श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 1024

मारू महला १ ॥ साचै मेले सबदि मिलाए ॥ जा तिसु भाणा सहजि समाए ॥ त्रिभवण जोति धरी परमेसरि अवरु न दूजा भाई हे ॥१॥ जिस के चाकर तिस की सेवा ॥ सबदि पतीजै अलख अभेवा ॥ भगता का गुणकारी करता बखसि लए वडिआई हे ॥२॥ देदे तोटि न आवै साचे ॥ लै लै मुकरि पउदे काचे ॥ मूलु न बूझहि साचि न रीझहि दूजै भरमि भुलाई हे ॥३॥ गुरमुखि जागि रहे दिन राती ॥ साचे की लिव गुरमति जाती ॥ मनमुख सोइ रहे से लूटे गुरमुखि साबतु भाई हे ॥४॥ कूड़े आवै कूड़े जावै ॥ कूड़े राती कूड़ु कमावै ॥ सबदि मिले से दरगह पैधे गुरमुखि सुरति समाई हे ॥५॥ कूड़ि मुठी ठगी ठगवाड़ी ॥ जिउ वाड़ी ओजाड़ि उजाड़ी ॥ नाम बिना किछु सादि न लागै हरि बिसरिऐ दुखु पाई हे ॥६॥ भोजनु साचु मिलै आघाई ॥ नाम रतनु साची वडिआई ॥ चीनै आपु पछाणै सोई जोती जोति मिलाई हे ॥७॥ नावहु भुली चोटा खाए ॥ बहुतु सिआणप भरमु न जाए ॥ पचि पचि मुए अचेत न चेतहि अजगरि भारि लदाई हे ॥८॥ बिनु बाद बिरोधहि कोई नाही ॥ मै देखालिहु तिसु सालाही ॥ मनु तनु अरपि मिलै जगजीवनु हरि सिउ बणत बणाई हे ॥९॥ प्रभ की गति मिति कोइ न पावै ॥ जे को वडा कहाइ वडाई खावै ॥ साचे साहिब तोटि न दाती सगली तिनहि उपाई हे ॥१०॥ वडी वडिआई वेपरवाहे ॥ आपि उपाए दानु समाहे ॥ आपि दइआलु दूरि नही दाता मिलिआ सहजि रजाई हे ॥११॥ इकि सोगी इकि रोगि विआपे ॥ जो किछु करे सु आपे आपे ॥ भगति भाउ गुर की मति पूरी अनहदि सबदि लखाई हे ॥१२॥ इकि नागे भूखे भवहि भवाए ॥ इकि हठु करि मरहि न कीमति पाए ॥ गति अविगत की सार न जाणै बूझै सबदु कमाई हे ॥१३॥ इकि तीरथि नावहि अंनु न खावहि ॥ इकि अगनि जलावहि देह खपावहि ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई कितु बिधि पारि लंघाई हे ॥१४॥ गुरमति छोडहि उझड़ि जाई ॥ मनमुखि रामु न जपै अवाई ॥ पचि पचि बूडहि कूड़ु कमावहि कूड़ि कालु बैराई हे ॥१५॥ हुकमे आवै हुकमे जावै ॥ बूझै हुकमु सो साचि समावै ॥ नानक साचु मिलै मनि भावै गुरमुखि कार कमाई हे ॥१६॥५॥ {पन्ना 1024-1025}

पद्अर्थ: साचै = सदा स्थिर रहने वाले (प्रभू) ने। सबदि = शबद में। तिसु = उस (प्रभू) को। भाणा = अच्छा लगा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। परमेसरि = परमेश्वर ने। भाई = हे भाई!।1।

जिस के = जिस (प्रभू) के। पतीजै = खुश होता है। अभेवा = जिसका भेद ना पाया जा सके। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।2।

दे = दे के। साचे = सदा स्थिर प्रभू के (भण्डारों में)। काचे = छोटे जीव, तुच्छ जीव। साचि = सदा स्थिर प्रभू (के नाम) में।3।

जागि रहे = माया के मोह से सचेत रहते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे। साबतु = बची हुई पूँजी वाले।4।

कूड़े = झूठ ही, माया के मोह में ही। आवै = पैदा होता है। राती = रति हुई (जीव स्त्री)। से = वह लोग। पैधे = सरोपा हासल करते हैं, सम्मान पाते हैं।5।

कूड़ि = माया के मोह में। ठगी ठग = ठगों ने ठॅग ली। वाड़ी = बगीची। ओजाड़ी = उजाड़ में, जिसको कोई वाली वारिस नहीं है, बिना पति की, निखसमी। सादि = स्वाद वाला, स्वादिष्ट। हरि बिसरिअै = हरी को बिसारने से।6।

साचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। आघाई = तृप्त हो जाता है। साची = सदा अटल रहने वाली। आपु = अपने आप को।7।

नावहु = नाम से। भरमु = भटकना। पचि = दुखी हो के। अचेत = गाफिल। अजगरि भारि = बहुत ही ज्यादा भार तले।8।

बाद = झगड़े। मै = मुझे। सालाही = मैं उसकी सिफत करूँ। अरपि = भेटा करके। जग जीवन = जगत का जीवन, परमात्मा। बणत = संबंध।9।

गति = आत्मिक अवस्था। मिति = माप, गिनती। को = कोई व्यक्ति। वडाई = मान, अहंकार। खावै = (उसके आत्मिक जीवन को) खा जाता है। दाती = दातों में। तोटि = कमी, घाटा। तिनहि = तिनि ही, उस (परमात्मा) ने ही।10।

वेपरवाह = बेपरवाह प्रभू की। समाहे = संबाहे, पहुँचाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रजाई = रजा का मालिक।11।

इकि = अनेकों जीव। सोगी = शोक में ग्रसे हुए। विआपे = दबाए हुए। भाउ = प्रेम। अनहदि = अमर प्रभू में। सबदि = गुरू के शबद से।12।

गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अविगति = गिरती हुई (निम्न) आत्मिक अवस्था। सार = कद्र। कमाई = कमा के।13।

तीरथि = तीर्थ पर। देह = शरीर। खपावहि = मुश्किल करते हैं। कितु बिधि = किस तरीके से?।14।

उझड़ि = गलत मार्ग पर। अवाई = अवैड़ा। जाई = जा के, जाय। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला व्यक्ति। बूडहि = डूबता है। कूड़ि = माया के मोह में (फंसने के कारण)। बैराई = वैरी।15।

आवै = पैदा होता है। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। साचु = सदा स्थिर प्रभू। मनि = मन में। भावै = प्यारा लगता है।16।5।

अर्थ: परमेश्वर ने अपनी ज्योति तीनों भवनों में टिका के रखी है; हे भाई! कोई और उस प्रभू जैसा नहीं है। उस सदा-स्थिर प्रभू ने जिन लोगों को (अपने चरणों में) मिलाया जिन्हें गुरू के शबद में जोड़ा तब जब उसे अच्छा लगा, वह लोग अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो गए।1।

जब (भक्तजन) गुरू के शबद में जुड़ते हैं, जब उस प्रभू के सेवक बन के उसकी सेवा-भक्ति करते हैं, तब वह अलख और अभेव प्रभू (उनकी इस मेहनत पर) प्रसन्न होता है। करतार अपने भक्तों में आत्मिक गुण पैदा करता है, स्वयं उन पर बख्शिश करता है उनको महातम देता है।2।

(जीवों को दातें) दे दे के सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के (भण्डारों में) कमी नहीं आती (घाटा नहीं पड़ता), पर तुच्छ जीव दातें ले ले के (भी) मुकर जाते हैं, (अपने जीवन के) मूल-प्रभू (के खुल-दिले-स्वाभाव) को नहीं समझते, सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ने की जीवों में रीझ पैदा नहीं होती, प्रभू के बिना और आसरों की झाक में भटक के गलत राह पर पड़े रहते हैं।3।

जो लोग गुरू की शरण पड़ते हैं वे हर वक्त माया के मोह से सचेत रहते हैं, गुरू की शिक्षा ले के वे सदा-स्थिर प्रभू की लगन (का आनंद) पहचान लेते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाले बंदे अपने आत्मिक जीवन की पूँजी को (माया के हमलों से) बचा के रखते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया के मोह में गाफिल टिके रहते हैं, और आत्मिक गुणों का सरमाया लुटा बैठते हैं।4।

जो जीव-स्त्री माया के मोह के रंग में रंगी रहती है, वह माया के मोह में ग्रसी ही पैदा होती है, यहाँ (संसार में) हमेशा माया के मोह का ही व्यापार करती है, माया के मोह में फसी हुई ही दुनिया से चली जाती है। जो लोग गुरू के शबद में जुड़े रहते हैं उन्हें परमात्मा की हजूरी में आदर मिलता है। गुरू की शरण पड़ने वाले लोगों की सुरति (प्रभू की याद में) टिकी रहती है।5।

जो जीव-स्त्री माया की तृष्णा में मोही रहती है उसके आत्मिक जीवन की बगीची को कामादिक ठॅग, ठॅग लेते हैं, जैसे कोई फुलवाड़ी कहीं उजाड़ में (बिना किसी वाली वारिस रखवाले की होने के कारण) उजड़ जाती है। (भले वह माया के मोह में फसी रहती है फिर भी) परमात्मा के नाम के बिना कोई भी चीज स्वादिष्ट नहीं लग सकती (कोई भी आकर्षण अच्छा नहीं लग सकता), प्रभू का नाम भूलने के कारण वह सदा दुख ही पाती है।6।

जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू का नाम (आत्मिक जिंदगी के लिए) भोजन मिलता है, वह (तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है, जिसको परमात्मा का नाम-रत्न मिल जाता है, उसको (लोक-परलोक में) सदा-स्थिर रहने वाली इज्जत मिलती है। जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, वही (अपने जीवन-मनोरथ को) पहचानता है, उसकी सुरति प्रभू की ज्योति में मिली रहती है।7।

जो जीव-स्त्री परमात्मा के नाम से टूटी रहती है वह दुख सहती है (दुनिया के कामों में चाहे वह) बहुत समझदारी (दिखाए), उसकी (माया की) भटकना दूर नहीं होती। जो लोग परमात्मा की याद से बेखबर रहते हैं परमात्मा को याद नहीं करते, (वे माया के मोह में) दुखी हो-हो के आत्मिक मौत सहेड़ते हैं, वे (मोह के) बहुत ही भारे बोझ तले लदे रहते हैं।8।

(माया के मोह में फसे हुओं का जिधर-किधर भी हाल देखो) झगड़ों से विरोध से कोई भी खाली नहीं है (और अगर तुम्हें यकीन नहीं आता तो) मुझे कोई ऐसा दिखाओ, मैं उसका आदर करता हूँ। अपना मन और शरीर भेटा करने से ही (भाव, अपने मन की अगुवाई और ज्ञानेन्द्रियों की भटकना को छोड़ के ही) जगत का जीवन परमात्मा मिलता है, तब ही उसके साथ सांझ बनती है।9।

कोई आदमी नहीं जान सकता कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है। अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा के (ये घमण्ड करे कि मैं प्रभू की गति-मिति पा सकता हूँ तो यह) घमण्ड उसके आत्मिक जीवन को तबाह कर देता है। सारी सृष्टि सदा-स्थिर रहने वाले मालिक ने पैदा की है (सबको दातें देता है, पर उसकी) दातों में कमी नहीं होती।10।

(परमात्मा की यह एक) बड़ी भारी खूबी है कि (इतने बड़े जगत-परिवार का मालिक-पति हो के भी) बे-परवाह है (प्रबंध करने में घबराता नहीं), स्वयं ही पैदा करता है और स्वयं ही सबको रिजक पहुँचाता है। सब दातों का मालिक प्रभू दया का श्रोत है, किसी भी जीव से दूर नहीं है, वह रजा का मालिक जिस जीव को मिल जाता है वह (भी) आत्मिक अडोलता में टिक जाता है।11।

(सृष्टि के) अनेकों जीव सोग में ग्रसे रहते हैं, अनेकों जीव रोग तले दबाए रहते हैं, जो कुछ करता है प्रभू स्वयं ही करता है। जो मनुष्य गुरू की पूरी मति के द्वारा परमात्मा की भगती करता है परमात्मा के साथ प्रेम गाठता है, वह उस अमर प्रभू में लीन रहता है, गुरू के शबद के द्वारा प्रभू उसको अपने आप की समझ दे देता है (और उसको कोई सोग कोई रोग नहीं व्यापता)।12।

अनेकों लोग (जगत त्याग के) नंगे रहते हैं, भूख काटते हैं (त्याग के भुलेखे के) भटकाए हुए (जगह-जगह) भटकते फिरते हैं। अनेकों लोग (किसी निहित आत्मिक उन्नति की प्राप्ति की खातिर) अपने शरीर पर जोर-जबरदस्ती कर-कर के मरते हैं। पर ऐसा कोई मनुष्य (मनुष्य जीवन की) कद्र नहीं समझता, ऐसे किसी व्यक्ति को अच्छे-बुरे आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। वही व्यक्ति समझता है जो गुरू का शबद कमाता है (जो गुरू के शबद अनुसार अपना जीवन ढालता है)।13।

अनेकों लोग (जगत त्याग के) तीर्थ (तीर्थों) पर स्नान करते हैं, और अन्न नहीं खाते (दूधाधारी बनते हैं)। अनेकों लोग (त्यागी बन के) आग जलाते हैं (धूणियाँ तपाते हैं और) अपने शरीर को (तपों का) कष्ट देते हैं पर परमात्मा का नाम सिमरन के बिना (माया के बँधनों से) खलासी नहीं मिलती। सिमरन के बिना और किसी तरीके से कोई मनुष्य संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघ सकता।14।

(कई व्यक्ति ऐसे हैं जो) कुर्मागी हो कर गुरू की मति पर चलना छोड़ देते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला अवैड़ा मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता। परमात्मा के नाम से टूटे हुए बंदे (निरा) माया का ही धंधा करते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति दुखी हो-हो के (माया के मोह के समुंद्र में ही) गोते खाते रहते हैं (माया के मोह के) झूठे धंधों में (फसे रहने के कारण) आत्मिक मौत उनकी वैरनि बन जाती है।15।

हरेक जीव परमात्मा के हुकम अनुसार ही (जगत में) आता है, उसके हुकम अनुसार (यहाँ से) चला जाता है। जो जीव उसकी रजा को समझ लेता है वह उस सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (सिमरन की) कार करता है उसको सदा-स्थिर प्रभू मिल जाता है, उसके मन को प्रभू प्यारा लगने लग जाता है।16।5।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh