श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 1041 मारू महला १ ॥ कामु क्रोधु परहरु पर निंदा ॥ लबु लोभु तजि होहु निचिंदा ॥ भ्रम का संगलु तोड़ि निराला हरि अंतरि हरि रसु पाइआ ॥१॥ निसि दामनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै ॥ अहिनिसि जोति निरंतरि पेखै ॥ आनंद रूपु अनूपु सरूपा गुरि पूरै देखाइआ ॥२॥ सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ॥ ससि घरि सूरु दीपकु गैणारे ॥ देखि अदिसटु रहहु लिव लागी सभु त्रिभवणि ब्रहमु सबाइआ ॥३॥ अम्रित रसु पाए त्रिसना भउ जाए ॥ अनभउ पदु पावै आपु गवाए ॥ ऊची पदवी ऊचो ऊचा निरमल सबदु कमाइआ ॥४॥ अद्रिसट अगोचरु नामु अपारा ॥ अति रसु मीठा नामु पिआरा ॥ नानक कउ जुगि जुगि हरि जसु दीजै हरि जपीऐ अंतु न पाइआ ॥५॥ अंतरि नामु परापति हीरा ॥ हरि जपते मनु मन ते धीरा ॥ दुघट घट भउ भंजनु पाईऐ बाहुड़ि जनमि न जाइआ ॥६॥ भगति हेति गुर सबदि तरंगा ॥ हरि जसु नामु पदारथु मंगा ॥ हरि भावै गुर मेलि मिलाए हरि तारे जगतु सबाइआ ॥७॥ जिनि जपु जपिओ सतिगुर मति वा के ॥ जमकंकर कालु सेवक पग ता के ॥ ऊतम संगति गति मिति ऊतम जगु भउजलु पारि तराइआ ॥८॥ इहु भवजलु जगतु सबदि गुर तरीऐ ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि जरीऐ ॥ पंच बाण ले जम कउ मारै गगनंतरि धणखु चड़ाइआ ॥९॥ साकत नरि सबद सुरति किउ पाईऐ ॥ सबद सुरति बिनु आईऐ जाईऐ ॥ नानक गुरमुखि मुकति पराइणु हरि पूरै भागि मिलाइआ ॥१०॥ निरभउ सतिगुरु है रखवाला ॥ भगति परापति गुर गोपाला ॥ धुनि अनंद अनाहदु वाजै गुर सबदि निरंजनु पाइआ ॥११॥ निरभउ सो सिरि नाही लेखा ॥ आपि अलेखु कुदरति है देखा ॥ आपि अतीतु अजोनी स्मभउ नानक गुरमति सो पाइआ ॥१२॥ अंतर की गति सतिगुरु जाणै ॥ सो निरभउ गुर सबदि पछाणै ॥ अंतरु देखि निरंतरि बूझै अनत न मनु डोलाइआ ॥१३॥ निरभउ सो अभ अंतरि वसिआ ॥ अहिनिसि नामि निरंजन रसिआ ॥ नानक हरि जसु संगति पाईऐ हरि सहजे सहजि मिलाइआ ॥१४॥ अंतरि बाहरि सो प्रभु जाणै ॥ रहै अलिपतु चलते घरि आणै ॥ ऊपरि आदि सरब तिहु लोई सचु नानक अम्रित रसु पाइआ ॥१५॥४॥२१॥ {पन्ना 1041-1042} पद्अर्थ: परहरु = त्याग दे। पर = पराई। तजि = तज के, त्याग के। निचिंदा = निष्चिंत, बेफिकर।1। निसि = रात के वक्त। दामनि = बिजली। चंदाइणु = रौशनी। अहि = दिन। निरंतरि = एक रस, व्यापक, हर जगह। गुरि = गुरू ने।2। ससि = चँद्रमा। ससि घरि = चँद्रमा के घर में, हृदय में। सूरु = सूरज, प्रकाश। गैणारे = हृदय आकाश में। दीपकु = दीया। देखि = देख के। सभु = हर जगह। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले जगत में। सबाइआ = सब जगह, सारे।3। अनभउ पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ मनुष्य के अंदर ऊँची सूझ पैदा होती है। आपु = स्वै भाव। पदवी = दर्जा।4। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच।) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। जसु = सिफत सालाह।5। मन ते = मन से। धीरा = धीरज वाला हो गया, टिक गया। दुघट = दुर्घट, मुश्किल। घट = रास्ता। भउ भंजनु = डर नाश करने वाला प्रभू। बाहुड़ि = दाबारा, फिर।6। भगति हेति = भक्ति की खातिर, भक्ति करने वाले। गुर सबदि = गुरू के शबद में (जुड़ के)। तरंग = लहरें, वलवले, उत्साह। मंगा = मैं माँगता हूँ। गुर मेलि = गुरू की संगति में।7। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। वा के = उस के (पास)। कंकर = (किंकर) दास, सेवक। पग ता के = उसके पैरों के। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, रहन सहन।8। दुबिधा = मानसिक खींचतान, अशांति। जरीअै = जला ली जाती है। पंच बाण = पाँच तीर (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य)। गगनंतरि = चिक्त आकाश में। चढ़ाइआ = कस लिया, निशाना बाँधा।9। साकत नरि = साकत मनुष्य, माया ग्रसित मनुष्य के अंदर। सुरति = लगन। पराइणु = आसरा।10। धुनि = ध्वनि, आवाज, रौंअ। अनाहदु = एक रस, सदा लगातार। वाजै = बजती है, अपना प्रभाव डालती है। शबदि = शबद से।11। सिरि = सिर पर। लेखा = किए कर्मों का हिसाब। अलेखु = जिसकी तस्वीर ना बनाई जा सके। संभउ = स्वयंभु, अपने आप से प्रकट होने वाला।12। अंतर- (नोट: इस सोलहे में आए शब्द 'अंतर, अंतरु और अंतरि' ध्यान से विचारने योग्य है)। अंतरु = अंदरूनी, हृदय। अनत = (अन्यत्र) किसी और तरफ।13। अभ अंतरि = (अभ्यन्तर = the inside of anything, mind) मन में, हृदय में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।14। अलिपतु = निर्लिप। चलते = चंचल मन को। घरि = घर में। आणै = लाता है। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। तिहु लोई = तीनों लोकों में।15। अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर से) काम क्रोध और पराई निंदा दूर कर, लब और लोभ त्याग के निष्चिंत हो जा (भाव, अगर तू काम, क्रोध, पराई निंदा, लब और लोभ दूर कर लेगा, तो तेरा मन हर वक्त शांत रहेगा)। जो मनुष्य (इन विकारों की कई किस्मों की) भटकनों की जंजीरों को तोड़ के निर्लिप हो जाता है वह परमात्मा को अपने अंदर ही पा लेता है, वह परमात्मा का नाम-रस प्राप्त करता है।1। जैसे रात के वक्त बिजली की चमक से मनुष्य (अंधेरे में) रौशनी देख लेता है, इसी तरह (गुरू की शरण पड़ कर सिमरन की बरकति से) दिन-रात (हर वक्त) परमात्मा की ज्योति को हर जगह व्यापक देख सकता है। वह आनंद-रूप और आनंद-स्वरूप प्रभू (जिस किसी ने देखा है) पूरे गुरू ने ही दिखाया है।2। (हे भाई!) सतिगुरू की शरण पड़ो (जो मनुष्य गुरू को मिलता है उसको) परमात्मा स्वयं ही (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है, उसके शांत हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, उसके हृदय-क्षितिज (हृदय-आकाश) में (मानो) दीया जग उठता है। (हे भाई! अपने अंदर) अदृष्ट प्रभू को देख के उसमें सुरति जोड़े रखो। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसको) हर जगह सारे त्रिभवणी जगत में परमात्मा ही परमात्मा दिखता है।3। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस प्राप्त करता है उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है उसका सहम दूर हो जाता है, उसको वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहाँ ज्ञान का प्रकाश होता है, वह स्वै भाव दूर कर लेता है। वह बड़ी ऊँची आत्मिक अवस्था पा लेता है, ऊँचे से ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल करता है, जीवन को पवित्र करने वाला गुरू-शबद वह मनुष्य अपने अंदर कमाता है (भाव, गुरू-शबद के अनुसार जीवन-घाड़त घड़ता है)।4। अदृश्य और बेअंत प्रभू का नाम मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, पर वह नाम बड़ा ही रसीला बड़ा ही मीठा और बड़ा ही प्यारा है। (मेरी नानक की अरदास है कि, हे प्रभू! मुझे) नानक को सदा ही अपनी सिफत-सालाह की दाति दे। (ज्यों-ज्यों) प्रभू का नाम जपें (त्यों-त्यों वह बेअंत दिखाई देने लगता है, पर उसकी ताकतों का) अंत नहीं पाया जा सकता।5। जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम बस जाता है जिसको नाम-हीरा मिल जाता है, परमात्मा का नाम सिमरते-सिमरते उसका मन अंदर से ही धैर्य-शांति हासिल कर लेता है। (सिमरन की बरकति से) मुश्किल जीवन-पथ का डर नाश करने वाला परमात्मा मिल जाता है (जिसको मिल जाता है) वह दोबारा जनम में नहीं आता वह पुनः जनम-मरण में नहीं पड़ता।6। हे प्रभू! मैं (तेरे दर से) तेरी सिफत-सालाह (की दाति) माँगता हूँ, तेरे नाम (का) सरमाया माँगता हूँ, मैं यह माँगता हूँ कि गुरू के शबद में जुड़ के तेरी भक्ति करने के लिए मेरे अंदर उत्साह पैदा हो। (जो भाग्यशाली जीव) परमात्मा को अच्छा लगता है उसको वह गुरू की संगति में मिलाता है। परमात्मा (चाहे तो) सारे जगत को (विकारों के समुंद्र से) पार लंघा लेता है।7। जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का जाप जपा है सतिगुरू की शिक्षा ने (समझो) उसके अंदर घर कर लिया है। काल और जम के सेवक उसके चरणों के दास बन गए हैं। उसकी संगति (औरों को भी) श्रेष्ठ बना देती है, उसकी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, उसका रहन-सहन ऊँचा हो जाता है। वह औरों को भी संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।8। गुरू के शबद में जुड़ के इस संसार-समुंद्र से पार लांघ सकते हैं। (गुरू के शबद की बरकति से मनुष्य की) अंदरूनी अशांति अंदर ही जल जाती है। वह मनुष्य अपने चिक्त-आकाश में (गुरू के शबद-रूप) धनुष को ऐसा कसता है कि (सत, संतोख, दया, धर्म व धैर्य के) पाँच तीर ले के जम को (मौत के डर को, आत्मिक मौत को) मार लेता है।9। पर माया-ग्रसित मनुष्य के अंदर गुरू के शबद की लगन ही पैदा नहीं होती, शबद से लगन के बिना (माया के मोह में फस के) वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। हे नानक! गुरू की शरण पड़ना ही (माया के मोह से) खलासी का उपाय है, और पूरी किस्मत से ही परमात्मा गुरू मिलाता है।10। निर्भय (परमात्मा का रूप) सतिगुरू (जिस मनुष्य का) रखवाला बनता है उसको गुरू से परमात्मा की भक्ति (की दाति) मिल जाती है। उस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद की एक-रस ध्वनि (रौंअ) चल पड़ती है, गुरू के शबद में जुड़ के मनुष्य उस परमात्मा से मिल जाता है जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।11। परमात्मा को कोई डर व्याप नहीं सकता क्योंकि उसके सिर पर किसी और का हुकम नहीं है। वह प्रभू स्वयं अलेख है (भाव, कोई और व्यक्ति उससे किए कर्मों का हिसाब नहीं माँग सकता)। अपनी रची हुई सारी कुदरति में वह ही व्यापक दिखाई दे रहा है। (सारी कुदरति में व्यापक होते हुए भी) वह निर्लिप है, जूनियों से रहित है, और अपने आप से ही प्रकट होने की ताकत रखता है। हे नानक! गुरू की मति पर चलने से ही वह परमात्मा मिलता है।12। जो मनुष्य सतिगुरू के साथ गहरी सांझ डाल लेता है वह अपनी अंदरूनी आत्मिक हालत को समझने लग जाता है। गुरू के शबद में जुड़ के वह निर्भय परमात्मा को (हर जगह बसता) पहचान लेता है। वह मनुष्य अपना अंदरूनी (हृदय) परख के प्रभू को एक-रस सब जगह व्यापक समझता है, (इसलिए) उसका मन किसी और (आसरे की झाक) की तरफ नहीं डोलता।13। जिस मनुष्य का हृदय दिन-रात माया-रहित प्रभू के नाम में रसा हुआ रहता है, निरभउ परमात्मा उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। हे नानक! उस परमात्मा की सिफत-सालाह संगति (में बैठने से) मिलती है। (सिफत-सालाह करने वाले बंदे को) परमात्मा अडोल आत्मिक अवस्था में मिलाए रखता है।14। (सिफत-सालाह करने वाला व्यक्ति) उस परमात्मा को अपने अंदर व बाहर (सारी सृष्टि में) व्यापक समझता है, वह माया के मोह से निर्लिप रहता है, और (माया की ओर) दौड़ते (मन) को (मोड़ के अपने) अंदर ही ले आता है। हे नानक! उस मनुष्य को सदा-स्थिर परमात्मा सब जीवों का रखवाला व सबका मूल और तीनों भवनों में व्यापक (की हकीकत) दिखाई दे जाती है। वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल कर लेता है।15।4।21। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |