर लगा के। दे = देता है। लै = लेता है। दे लै = देता लेता है, लेन देन करता है, व्यापार करता है।8। सर = तीर। सरबाणा = (शरवाणि) तीर चलाने वाला, तीर अंदाज। सुघड़ ु = सुंदर घाड़त वाला। सरूपु = सुंदर रूप वाला। बकता = बोलने वाला।9। जाता = जाना जाता है। उदर संजोगी = पेट के संयो के कारण। रैणि = रात। दुइ = दोनों। दाइआ = खिलौना खिलाने वाला।10। जाला = (मछली फसाने वाला) जाल। जगि = जगत में। प्रभि = प्रभू ने।11। रसीआ = रस लेने वाला। वेबाणी = बिआबान में रहने वाला, जंगल में रहने वाला त्यागी। निरंकारी = आकार रहित।12। खाणी = जीवों की उत्पक्ति की चार खानें। बाणी = चार बाणियां। सेई = वही लोग। सतिगुरि = गुरू ने।13। अफरिओ = अॅटल हुकम वाला। तिसु = उस (प्रभू) को। तिलु = तिल जितना भी। तमाई = तमा, लालच।14। कालु = मौत। बिकालु = जनम। सहज रसु = आत्मिक अडोलता का आनंद। माने = भोगा है, पाया है। मुकति दाता = विकारों से खलासी देने वाला। त्रिपति दाता = माया की ओर से संतोष देने वाला। वर दाता = बख्शिशें करने वाला। भाइ = प्रेम से। मनि = मन मे। भगति भाइ = जिसको परमात्मा की भक्ति प्यारी लगी है।15। निरालमु = निर्लिप। गुर गम गिआना = गुरू के द्वारा जिसकी जान पहचान बनती है। भिखिआ = नाम की खैर। दरि = (तेरे) दर से। जाचै = मांगता है। मै = मुझे।16। अर्थ: वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, सदा अटल रहने वाला है। कोई और उस जैसा नहीं है। जिस (प्रभू) ने (ये रचना) रची है उसने ही दोबारा नाश किया है (वही इसको नाश करने वाला है)। हे प्रभू! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हम जीवों को रखता है, वैसे ही हम रह सकते हैं। हम जीव तेरे (हुकम) के आगे कोई ना-नुक्कर नहीं कर सकते।1। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करता है स्वयं ही मारता है। स्वयं ही हरेक जीव को उसके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार दुनियां के धंधों में लगाता है। प्रभू स्वयं ही जीवों के कर्मों को विचारने वाला है, स्वयं ही (जीवों के अंदर) गुण पैदा करने वाला है, खुद ही (जीवों को) सही जीवन-रास्ते पर लाता है।2। परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के दिल की जानने वाला है, स्वयं ही जीवों के किए कर्मों को देखने वाला है। प्रभू स्वयं ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) प्रकट करके (स्वयं ही इसको देख-देख के) खुश हो रहा है। परमात्मा खुद ही (अपने आप से) हवा-पानी-आग (आदि तत्व पैदा करने वाला) है, प्रभू ने स्वयं ही (इन तत्वों को) इकट्ठा करके जगत-रचना की है।3। हर जगह रौशनी देने वाला परमात्मा स्वयं ही सूर्य है स्वयं ही चँद्रमा है, प्रभू खुद ही ज्ञान का मालिक और सुरति का मालिक सूरमा गुरू है। जिस भी जीव ने उस सदा-स्थिर प्रभू से पे्रम-लगन लगाई है जमराज उसकी ओर देख भी नहीं सकता।4। (हरेक) मर्द भी प्रभू स्वयं ही है और (हरेक) स्त्री भी स्वयं ही है, प्रभू खुद ही (ये जगत रूप) चौपड़ (की खेल) है और खुद ही (चौपड़ की जीव-) नर्दें है। परमात्मा ने स्वयं ही ये जगत (चौपड़ की खेल-रूप) मैदान को तैयार किया है, स्वयं ही इस खेल को परख रहा है।5। (हे प्रभू!) तेरा सही स्वरूप क्या है?- ये बयान नहीं किया जा सकता। तू स्वयं ही (अपने आप से) सारी रचना रचने वाला है। तू स्वयं ही भौरा है, स्वयं ही फूल है, तू खुद ही फल है, और खुद ही वृक्ष है। तू स्वयं ही पानी है, स्वयं ही सूखी हुई धरती है, तू स्वयं ही समुंद्र है स्वयं ही तालाब है। तू स्वयं ही मछली है तू स्वयं ही कछूआ है।6। परमात्मा खुद ही दिन है खुद ही रात है, वह खुद ही गुरू के वचनों के द्वारा खुश हो रहा है, सारे जगत का मूल है, जुगों से भी आदि से है, उसका ना कभी नाश हो सकता है, हर वक्त हरेक शरीर में उसी रजा के मालिक की जीवन-रौंअ रुमक रही है।7। प्रभू स्वयं ही एक ऐसा रतन है जिस जैसा और कोई नहीं और जिसका मूल्य नहीं डाला जा सकता। प्रभू स्वयं ही उस रत्न को परखता है, और ठीक तरह तौलता है। प्रभू स्वयं ही किसी रत्न-जीव को कसवॅटी पर ला के परवान करता है, और हे भाई! प्रभू स्वयं ही जगत की वणज-व्यापार की कार चला रहा है (रतन देता है और रतन लेता है)।8। परमात्मा खुद ही धनुष है (खुद ही तीर है) खुद ही तीर-अंदाज है। खुद ही सुचॅजा-सोहाना और सयाना है। हर जगह बोलने वाला सुनने वाला वही खुद ही है जिसने ये जगत रचना रची है।9। हवा (जो शरीरों के लिए इस तरह है जैसे) गुरू (जीवों की आत्मा के लिए है) प्रभू स्वयं ही है। पानी (जो सब जीवों का) पिता (है, यह भी) प्रभू स्वयं ही है। धरती (जो इसके लिए जीवों की) माँ कहलवाने-योग्य है ये माँ की तरह सब चीजों को अपने पेट में रखती है और पेट में से पैदा करती है- यह भी परमात्मा स्वयं ही है (क्योंकि सब कुछ परमात्मा ने अपने आप से प्रकट किया है)। दिन और रात (जो जीवों के लिए) दोनों खेल खिलाने वाली और खेल खिलाने वाला है (और इनके प्रभाव में) जगत खेल रहा है, यह भी वह स्वयं ही है, यह सारी खेल वह खुद ही खेल रहा है।10। हे प्रभू! तू स्वयं ही मछली है और स्वयं ही (मछली फसाने वाला) जाल है, तू खुद ही गाय है और खुद ही गाईयों का रखवाला है। सारे जीवों में सारे जगत में तेरी ही ज्योति मौजूद है। जगत में वही कुछ हो रहा है जैसे प्रभू ने हुकम किया है (हुकम कर रहा है)।11। (माया से निर्लिप होने के कारण) प्रभू स्वयं ही जोगी है, (और सारे जीवों में व्यापक होने के कारण) खुद ही (सारे पदार्थों को) भोगने वाला है। सबसे बड़े संयोग (मिलाप) के कारण (सब जीवों में रमा होने के कारण) प्रभू स्वयं ही सारे रस माण रहा है। प्रभू स्वयं ही सारे उजाड़ में रहने वाला है, प्रभू स्वयं ही निराकार है, उसको किसी का डर नहीं। वह स्वयं ही अपने स्वरूप में सुरति जोड़ने वाला है।12। हे प्रभू! चारों खाणियों के जीव और उनकी बोलियाँ भी तेरे में ही समा जाती हैं। जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह पैदा होने मरने के चक्र में है। जिन लोगों को सतिगुरू ने (सही जीवन की) सूझ दी है वही कभी घाटा ना खाने वाले शाह हैं, व्यापारी हैं।13। हे प्रभू! (तेरा रूप) पूरा सतिगुरू (तेरी सिफत-सालाह की) बाणी (तेरे पैदा किए हुए जीवों को) समझाता है। हे सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू (अपनी सारी रचना में) हर जगह मौजूद है। कोई जीव तेरे हुकम को मोड़ नहीं सकता, (इतने बड़े पसारे का मालिक हो के भी) तू सदा बेफिक्र है। (हे भाई! परमात्मा अपने पैदा किए हुए जीवों के लिए सब कुछ करता है, पर) उस को (अपने लिए) कोई रक्ती भर भी लालच नहीं है।14। (परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य) अपने हृदय में उसकी सिफत-सालाह की बाणी बसाता है और आत्मिक अडोलता का रस लेता है, जनम और मरण उसके नजदीक नहीं फटकते (उसको देख के पागल हो जाते हैं सहम जाते हैं)। (प्रभू की बख्शी हुई प्रभू-चरनों की) प्रीति से जिस मनुष्य के मन में प्रभू की भक्ति का प्यार जाग उठता है, उसको प्रभू (स्वयं ही विकारों से) निजात देने वाला है स्वयं ही (माया की तृष्णा से) तृप्ति देने वाला है, और स्वयं ही सब बख्शिशें करने वाला है।15। हे प्रभू! (इतना बेअंत जगत रच के) तू स्वयं (इसके मोह से) निर्लिप है। हे प्रभू! (तेरे रूप) गुरू के द्वारा ही तेरे साथ जान-पहचान हो सकती है। (जगत में) जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब तेरे में ही लीन हो जाता है। गरीब नानक तेरे दर से (नाम की) ख़ैर माँगता है। हे प्रभू! मुझे अपना नाम दे, यही मेरे वास्ते सबसे ऊँची इज्जत है।16।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |