श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः १ ॥ भोलतणि भै मनि वसै हेकै पाधर हीडु ॥ अति डाहपणि दुखु घणो तीने थाव भरीडु ॥१॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: भोलतणि = भोलेपन के कारण। भै = भय (रॅब के) डर से। हेकै = यही एक। पाधर = पधरा, सरल। हीडु = हृदय। डाहपणि = (डाह = जलन) जलन ईष्या के कारण। तीने थाव = तीनों जगह (मन, बाणी, शरीर)। भरीडु = भ्रष्ट, भृष्ट।

अर्थ: वही एक हृदय सरल है जिसके हृदय में भोलापन और (ईश्वरीय) भय के कारण (ईश्वर स्वयं) बसता है। पर जलन और ईष्या के कारण बहुत ही दुख व्यापता है, मन, वाणी और शरीर तीनों ही भ्रष्ट हुए रहते हैं।1।

मः १ ॥ मांदलु बेदि सि बाजणो घणो धड़ीऐ जोइ ॥ नानक नामु समालि तू बीजउ अवरु न कोइ ॥२॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: मांदलु = ढोल। बेदि = बेद ने। सि = उस (मांदल) को। बाजणो = बजाया। घणो धड़ीअै = घणा धड़ा, बहुत सारी लुकाई। जोइ = ताकता है (पौड़ी नं: 12, 13 और 14 के साथ आए शलोकों में भी यह शब्द 'जोइ' जोय आया है, तीनों ही शलोक गुरू नानक देव जी के हैं। 'बोली भी हरेक की पश्चिमी पंजाब वाली 'लहिंदी' है। सो, सभी शलोकों में इस शब्द का अर्थ एक ही चाहिए)। बीजउ = बीआ, दूसरा।

अर्थ: घणा धड़ा (भाव, बहुत सारी दुनिया) देखती है उस ढोल को (जो ढोल) वेदों ने बजाया (भाव, कर्म-काण्ड का रास्ता)। हे नानक! तू 'नाम' सिमर, (इससे अलग) और दूसरा कोई (सही रास्ता) नहीं है।2।

नोट: देखें, शलोक कबीर जी नं:165;

कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की तिह चढ़ि रहिओ कबीर॥165॥

मः १ ॥ सागरु गुणी अथाहु किनि हाथाला देखीऐ ॥ वडा वेपरवाहु सतिगुरु मिलै त पारि पवा ॥ मझ भरि दुख बदुख ॥ नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥३॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: गुणी = त्रैगुणी, माया के तीन गुणों वाला। किनि = किस ने? किसी विरले ने। हाथाला = हाथ, थाह। मझ = बीच का हिस्सा, (भाव, सारा)। भरि = भरा हुआ।

अर्थ: (यह) त्रैगुणी (संसार) (मानो) अति-गहरा समुंद्र है, इसकी थाह किसने पाई है? अगर सतिगुरू (जो इस त्रिगुणी संसार से) बहुत बेपरवाह है मिल जाए तो मैं भी इससे पार लांघ जाऊँ। इस संसार-समुंद्र का बीच का हिस्सा दुखों से भरा हुआ है।

हे नानक! प्रभू के नाम सिमरन के बिना किसी की भी (त्रैगुणी माया की) भूख नहीं उतरती।3।

पउड़ी ॥ जिनी अंदरु भालिआ गुर सबदि सुहावै ॥ जो इछनि सो पाइदे हरि नामु धिआवै ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु गुरु मिलै सो हरि गुण गावै ॥ धरम राइ तिन का मितु है जम मगि न पावै ॥ हरि नामु धिआवहि दिनसु राति हरि नामि समावै ॥१४॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: सुहावै सबदि = सोहाने शबद से। जम मगि = जम के राह पर। न पावै = नहीं डालता, नहीं चलाता। अंदरु = अंदरूनी, मन।

अर्थ: सतिगुरू के सोहाने शबद से जिन्होंने अपना मन खोजा है वह हरी-नाम सिमरते हैं और मन-इच्छित फल पाते हैं।

जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करे उसको गुरू मिलता है और वह प्रभू के गुण गाता है। धर्मराज उनका मित्र बन जाता है उनको वह जम के राह पर नहीं डालता; वह दिन रात हरी-नाम सिमरते हैं और हरी-नाम में जुड़े रहते हैं।14।

सलोकु मः १ ॥ सुणीऐ एकु वखाणीऐ सुरगि मिरति पइआलि ॥ हुकमु न जाई मेटिआ जो लिखिआ सो नालि ॥ कउणु मूआ कउणु मारसी कउणु आवै कउणु जाइ ॥ कउणु रहसी नानका किस की सुरति समाइ ॥१॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: सुरगि = स्वर्ग में। मिरति = मृत्य लोक, धरती पर। पइआलि = पाताल में। रहसी = आनंद लेता है। कउणु = (प्रभू के बिना और) कौन? प्रभू स्वयं ही।

अर्थ: यही बात सुनी जाती है और बयान की जा रही है कि स्वर्ग में धरती पर और पाताल में (तीनों ही लोकों में) प्रभू एक स्वयं ही स्वयं है, उसके हुकम की उलंघना नहीं की जा सकती, (जीवों का) जो जो लेख उसने लिखा है वही (हरेक जीव को) चला रहा है। (सो,) ना कोई मरता है ना कोई मारता है, ना कोई पैदा होता है ना कोई मरता है। हे नानक! वह खुद ही आनंद लेने वाला है, उसकी अपनी ही सुरति (अपने आप में) टिकी हुई है।1।

मः १ ॥ हउ मुआ मै मारिआ पउणु वहै दरीआउ ॥ त्रिसना थकी नानका जा मनु रता नाइ ॥ लोइण रते लोइणी कंनी सुरति समाइ ॥ जीभ रसाइणि चूनड़ी रती लाल लवाइ ॥ अंदरु मुसकि झकोलिआ कीमति कही न जाइ ॥२॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: हउ मुआ = 'हउ' में मरा हुआ, इस ख्याल में मरा हुआ कि मैं बड़ा हूँ। मै मारिआ = 'मैं' का मारा हुआ। पउणु = पवन, हवा, तृष्णा। नाइ = नाम में। लोइण = आँखें। लोइणी = आँखों में ही (भाव,) अपने आप में ही (बाहरी रूप की तरफ ताकने की तमन्ना नहीं रही)। सुरति = (निंदा आदि) सुनने की तमन्ना। रसाइणि = रसों का घर (नाम) में। चूनड़ी = सुंदर हीरा। लवाइ = उचार के। मुसकि = महक के। झकोलिआ = लपटें दे रहा है।

अर्थ: जितना समय जीव 'अहंकार' का मारा हुआ है उसके अंदर तृष्णा का दरिया बहता रहता है। पर, हे नानक! जब मन 'नाम' में रंगा जाता है तब तृष्णा समाप्त हो जाती है, आँखें अपने आप में रंगी जाती हैं, (निंदा आदि) सुनने की चाहत कानों में ही लीन हो जाती है, जीभ 'नाम' सिमर के नाम रसायन में रंग के सुंदर लाल बन जाती है, मन ('नाम' में) महक के लपटें देता है। (ऐसे जीवन वाले का) मूल्य नहीं पड़ सकता।2।

पउड़ी ॥ इसु जुग महि नामु निधानु है नामो नालि चलै ॥ एहु अखुटु कदे न निखुटई खाइ खरचिउ पलै ॥ हरि जन नेड़ि न आवई जमकंकर जमकलै ॥ से साह सचे वणजारिआ जिन हरि धनु पलै ॥ हरि किरपा ते हरि पाईऐ जा आपि हरि घलै ॥१५॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: जम कंकर = जम का सेवक जमदूत। जमकलै = जम काल।

अर्थ: मनुष्य जनम में (जीव के लिए परमात्मा का) नाम ही (असल) खजाना है, 'नाम' ही (यहाँ से मनुष्य के) साथ जाता है, ये नाम-खजाना अमुक (ना खत्म होने वाला) है कभी समाप्त नहीं होता, बेशक खाओ, खरचो और साथ बाँध लो; (फिर, इस खजाने वाले) भगत जन के पास जमकाल जमदूत भी नहीं आते। जिन्होंने नाम-धन इकट्टा किया है वही सच्चे शाह हैं सच्चे व्यापारी हैं। यह नाम-धन परमात्मा की मेहर से मिलता है जब वह स्वयं (गुरू को जगत में) भेजता है।15।

सलोकु मः ३ ॥ मनमुख वापारै सार न जाणनी बिखु विहाझहि बिखु संग्रहहि बिख सिउ धरहि पिआरु ॥ बाहरहु पंडित सदाइदे मनहु मूरख गावार ॥ हरि सिउ चितु न लाइनी वादी धरनि पिआरु ॥ वादा कीआ करनि कहाणीआ कूड़ु बोलि करहि आहारु ॥ जग महि राम नामु हरि निरमला होरु मैला सभु आकारु ॥ नानक नामु न चेतनी होइ मैले मरहि गवार ॥१॥

पद्अर्थ: सार = कद्र। बिखु = जहर, माया। संग्रहहि = एकत्र करते हैं, जोड़ते हैं। वादी = झगड़ों में, मज़हबी बहसों में। आहारु = खुराक, भोजन। आकारु = दिखाई देता जगत। मैला = मैल पैदा करने वाला।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (असल) व्यापार की कद्र नहीं जानते, वे माया का सौदा करते हैं, माया जोड़ते हैं और माया से ही प्यार करते हैं; वे बाहर से तो विद्वान कहलवाते हैं पर असल में मूर्ख हैं गावार हैं, (क्योंकि) वे प्रभू के साथ तो मन नहीं लगाते (विद्या के आसरे) चर्चा में प्यार करते हैं, चर्चा की ही नित्य बातें करते हैं; और रोज़ी कमाते हैं झूठ बोल के।

(असल बात यह है कि) नाम सिमरना ही जगत में (पवित्र काम) है, और जो कुछ दिखाई दे रहा है (इसका आहर) मैल पैदा करता है। हे नानक! जो 'नाम' नहीं सिमरते वे मूर्ख नीच जीवन वाले हो के आत्मिक मौत सहते हैं।1।

मः ३ ॥ दुखु लगा बिनु सेविऐ हुकमु मंने दुखु जाइ ॥ आपे दाता सुखै दा आपे देइ सजाइ ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु किछु तिसै रजाइ ॥२॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: बिनु सेविअै = (प्रभू की) सेवा किए बिना, सिमरन के बिना। आपे = स्वयं ही। सजाइ = सज़ा, दण्ड। ऐवै = इसी तरह ही, (भाव,) हुकम मानने से ही।

अर्थ: (प्रभू का) सिमरन किए बिना मनुष्य को दुख व्यापता है, जब (प्रभू का) हुकम मानता है (भाव, रज़ा में चलता है) तो दुख दूर हो जाता है (क्योंकि प्रभू) खुद ही सुख देने वाला है और स्वयं ही सज़ा देने वाला है। हे नानक! हुकम में चलने से ही ये समझ पड़ती है कि सब कुछ प्रभू की रज़ा में हो रहा है।2।

पउड़ी ॥ हरि नाम बिना जगतु है निरधनु बिनु नावै त्रिपति नाही ॥ दूजै भरमि भुलाइआ हउमै दुखु पाही ॥ बिनु करमा किछू न पाईऐ जे बहुतु लोचाही ॥ आवै जाइ जमै मरै गुर सबदि छुटाही ॥ आपि करै किसु आखीऐ दूजा को नाही ॥१६॥ {पन्ना 1091}

पद्अर्थ: निरधनु = निर्धन, कंगाल। त्रिपति = संतोख। दूजै = माया के मोह के कारण। भरमि = भुलेखे में। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत राह पर पड़ा रहता है।

अर्थ: प्रभू के 'नाम' के बिना जगत कंगाल है (क्योंकि चाहे कितनी ही माया इकट्ठी कर ले) 'नाम' के बिना संतोख नहीं आता; माया के मोह के कारण भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, अहंकार के कारण ही जीव दुख पाते हैं। पर चाहे कितनी ही लालसा करें प्रभू की मेहर के बिना नाम नहीं मिलता। (सो, इस मोह में ही) जगत पैदा होता है मरता है पैदा होता है मरता है। (इस चक्र में से) जीव गुरू के शबद से ही बच सकते हैं।

पर ये सारी खेल प्रभू स्वयं कर रहा है, किसी और के पास पुकार नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रभू के बिना और है ही कोई नहीं।16।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh