श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1089 पउड़ी ॥ हरि का नामु अमोलु है किउ कीमति कीजै ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे वरतीजै ॥ गुरमुखि सदा सलाहीऐ सचु कीमति कीजै ॥ गुर सबदी कमलु बिगासिआ इव हरि रसु पीजै ॥ आवण जाणा ठाकिआ सुखि सहजि सवीजै ॥७॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: किउ...कीजै = कैसे मूल्य पाया जा सके? मोल नहीं आँका जा सकता, 'नाम' के बदले के मूल्य की कोई भी चीज पेश नहीं की जा सकती। साजीअनु = साजी है उस (प्रभू) ने । इव = इस तरह। सहजि = 'सहज' में, शांत अवस्था में। अर्थ: (धरती के मालिक राजाओं के मुकाबले में) प्रभू का नाम एक ऐसी वस्तु है जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता, जिसके बराबर के मूल्य की कोई वस्तु नहीं बताई जा सकती, (प्रभू के 'नाम' के बराबर के मूल्य की कोई चीज हो भी कैसे? क्योंकि) उसने स्वयं ही सारी सृष्टि बनाई है और स्वयं ही इसमें हर जगह मौजूद है। (हाँ,) गुरू के सन्मुख हो के सदा सिफत-सालाह करें (बस, यह) सिमरन ही ('नाम' की प्राप्ति के लिए) मूल्य किया जा सकता है, (क्योंकि) गुरू के शबद से हृदय-कमल खिलता है और इस तरह नाम-रस पीया जाता है, (जगत में) आने-जाने का चक्कर समाप्त हो जाता है और सुख में अडोल अवस्था में लीन हो जाया जाता है।7। सलोकु मः १ ॥ ना मैला ना धुंधला ना भगवा ना कचु ॥ नानक लालो लालु है सचै रता सचु ॥१॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: मैला = विकारों से लिबड़ा हुआ। धुंधला = जिसकी आँखों के आगे धुंध सी आई रहे, जो साफ ना दिखे। ना धुंधला = जिसकी निगाह साफ हो, जिसको परमात्मा हर जगह साफ दिखे। भगवा = भेष का रंग। ना भगवा = जिसे किसी भेष की आवश्यक्ता ना रहे। कचु = नाशवंत जगत का मोह। लालो लालु = लाल ही लाल, परमात्मा के प्रेम रंग से गाढ़ा रंगा हुआ। सचै = सदा स्थिर हरी नाम। रता = रंगा हुआ। सचु = सदा स्थिर (प्रभू का रूप)।1। अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!जो मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के नाम) में रंगा रहता है वह सदा स्थिर प्रभू (का ही रूप) हो जाता है। (उसका मन परमात्मा के प्रेम-रंग से) गाढ़ा रंगा जाता है। (हे भाई! उसका मन) विकारों से नहीं लिबड़ता, उसकी निगाह धुंधली नहीं होती (भाव, उसको हर जगह परमात्मा साफ दिखाई देता है) उसको किसी भेष आदि की तमन्ना नहीं होती, नाशवंत जगत का मोह भी उसको नहीं व्यापता।1। मः ३ ॥ सहजि वणसपति फुलु फलु भवरु वसै भै खंडि ॥ नानक तरवरु एकु है एको फुलु भिरंगु ॥२॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। वसै = बसता है। भै = सारे डर (बहुवचन)। खंडि = नाश कर के। तरवरु = (तरु+वर) श्रेष्ठ वृक्ष। भिरंगु = भृंग, भौरा।2। अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई! जैसे पंछियों के रैन-बसेरे के लिए वृक्ष आसरा है, वैसे ही जो जीव-) भौरा सिर्फ परमात्मा को ही आसरा-सहारा समझता है (जो भौरों की तरह हरेक फूल की सुगंधि नहीं लेता फिरता, बल्कि परमात्मा के ही सिफतसालाह-रूप) फूल (की सुगंधि ही) लेता है, वह जीव-भौरा (दुनिया के) सारे डर नाश करके (सदा) आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, बनस्पति का हरेक फूल हरेक फल (जगत का हरेक मन-मोहना पदार्थ उसको माया की भटकना में डालने की जगह) आत्मिक अडोलता में टिकाता है।2। पउड़ी ॥ जो जन लूझहि मनै सिउ से सूरे परधाना ॥ हरि सेती सदा मिलि रहे जिनी आपु पछाना ॥ गिआनीआ का इहु महतु है मन माहि समाना ॥ हरि जीउ का महलु पाइआ सचु लाइ धिआना ॥ जिन गुर परसादी मनु जीतिआ जगु तिनहि जिताना ॥८॥ {पन्ना 1089} अर्थ: जो मनुष्य (अपने) मन के साथ लड़ते हैं वे सूरमे इन्सान बनते हैं वे जाने-माने जाते हैं; जिन्होंने अपने आप को पहचाना है वे सदा ईश्वर के साथ मिले रहते हैं, ज्ञानवान लोगों की सिफत ही यही है (भाव, इसी बात में महानता है) कि वे मन में टिके रहते हैं (भाव, माया के पीछे भटकने की जगह अंदर की ओर केन्द्रित रहते हैं); (इस तरह) सुरति जोड़ के उन्हें ईश्वर का घर मिल जाता है। (सो) जिन्होंने गुरू की मेहर से अपने मन को जीता है उन्होंनें जगत जीत लिया है।8। सलोकु मः ३ ॥ जोगी होवा जगि भवा घरि घरि भीखिआ लेउ ॥ दरगह लेखा मंगीऐ किसु किसु उतरु देउ ॥ भिखिआ नामु संतोखु मड़ी सदा सचु है नालि ॥ भेखी हाथ न लधीआ सभ बधी जमकालि ॥ नानक गला झूठीआ सचा नामु समालि ॥१॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में। भीखिआ = भिक्षा, ख़ैर। किसु किसु उतरु = किस किस (करतूत, करनी, काम) का उक्तर। मढ़ी = मठ, कुटिया। कालि = काल ने। हाथ = गहराई, अस्लियत, जिंदगी का असल राह। अर्थ: अगर मैं जोगी बन जाऊँ, जगत में भटकता फिरूँ और घर-घर से (सिर्फ) भिक्षा ही लेता फिरूँ (और अपनी करतूतों की तरफ देखूँ भी ना, तो) प्रभू की हजूरी में (तो अमलों का) लेखा माँगा जाता है मैं (अपनी) किस-किस करतूत का जवाब दूँगा? (जिस मनुष्य ने) प्रभू के नाम को भिक्षा बनाया है संतोख को कुटिया बनाया है ईश्वर सदा उसके साथ बसता है। भेष (बनाने) से कभी किसी को अस्लियत नहीं मिली, सारी सृष्टि जमकाल ने बाँध रखी है। हे नानक! प्रभू का नाम ही याद कर, इसके अलावा और बातें झूठी हैं।1। मः ३ ॥ जितु दरि लेखा मंगीऐ सो दरु सेविहु न कोइ ॥ ऐसा सतिगुरु लोड़ि लहु जिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ तिसु सरणाई छूटीऐ लेखा मंगै न कोइ ॥ सचु द्रिड़ाए सचु द्रिड़ु सचा ओहु सबदु देइ ॥ हिरदै जिस दै सचु है तनु मनु भी सचा होइ ॥ नानक सचै हुकमि मंनिऐ सची वडिआई देइ ॥ सचे माहि समावसी जिस नो नदरि करेइ ॥२॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: जितु दरि = जिस दर से। (नोट: इसके मुकाबले में ध्यान से देखें 'जिसु दरि'; इसका अर्थ है 'जिस के दर से')। द्रिढ़ाऐ = पक्का करता है, दृढ़ करता है। द्रिढ़ ु = दृढ़ (करता है), पल्ले बाँधता हैं। हुकमि मंनिअै = (Locative Absolute) अगर हुकम मान लें, हुकम मान लिया। अर्थ: (हे भाई!) जिस दरवाजे पर (बैठने से, किए हुए कर्मों का) लेखा (फिर भी) माँगा जाना है उस दर पे कोई ना बैठना। ऐसा गुरू ढूँढो जिस जैसा और कोई ना मिल सके, उस गुरू की शरण पड़ने से (कर्मों के चक्करों से) मुक्त हुआ जाता है (फिर किसी कर्मों का) लेखा कोई नहीं माँगता (क्योंकि) वह गुरू स्वयं प्रभू का नाम पल्ले बाँधता है (शरण आए हुओं के) पल्ले बँधाता है और प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी देता है। जिस मनुष्य के हृदय में ईश्वर आ बसता है उसका शरीर भी उसका मन भी रॅब के प्यार में रंगा जाता है। हे नानक! अगर प्रभू की रजा मान लें तो वह सच्ची वडिआई बख्शता है; पर, वही मनुष्य अपना आप प्रभू में लीन करता है जिस परवह खुद मिहर की निगाह करता है।2। पउड़ी ॥ सूरे एहि न आखीअहि अहंकारि मरहि दुखु पावहि ॥ अंधे आपु न पछाणनी दूजै पचि जावहि ॥ अति करोध सिउ लूझदे अगै पिछै दुखु पावहि ॥ हरि जीउ अहंकारु न भावई वेद कूकि सुणावहि ॥ अहंकारि मुए से विगती गए मरि जनमहि फिरि आवहि ॥९॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: दूजै = दूसरे में, ईश्वर को छोड़ के और में, माया के मोह में। अगै पिछै = ससुराल मायके, परलोक में इस लोक में। विगती = बे-गति। अर्थ: जो मनुष्य अहंकार में मरते हैं (खपते हैं) और दुख पाते हैं उन्हें शूरवीर नहीं कहा जाता, वह (अहंकारी) अंधे अपना असल नहीं पहचानते और माया के मोह में दुखी होते हैं, बड़े क्रोध में आ के (दुनिया से) लड़ते हैं और इस लोक में व परलोक में दुख ही पाते हैं। वेद आदि धर्म-पुस्तकें पुकार-पुकार कर कह रही हैं कि ईश्वर को अहंकार अच्छा नहीं लगता। जो मनुष्य अहंकार में मरते रहे वे बे-गति ही चले गए (उनका जीवन ना सुधरा), वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।9। सलोकु मः ३ ॥ कागउ होइ न ऊजला लोहे नाव न पारु ॥ पिरम पदारथु मंनि लै धंनु सवारणहारु ॥ हुकमु पछाणै ऊजला सिरि कासट लोहा पारि ॥ त्रिसना छोडै भै वसै नानक करणी सारु ॥१॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: कागउ = कौए से। पारु = उस पार। पिरम पदारथु = प्यारे (प्रभू) का नाम। धनु सवारणहारु = साबाश है उस संवारने वाले (गुरू) को। सिरि कासट = लकड़ी के सिर पर (चढ़ कर)। भै = भय में। सारु = अच्छी। अर्थ: कौआ (हंस) के समान सफेद नहीं बन सकता, लोहे की नाव से (नदी) पार नहीं की जा सकती; पर शाबाश है उस सँवारने वाले (गुरू) का (जिसकी मति ले के कौए जैसे काले मन वाला भी) परमात्मा का नाम अंगीकार करता है, हुकम पहचानता है और इस तरह (कौए से) हंस बन जाता है (जैसे) लकड़ी के आसरे लोहा (नदी के) उस पार जा लगता है; (गुरू के आसरे) हे नानक! वह तृष्णा त्यागता है और रॅब के भय में जीता है, (बस!) यही करणी सबसे अच्छी है।1। मः ३ ॥ मारू मारण जो गए मारि न सकहि गवार ॥ नानक जे इहु मारीऐ गुर सबदी वीचारि ॥ एहु मनु मारिआ ना मरै जे लोचै सभु कोइ ॥ नानक मन ही कउ मनु मारसी जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥२॥ {पन्ना 1089} पद्अर्थ: मारू = मरुस्थल में, भाव जंगल बीयाबान में। सभु कोइ = हरेक जीव। भेटै = मिल जाए। सोइ = सोय = वह (भाव, समर्थ)। अर्थ: जो मनुष्य बाहर जंगलों में मन को मारने के लिए गए वे मार न सके; हे नानक! अगर यह मन वश में किया जा सकता है तो गुरू के शबद में विचार जोड़ने से ही वश में किया जा सकता है, (नहीं तो ऐसे) चाहे कोई कितनी भी तांघ करे (कोशिश करे) ये मन प्रयत्न करने पर वश में नहीं आता। हे नानक! अगर समर्थ गुरू मिल जाए तो मन ही मन को मार लेता है (भाव, गुरू की सहायता से अंदर की ओर झाँकने से मन वश में आ जाता है)।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |