श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला १ ॥ केते जुग वरते गुबारै ॥ ताड़ी लाई अपर अपारै ॥ धुंधूकारि निरालमु बैठा ना तदि धंधु पसारा हे ॥१॥ जुग छतीह तिनै वरताए ॥ जिउ तिसु भाणा तिवै चलाए ॥ तिसहि सरीकु न दीसै कोई आपे अपर अपारा हे ॥२॥ गुपते बूझहु जुग चतुआरे ॥ घटि घटि वरतै उदर मझारे ॥ जुगु जुगु एका एकी वरतै कोई बूझै गुर वीचारा हे ॥३॥ बिंदु रकतु मिलि पिंडु सरीआ ॥ पउणु पाणी अगनी मिलि जीआ ॥ आपे चोज करे रंग महली होर माइआ मोह पसारा हे ॥४॥ गरभ कुंडल महि उरध धिआनी ॥ आपे जाणै अंतरजामी ॥ सासि सासि सचु नामु समाले अंतरि उदर मझारा हे ॥५॥ चारि पदारथ लै जगि आइआ ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ ॥ एकु विसारे ता पिड़ हारे अंधुलै नामु विसारा हे ॥६॥ बालकु मरै बालक की लीला ॥ कहि कहि रोवहि बालु रंगीला ॥ जिस का सा सो तिन ही लीआ भूला रोवणहारा हे ॥७॥ भरि जोबनि मरि जाहि कि कीजै ॥ मेरा मेरा करि रोवीजै ॥ माइआ कारणि रोइ विगूचहि ध्रिगु जीवणु संसारा हे ॥८॥ काली हू फुनि धउले आए ॥ विणु नावै गथु गइआ गवाए ॥ दुरमति अंधुला बिनसि बिनासै मूठे रोइ पूकारा हे ॥९॥ आपु वीचारि न रोवै कोई ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होई ॥ बिनु गुर बजर कपाट न खूलहि सबदि मिलै निसतारा हे ॥१०॥ बिरधि भइआ तनु छीजै देही ॥ रामु न जपई अंति सनेही ॥ नामु विसारि चलै मुहि कालै दरगह झूठु खुआरा हे ॥११॥ नामु विसारि चलै कूड़िआरो ॥ आवत जात पड़ै सिरि छारो ॥ साहुरड़ै घरि वासु न पाए पेईअड़ै सिरि मारा हे ॥१२॥ खाजै पैझै रली करीजै ॥ बिनु अभ भगती बादि मरीजै ॥ सर अपसर की सार न जाणै जमु मारे किआ चारा हे ॥१३॥ परविरती नरविरति पछाणै ॥ गुर कै संगि सबदि घरु जाणै ॥ किस ही मंदा आखि न चलै सचि खरा सचिआरा हे ॥१४॥ साच बिना दरि सिझै न कोई ॥ साच सबदि पैझै पति होई ॥ आपे बखसि लए तिसु भावै हउमै गरबु निवारा हे ॥१५॥ गुर किरपा ते हुकमु पछाणै ॥ जुगह जुगंतर की बिधि जाणै ॥ नानक नामु जपहु तरु तारी सचु तारे तारणहारा हे ॥१६॥१॥७॥ {पन्ना 1026-1027}

पद्अर्थ: केते = अनेकों ही। वरते = गुजर गए। गुबारे = घोर अंधेरे में। ताड़ी लाई = अपने आप में टिका रहा। अपारै = अपार प्रभू ने। अपर = जिससे परे और कोई नहीं। धुंधूकारि = घुप अंधेरे में। निरालमु = निर्लिप। तदि = तब। धंधु = माया वाली दौड़ भाग।1।

तिनै = जिन ही, उस परमात्मा ने ही। तिसहि = तिसु ही, उस प्रभू का ही।2।

जुग चतुआरे = चार जुगों में। उदर मझारे = पेट में, हरेक के हृदय में। ऐका ऐकी = अकेला स्वयं ही। कोई = कोई विरला।3।

बिंदु = वीर्य की बूँद। रकतु = रक्त, लहू। पिंडु = शरीर। सरीआ = पैदा हुआ। महली = शरीरों का मालि प्रभू।4।

उरध = उल्टा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाले = संभालता है, याद करता है।5।

जगि = जगत में। सिव सकती घरि = शिव की शक्ति के घर में, प्रभू की रची माया के घर में। ऐकु = एक परमात्मा को। अंधुलै = अंधे जीव ने।6।

लीला = खेल। कहि कहि = कह कह के। तिन ही = तिनि ही, उस (प्रभू) ने ही।7।

कि कीझे = क्या कर सकता है? रोइ = रो रो के। विगूचहि = दुखी होते हैं।8।

हू = से। फुनि = दोबारा। गथु = पूंजी (गत्थ = प्र:)। बिनसि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। मूठे = ठगे जा के।9।

आपु = अपने आप को। बजर = बज्र, करड़े। कपाट = किवाड़, भिक्त।10।

छीजै = कमजोर हो जाता है। देही = शरीर। जपई = जपै, जपता है। अंति = आखिर में। सनेही = प्यार करने वाला, मित्र। मुहि कालै = काले मुँह से।11।

कूड़िआरे = झूठ का बनजारा। पड़ै = पड़ता है। छारो = राख। घरि = घर में। सिरि = सिर पर।12।

खाजै = खाते हैं। पैझै = पहनते हैं। रली = रंग रलियाँ। अभ = अंदरूनी (अभ्यंतर)। बादि = व्यर्थ। सर अपसर = अच्छा बुरा समय। सार = समझ, परख। चारा = जोर, पेश।13।

परविरती = (प्रवृक्ति) दुनिया वाली व्यस्तता। नरविरती = (निवृक्ति) उपरामता। घरु = वह ठिकाना जहाँ मन शांत रह सकता है।14।

सिझै = कामयाब होता। पैझै = सिरोपा मिला। पति = इज्जत। तिसु = उस प्रभू को।15।

ते = से। बिधि = (संसार समुंद्र से पार लांघने की) विधि। सचु = सदा स्थिर प्रभू।16।

अर्थ: अनेकों ही युग घोर अंधकार में गुजर गए, (भाव, सृष्टि-रचना से पहले बेअंत समय ऐसी हालत थी जिसके बाबत कुछ भी समझ नहीं आ सकती), तब अपर-अपार परमात्मा ने (अपने आप में) समाधि लगाई हुई थी। उस घुप अंधेरे में प्रभू स्वयं निर्लिप बैठा हुआ था, तब ना जगत का पसारा था और ना ही माया वाली दौड़-भाग थी।1।

(घोर अंधकार के) छक्तिस युग उस परमात्मा ने ही बरताए रखे, जैसे उसे अच्छा लगा उसी तरह (उस घुप अंधेरे वाली कार ही) चलाता रहा। वह परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उससे परे और कोई हस्ती नहीं, उसका परला छोर नहीं पाया जा सकता, कोई भी उसके बराबर का नहीं दिखता।2।

(अब जब उसने जगत-रचना रच ली है, तो भी, हे भाई! उसी को) चारों जुगों (जगत के अंदर) गुप्त व्यापक जानो। वह हरेक शरीर के अंदर हरेक के हृदय में मौजूद है। वह अकेला स्वयं ही हरेक युग में (सारी सृष्टि के अंदर) रम रहा है- इस भेद को कोई वह विरला व्यक्ति समझता है जो गुरू (की बाणी) की विचार करता है।3।

(उस परमात्मा के हुकम में ही) पिता के वीर्य की बूँद और माता के पेट के लहू ने मिल के (मनुष्य का) शरीर बना दिया। हवा-पानी-आग (आदि तत्वों ने मिल के) जीव रच दिए। हरेक शरीर में बैठा परमात्मा स्वयं ही सब चोज-तमाशे कर रहा है, उसने स्वयं ही माया के मोह का खिलारा पसारा हुआ है।4।

(उस प्रभू के हुकम अनुसार ही) जीव माँ के पेट में अल्टा (लटक के) प्रभू-चरणों में सुरति जोड़े रखता है, प्रभू अंतरजामी स्वयं ही (जीव के दिल की) जानता है। जीव माँ के पेट के अंदर हर सांस में सदा-स्थिर परमात्मा का नाम चेते करता रहता है।5।

(परमात्मा से) चार पदार्थ ले कर जीव जगत में आया है, (पर यहाँ आ के) प्रभू की रची हुई माया के घर में ठिकाना बना बैठा है (भाव, माया के मोह में फस जाता है, माया के मोह में) अंधे हुए जीव ने प्रभू का नाम भुला दिया है। जो जीव नाम भुलाता है वह मानस जनम की बाजी हार जाता है।6।

(देखो माया के मोह का प्रभाव! जब किसी के घर में कोई) बालक मरता है, तो (माता-पिता-बहिन-भाई आदि संबंधी जन) उस बालक की प्यार-भरी खेलें याद करते हैं, और यह कह-कह के रोते हैं कि बालक बहुत ही हस-मुख था। जिस प्रभू का भेजा हुआ वह बालक था उसने वह वापस ले लिया (उसको याद कर-कर के) रोने वाला (माया के मोह में फस के जीवन-राह से) टूट जाता है।7।

जब कोई भर जवानी में मर जाते हैं तो भी क्या किया जा सकता है? ये कह-कह के रोया जाता ही है कि वह मेरा (प्यारा) था। (जो रोते भी हैं वह भी अपनी कमियां याद कर कर के) माया की खातिर रो-रो के दुखी होते हैं। जगत में ऐसा जीवन धिक्कारयोग्य हो जाता है।8।

(जवानी गुजर जाती है) काले केसों से फिर धौले आ जाते हैं (इस उम्र तक भी) प्रभू के नाम से टूटा रह के मनुष्य अपने आत्मिक जीवन का सरमाया गवाए जाता है। बुरी मति के पीछे लग के माया के मोह में अंधा हुआ जीव आत्मिक मौत सहेड़ के आत्मिक मौत मरता रहता है। माया का ठॅगा हुआ माया की खातिर ही रो-रो के पुकारता है (उस उम्र तक भी माया के रोने रोता रहता है)।9।

जो कोई मनुष्य अपने आप को विचारता है (अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है) वह पछताता नहीं है। पर यह समझ किसी को तब ही होती है जब उसको गुरू मिल जाए। (माया के मोह के कारण मनुष्य की अक्ल पर पर्दा पड़ा रहता है; अक्ल मानो, करड़े किवाड़ों में बंद रहती है) गुरू के बिना (वे) करड़े किवाड़ नहीं खुलते। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ता है वह (इस कैद में से) मुक्ति हासिल कर लेता है।10।

मनुष्य बुढा हो जाता है, (उसका) शरीर भी कमजोर हो जाता है (पर माया का मोह इतना प्रबल है कि अभी भी) परमात्मा का नाम नहीं सिमरता जो (सब साक-संबंधियों के साथ छोड़ जाने पर भी) अंत को प्यारा साथी बनता है। परमात्मा का नाम भुला के मनुष्य बदनामी का टीका माथे पर लगा के यहाँ से चल पड़ता है, पल्ले झूठ ही है (पल्ले माया का मोह ही है, इस वास्ते) प्रभू की हजूरी में ख़्वार ही होता है।11।

(सारी उम्र) झूठ का व्यापार करने वाला व्यक्ति परमात्मा का नाम भुला के (यहाँ से आत्मिक गुणों से खाली हाथ) चल पड़ता है, जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए के सिर पर राख ही पड़ती है (धिक्कारें पड़ती हैं)। (यहाँ से गए को) परमात्मा के दर पर कोई जगह नहीं मिलती, (जब तक) जगत में (रहा, यहाँ) भी सिर पर चोटें ही खाता रहा।12।

(अच्छा) खाते हैं, (अच्छा) पहनते हैं, (दुनिया की) मौज मनाते हैं (इन ही व्यस्तताओं में) हृदय परमात्मा की भक्ति से सूना रहने के कारण व्यर्थ ही आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। जो व्यक्ति (इस तरह अंधा हो के) अच्छे-बुरे समय की सूझ नहीं जानता, उसको जम दुखी करता है, और उसकी कोई पेश नहीं चलती।13।

जो मनुष्य दुनिया की किरत-कार करता हुआ दुनिया से उपराम रहना जानता है, जो गुरू की संगति में रह के गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा के साथ मिलाप-अवस्था वाली सांझ डाले रखता है, जीवन-यात्रा में किसी को बुरा नहीं कहता, सदा-स्थिर-प्रभू में टिका रहता है वह सच का व्यापारी व्यक्ति (प्रभू की हजूरी में) खरा (सिक्का माना जाता) है।14।

सदा-स्थिर-प्रभू के नाम के बिना कोई मनुष्य (प्रभू के) दर पे (जिंदगी की पड़ताल में) कामयाब नहीं होता। सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में जुड़ने से सिरोपा मिलता है सम्मान मिलता है। (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस पर प्रभू स्वयं बख्शिश करता है, वह उसको प्यारा लगने लग जाता है और वह अहम्-अहंकार (अपने अंदर से) दूर करता है।15।

गुरू की मेहर से ही मनुष्य परमात्मा के हुकम को पहचानता है और युगों-युगांतरों से चली आ रही उस विधि से सांझ डालता है (जिससे संसार-समुंद्र से सही सलामत पार लांघा जा सकता है। वह विधि है परमात्मा का नाम सिमरना)। हे नानक! (कह- हे भाई! परमात्मा का) नाम जपो (नाम सिमरन की) तैराकी तैरो, (इस तरह) सदा-स्थिर-प्रभू और पार लंघाने में समर्थ प्रभू (संसार-समुंद्र में से) पार लंघा लेता है।16।1।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh