श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1022 मारू महला १ ॥ दूजी दुरमति अंनी बोली ॥ काम क्रोध की कची चोली ॥ घरि वरु सहजु न जाणै छोहरि बिनु पिर नीद न पाई हे ॥१॥ अंतरि अगनि जलै भड़कारे ॥ मनमुखु तके कुंडा चारे ॥ बिनु सतिगुर सेवे किउ सुखु पाईऐ साचे हाथि वडाई हे ॥२॥ कामु क्रोधु अहंकारु निवारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे ॥३॥ मा की रकतु पिता बिदु धारा ॥ मूरति सूरति करि आपारा ॥ जोति दाति जेती सभ तेरी तू करता सभ ठाई हे ॥४॥ तुझ ही कीआ जमण मरणा ॥ गुर ते समझ पड़ी किआ डरणा ॥ तू दइआलु दइआ करि देखहि दुखु दरदु सरीरहु जाई हे ॥५॥ निज घरि बैसि रहे भउ खाइआ ॥ धावत राखे ठाकि रहाइआ ॥ कमल बिगास हरे सर सुभर आतम रामु सखाई हे ॥६॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ किउ रहीऐ चलणा परथाए ॥ सचा अमरु सचे अमरा पुरि सो सचु मिलै वडाई हे ॥७॥ आपि उपाइआ जगतु सबाइआ ॥ जिनि सिरिआ तिनि धंधै लाइआ ॥ सचै ऊपरि अवर न दीसै साचे कीमति पाई हे ॥८॥ ऐथै गोइलड़ा दिन चारे ॥ खेलु तमासा धुंधूकारे ॥ बाजी खेलि गए बाजीगर जिउ निसि सुपनै भखलाई हे ॥९॥ तिन कउ तखति मिली वडिआई ॥ निरभउ मनि वसिआ लिव लाई ॥ खंडी ब्रहमंडी पाताली पुरीई त्रिभवण ताड़ी लाई हे ॥१०॥ साची नगरी तखतु सचावा ॥ गुरमुखि साचु मिलै सुखु पावा ॥ साचे साचै तखति वडाई हउमै गणत गवाई हे ॥११॥ गणत गणीऐ सहसा जीऐ ॥ किउ सुखु पावै दूऐ तीऐ ॥ निरमलु एकु निरंजनु दाता गुर पूरे ते पति पाई हे ॥१२॥ जुगि जुगि विरली गुरमुखि जाता ॥ साचा रवि रहिआ मनु राता ॥ तिस की ओट गही सुखु पाइआ मनि तनि मैलु न काई हे ॥१३॥ जीभ रसाइणि साचै राती ॥ हरि प्रभु संगी भउ न भराती ॥ स्रवण स्रोत रजे गुरबाणी जोती जोति मिलाई हे ॥१४॥ रखि रखि पैर धरे पउ धरणा ॥ जत कत देखउ तेरी सरणा ॥ दुखु सुखु देहि तूहै मनि भावहि तुझ ही सिउ बणि आई हे ॥१५॥ अंत कालि को बेली नाही ॥ गुरमुखि जाता तुधु सालाही ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लाई हे ॥१६॥३॥ {पन्ना 1022-1023} पद्अर्थ: दूजी = परमात्मा के बिना अन्य आसरे की झाक। दुरमति = बुरी मति। कची चोली = नाशवंत शरीर। घरि = हृदय घर में। खसम = प्रभू। सहजु = आत्मिक अडोलता। छोडहि = अंजान जीव स्त्री। नीद = आत्मिक शांति।1। अगनि = तृष्णा आग। भड़कारे = भड़ भड़ करके। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।2। तसकर = चोर। सबदि = शबद से। खड़गु = तलवार। लूझै = लड़ता है। मनहि = मन में।3। मा = माँ। रकतु = लहू। बिदु = बिंदु, वीर्य की बूँद। जेती = जितनी भी।4। ते = से। देखहि = तू संभाल करता है। सरीरहु = शरीर में से।5। निज घरि = अपने हृदय घर में। खाइआ = समाप्त कर दिया। धावत = माया के पीछे भटकने को। ठाकि = रोक के। सर = तालाब, ज्ञान इन्द्रियाँ। सुभर = नाको नाक भरे हुए (नाम अमृत से)। आतमरामु = परमात्मा।6। मंडल = संसार। परथाऐ = परलोक में। अमरापुरि = उस पुरी में जो सदा अटल है।7। सबाइआ = सारा। जिनि = जिस (प्रभू) ने। सिरिआ = पैदा किया। तिनि = उस (प्रभू) ने।8। गोइल = नदियों के किनारे वह जगहें जहाँ मुश्किल के दिनों में लोग अपने पशू-मवेशियों को चराने के लिए आ टिकते हैं। धुंधूकारे = घोर अंधेरे में, अज्ञानता के अंधकार में। निसि = रात के समय। सुपनै = सपने में। भखलाई = बड़ बड़ाता है।9। तखति = तख़्त पर। मनि = मन में। ताड़ी लाई हे = व्यापक है।10। नगरी = शरीर। तखतु = हृदय। गणत = माया की सोचें।11। जीअै = जी में, मन में। दूअै = दूसरे भाव में। तीअै = त्रिगुणी माया में।12। जुगि जुगि = हरेक युग में। गही = पकड़ी।13। रसाइणि = रसों के घर प्रभू के नाम में। भराती = भटकना। स्रवण = कान।14। को = कोई भी। सालाही = सालाहते हैं।16। अर्थ: प्रभू के बिना किसी और आसरे की झाक ऐसी दुर्मति है कि इसमें फसी हुई जीव स्त्री अंधी और बहरी हो जाती है (ना वह आँखों से परमात्मा को देख सकती है, ना वह कानों से परमात्मा की सिफत-सालाह सुन सकती है)। उसका शरीर काम-क्रोध आदि में गलता रहता है। पति-प्रभू उसके हृदय-घर में बसता है, पर वह अंजान जीव-स्त्री उसको पहचान नहीं सकती, आत्मिक अडोलता उसके अंदर ही है पर वह समझ नहीं सकती। पति-प्रभू से विछुड़ी हुई को शांति नसीब नहीं होती।1। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया) की खातिर चारों तरफ़ भटकता है, उसके अंदर तृष्णा की आग भड़-भड़ करके जलती है। सतिगुरू की बताई हुई सेवा करे बिना आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता, यह वडिआई सदा-स्थिर प्रभू के अपने हाथ में है (जिस पर मेहर करे उसी को देता है)।2। (गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार दूर करता है, गुरू के शबद में जुड़ के कामादिक पाँच चोरों को मारता है, गुरू से मिले ज्ञान की तलवार ले के अपने मन के साथ लड़ाई करता है, उसके मन का मायावी फुरना मन में ही समाप्त हो जाता है (भाव, मन में मायावी फुरने उठते ही नहीं)।3। हे अपार प्रभू! माँ के रक्त और पिता के वीर्य की बूँद को मिला के तूने मनुष्य का बुत बना दिया, सुंदर चेहरा बना दिया। हरेक जीव के अंदर तेरी ही ज्योति है, जो भी पदार्थों की बख्शिश है सब तेरी ही है, तू सृजनहार हर जगह मौजूद है।4। हे प्रभू! जनम और मरण (का सिलसिला) तूने ही बनाया है, जिस मनुष्य को गुरू से यह सूझ पड़ जाए वह फिर मौत से नहीं डरता। हे प्रभू! तू दया का घर है, जिस मनुष्य की ओर तू निगाह करके देखता है उसके शरीर में से दुख-दर्द दूर हो जाता है।5। (गुरू की शरण पड़ कर) जो मनुष्य अपने हृदय (में बसते परमात्मा की याद) में टिके रहते हैं वे मौत का डर समाप्त कर लेते हैं, वे अपने मन को माया के पीछे दौड़ने से बचा लेते हैं और (माया की ओर से) रोक के (प्रभू-चरणों में) टिकाते हैं, उनके हृदय-कमल खिल उठते हैं, हरे हो जाते हैं, उनके (ज्ञान-इन्द्रिय-रूप) तालाब (नाम-अमृत से) लबालब भरे रहते हैं, सार्व-व्यापक परमात्मा उनका (सदा के लिए) मित्र बन जाता है।6। जो भी जीव जगत में आते हैं वह मौत (का परवाना अपने सिर पर) लिखा के ही आते हैं। किसी भी हालत में कोई भी जीव यहाँ सदा नहीं रह सकता, हरेक ने अवश्य परलोक में जाना है। परमात्मा का यह सदा-कायम रहने वाला हुकम (अमर) है। जो लोग सदा-स्थिर प्रभू की सदा-स्थिर पुरी में टिके रहते हैं उनको सदा-स्थिर प्रभू मिल जाता है, उनको (प्रभू-मिलाप की यह) महिमा मिलती है।7। यह सारा जगत प्रभू ने स्वयं ही पैदा किया है। जिस (प्रभू) ने (जगत) पैदा किया है उसने (स्वयं ही) इसको माया की दौड़-भाग में लगा दिया है। उस सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (सिर) पर और कोई (ताकत) नहीं दिखती जो उस सदा-स्थिर (की समर्था) का मूल्य डाल सके।8। (जैसे मुश्किल के दिनों में दरियाओं के किनारे पशू-मवेशियों को चराने आए लोगों का वहाँ थोड़े दिनों के लिए ही ठिकाना होता है, वैसे ही) यहाँ जगत में जीवों का चार दिनों का ही बसेरा है। यह जगत एक खेल है, एक तमाशा है, पर (जीव माया के मोह के कारण अज्ञानता के) घोर अंधेरे में फसे पड़े हैं। बाज़ीगरों की तरह जीव (माया की) बाज़ी खेल के चले जाते हैं, (इस खेल में से किसी के हाथ-पल्ले कुछ नहीं पड़ता) जैसे रात के सपने में कोई व्यक्ति (धन पा के) बड़-बड़ाता है (पर सपना टूट जाने पर पल्ले कुछ भी नहीं रहता)।9। जो परमात्मा सारे खण्डों-ब्रहमण्डों-पातालों-मण्डलों में तीनों ही भवनों में गुप्त रूप में व्यापक है वह निर्भय प्रभू जिन मनुष्यों के मन में बस जाता है जो मनुष्य उस प्रभू की याद में जुड़ते हैं (वह, मानो, आत्मिक मण्डल में बादशाह बन जाते हैं) उनको तख़्त पर बैठने की महिमा मिलती है (वे सदा अपने हृदय-तख़्त पर बैठते हैं)।10। जिस मनुष्य को गुरू के सन्मुख हो के सदा-स्थिर प्रभू मिल जाता है उसको आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है, उसका ये शरीर उसका यह हृदय-तख़्त सदा-स्थिर प्रभू का निवास-स्थान बन जाता है। उस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू के सदा-स्थिर तख़्त पर (माया की ओर से सदा अडोल रहने वाले हृदय-तख़्त पर बैठने की) वडिआई महिमा मिलती है। वह मनुष्य अहंकार और माया की सोचें दूर कर लेता है।11। जब तलक माया की सोचें सोचते रहें प्राणों में सहम बना ही रहता है, ना ही प्रभू के बिना किसी अन्य झाक में और ना ही त्रिगुणी माया की लगन में - सुख कहीं नहीं मिलता। जिस मनुष्य ने पूरे गुरू की शरण पड़ कर इज्जत कमा ली (उसको निश्चय हो जाता है कि) सब दातें देने वाला एक परमात्मा ही है जो पवित्र-स्वरूप है और जिस पर माया की कालिख़ का प्रभाव नहीं पड़ता।12। हरेक युग में (भाव, युग चाहे कोई भी हो) किसी उस विरले ने ही सदा-स्थिर प्रभू के साथ सांझ डाली है जो गुरू की शरण पड़ा है। वह सदा-स्थिर प्रभू हर जगह मौजूद है। (गुरू के माध्यम से जिसका) मन (उस प्रभू के प्रेम-रंग में) रंगा गया है, जिसने उस सदा-स्थिर प्रभू का पल्ला पकड़ा है उसको आत्मिक आनंद मिल गया है, उसके मन में उसके तन में (विकारों की) कोई मैल नहीं रह जाती।13। जिस मनुष्य की जीभ सब रसों के श्रोत सदा-स्थिर प्रभू के नाम-रंग में रंगी जाती है, हरी परमात्मा उसका (सदा के लिए) साथी बन जाता है, उसको कोई डर नहीं व्यापता, उसको कोई भटकना नहीं रह जाती। सतिगुरू की बाणी सुनने में उसके कान सदा मस्त रहते हैं, उसकी सुरति प्रभू की ज्योति में मिली रहती है।14। हे प्रभू! मैं जिधर देखता हूँ उधर सब जीव तेरी ही शरण पड़ते हैं। जिस मनुष्य की प्रीति सिर्फ तेरे साथ ही निभ रही है (भाव, जिसने अन्य सारे आसरे छोड़ के सिर्फ एक तेरा ही आसरा पकड़ा है) वह मनुष्य धरती पर अपनी जीवन-पथ समाप्त करते हुए बड़े ही ध्यान से पैर रखता है (विकारों की ओर बिल्कुल ही नहीं पड़ता), तू ही उसके मन को प्यारा लगने लगता है, (उसको निश्चय हो जाता है कि) तू ही सुख देता है तू ही दुख देता है।15। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ते हैं वे यह समझ लेते हैं कि जगत में आखिरी वक्त कोई (साक-संबंधी) साथी नहीं बन सकता, (इस वास्ते, हे प्रभू!) वह तेरी ही सिफत-सालाह करते हैं। हे नानक! वे मनुष्य प्रभू के नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे माया के मोह से उपराम रहते हैं, वे सदा अपने हृदय-गृह में टिक के प्रभू-चरणों में जुड़े रहते हैं।16।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |