श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1093 सलोक मः १ ॥ हउ मै करी तां तू नाही तू होवहि हउ नाहि ॥ बूझहु गिआनी बूझणा एह अकथ कथा मन माहि ॥ बिनु गुर ततु न पाईऐ अलखु वसै सभ माहि ॥ सतिगुरु मिलै त जाणीऐ जां सबदु वसै मन माहि ॥ आपु गइआ भ्रमु भउ गइआ जनम मरन दुख जाहि ॥ गुरमति अलखु लखाईऐ ऊतम मति तराहि ॥ नानक सोहं हंसा जपु जापहु त्रिभवण तिसै समाहि ॥१॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: गिआनी = हे ज्ञानवान! बूझणा = बुझारत, गहरी बात। अकथ कथा = उस प्रभू की बात जिसका स्वरूप बताया नहीं जा सकता। अलखु = जिसका कोई खास निशान नहीं दिखता। आपु = स्वै भाव, अहंकार। भ्रमु = भटकना। जनम मरन दुख = पैदा होने से ले के मौत तक के सारे दुख, सारी उम्र के दुख। ऊतम मति = उज्जवल बुद्धि वाले। सोहं = (सोऽहं, सो+अहं) वह मैं हूँ। हंसा = (अहं+स:) मैं वह हूँ। सोहं हंसा जपु = वह जप जिससे 'वह मैं' और 'मैं वह' हो जाए, वह सिमरन जिससे जीव और प्रभू एक रूप हो जाएं। अर्थ: हे प्रभू! जब मैं 'मैं मैं' करता हूँ तब तू (मेरे अंदर प्रकट) नहीं होता, पर जब तू आ बसता है मेरी 'मैं' समाप्त हो जाती है। हे ज्ञानवान! अकथ प्रभू की यह गहरी राज वाली बात अपने मन में समझ। अलख प्रभू बसता तो सबके अंदर है, पर यह अस्लियत गुरू के बिना नहीं मिलती, जब गुरू मिल जाए जब गुरू का शबद मन में आ बसे तब ये (बात) समझ आ जाती है। जिस मनुष्य की 'मैं' दूर हो जाती है, (माया की खातिर) भटकना मिट जाती है (मौत आदि का) डर समाप्त हो जाता है, उसके सारी उम्र के दुख नाश हो जाते हैं (क्योंकि जीवन में दुख होते ही यही हैं); जिनको गुरू की मति ले कर ईश्वर दिखाई दे जाता है, जिनकी बुद्धि उज्जवल हो जाती है वे (इन दुखों के समुंद्र से) तैर जाते हैं। (सो,) हे नानक! (तू भी) सिमरन कर जिससे तेरी आत्मा प्रभू के साथ एक-रूप हो जाए, (देख!) त्रिलोकी के ही जीव उसी में टिके हुए हैं (उसी के आसरे हैं)।1। मः ३ ॥ मनु माणकु जिनि परखिआ गुर सबदी वीचारि ॥ से जन विरले जाणीअहि कलजुग विचि संसारि ॥ आपै नो आपु मिलि रहिआ हउमै दुबिधा मारि ॥ नानक नामि रते दुतरु तरे भउजलु बिखमु संसारु ॥२॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: माणकु = सुच्चा मोती। जिनि = जिस ने। संसारि = संसार में। जुग = समय, पहरा। कल = कलेश, झगड़े, विकार। कलजुग = जहाँ विकारों का पहरा है। दुबिधा = दोचिक्ता पन, मेर तेर। दुतरु = जिसको तैरना मुश्किल है। भउजलु = संसार समुंद्र। बिखमु = मुश्किल, डरावना। अर्थ: ये मन सुच्चा मोती है, जिस मनुष्य ने गुरू के शबद के माध्यम से विचार करके (इस सुच्चे मोती को) परख लिया है, उसका स्वै अहंकार और मेर तेर को मर कर 'आपे' के साथ मिला रहता है। पर इस संसार में जहाँ विकारों का पहरा है ऐसे लोग बहुत कम देखे जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के नाम में रंगे जाते हैं वे इस डरावने संसार-समुंद्र में से पार लांघ जाते हैं (वैसे) जिसको तैरना बहुत मुश्किल है।2। पउड़ी ॥ मनमुख अंदरु न भालनी मुठे अहमते ॥ चारे कुंडां भवि थके अंदरि तिख तते ॥ सिम्रिति सासत न सोधनी मनमुख विगुते ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ हरि नामु हरि सते ॥ ततु गिआनु वीचारिआ हरि जपि हरि गते ॥१९॥ पद्अर्थ: अंदरु = अंदरला, भाव, मन (दूसरी तुक के शब्द 'अंदरि' और इस शब्द में 'अदरु' में फर्क है)। अंदरि = (मन) में। अहंमते = अहंकार की मति के कारण। तिख = माया की तृष्णा, प्यास। तते = जले हुए। विगुते = दुखी होते हैं। सते = सति, सदा रहने वाला। गते = गति। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अहंकार के ठगे हुए अपना मन नहीं खोजते, अंदर से तृष्णा से जले हुए (होने के कारण) (माया की खातिर) चारों तरफ भटक-भटक के थक जाते हैं; स्मृतियों-शास्त्रों (भाव, धार्मिक पुस्तकों) को ध्यान से नहीं खोजते और (धर्म-पुस्तकों की जगह अपने) मन के पीछे चल के ख्वार होते हैं। सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा का नाम गुरू की शरण आए बिना किसी को भी नहीं मिला। हमने असल विचार की बात ढूँढ ली है कि परमात्मा का नाम जपने से ही मनुष्य की आत्मिक हालत सुधरती है।19। सलोक मः २ ॥ आपे जाणै करे आपि आपे आणै रासि ॥ तिसै अगै नानका खलिइ कीचै अरदासि ॥१॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। करे = पैदा करता है। आणै = लाता है। आणै रासि = रासि लाता है, सफल कर देता है। तिसै = तिस ही, उस ही। खलिइ = खड़े हो के, ध्यान से, बा अदब, श्रद्धा से। अर्थ: प्रभू स्वयं ही (जीवों के दिलों की) जानता है (क्योंकि) वह स्वयं ही (इनको) पैदा करता है, स्वयं ही (जीवों के कारज) सफल करता है; (इसलिए) हे नानक! उस प्रभू के आगे ही अदब-श्रद्धा के साथ आरजू करनी चाहिए।1। मः १ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपे जाणै सोइ ॥ किस नो कहीऐ नानका जा घरि वरतै सभु कोइ ॥२॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभू ने। कीआ = जगत पैदा किया है। तिनि = उस प्रभू ने। देखिआ = इस जगत की संभाल की है। किस नो = उस प्रभू के बिना और किस को? घरि = हृदय घर में। वरतै = मौजूद है। सभु कोइ = हरेक जीव। किस नो कहीअै = किसी और को कहना व्यर्थ है। अर्थ: जिस परमात्मा ने जगत पैदा किया है, उसने ही इसकी संभाल की हुई है, वह स्वयं ही (हरेक के दिल की) जानता है। हे नानक! जब हरेक जीव (उस परमात्मा के घर से हरेक आवश्यक्ता पूरी करता है जो) हरेक के हृदय-गृह में मौजूद है, तो उसके बिना किसी और के आगे आरजू करनी व्यर्थ है।2। पउड़ी ॥ सभे थोक विसारि इको मितु करि ॥ मनु तनु होइ निहालु पापा दहै हरि ॥ आवण जाणा चुकै जनमि न जाहि मरि ॥ सचु नामु आधारु सोगि न मोहि जरि ॥ नानक नामु निधानु मन महि संजि धरि ॥२०॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: थोक = चीजें। निहालु = खिला हुआ। दहै = जला देता है। चुकै = समाप्त हो जाता है। जनमि = पैदा हो के। आधारु = आसरा। सोगि = शोक में, चिंता में। जरि = जल। संजि धरि = संचय कर, इकट्ठा कर। अर्थ: और सब चीजों (का मोह) विसार के एक परमात्मा को ही अपना मित्र बना, तेरा मन खिल जाएगा तेरा शरीर हल्का फूल जैसा हो जाएगा (क्योंकि) परमात्मा सारे पाप जला देता है, (जगत में तेरा) जनम-मरण समाप्त हो जाएगा, तू बार-बार नहीं पैदा होगा और मरेगा। प्रभू के नाम को आसरा बना, तू चिंता में और मोह में नहीं जलेगा। हे नानक! परमात्मा का नाम-खजाना अपने मन में इकट्ठा कर के रख।20। सलोक मः ५ ॥ माइआ मनहु न वीसरै मांगै दमा दम ॥ सो प्रभु चिति न आवई नानक नही करम ॥१॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: (नोट: ये शलोक 'वारां ते वधीक सलोक महला ५' में भी नंबर 19 पर दर्ज है। यहाँ शब्द 'करंम' है, वहाँ 'करंमि' है)। दंमा दंम = हरेक सांस के साथ। चिति = चिक्त में। आवई = आता, आए। करंम = अच्छे भाग्य। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को मन से माया नहीं भूलती, जो (नाम की दाति माँगने की जगह) साँस-साँस (हरेक श्वास में) (माया ही) माँगता है, जिसको वह परमात्मा कभी याद नहीं आता (ये जानो कि) उसके भाग्य अच्छे नहीं हैं।1। मः ५ ॥ माइआ साथि न चलई किआ लपटावहि अंध ॥ गुर के चरण धिआइ तू तूटहि माइआ बंध ॥२॥ {पन्ना 1093} अर्थ: हे अंधे (जीव)! तू (बार-बार) माया को क्यों चिपकता है? ये तो कभी किसी के साथ नहीं जाती; तू सतिगुरू के चरणों का ध्यान धर (भाव, अहंकार को छोड़ के गुरू का आसरा ले) (ताकि) तेरी ये मुश्कें जो माया ने कसी हुई हैं टूट जाएं।2। पउड़ी ॥ भाणै हुकमु मनाइओनु भाणै सुखु पाइआ ॥ भाणै सतिगुरु मेलिओनु भाणै सचु धिआइआ ॥ भाणे जेवड होर दाति नाही सचु आखि सुणाइआ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन सचु कमाइआ ॥ नानक तिसु सरणागती जिनि जगतु उपाइआ ॥२१॥ {पन्ना 1093} पद्अर्थ: भाणै = रजा में। मनाइओनु = मनाया उस (प्रभू) ने। मेलिओनु = मिलाया उस (प्रभू) ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाले नाम। दाति = बख्शिश। सचु आखि = नाम (खुद) सिमर के। सुणाइआ = (औरों को 'नाम') सुनाया है। पूरबि = पहले से, आदि से। जिन कउ = जिनके भाग्यों में, जिनके लिए। अर्थ: उस परमात्मा ने (जिस मनुष्य से) अपनी रजा में अपना हुकम मनाया है उस मनुष्य ने रजा में रह के सुख पाया है। उस प्रभू ने अपनी रज़ा में जिस मनुष्य को गुरू मिलाया है वह मनुष्य रज़ा में रह के 'नाम' सिमरता है; जिस मनुष्य को प्रभू की रजा में रहना सबसे बड़ी बख्शिश प्रतीत होती है वह खुद 'नाम' सिमरता है और औरों को सुनाता है; पर 'नाम' सिमरते वही हैं जिनके माथे पर धुर से आदि से लिखा हुआ है (भाव, जिनके अंदर पूर्बले कर्मों के अनुसार सिमरन के संस्कार मौजूद हैं)। (सो,) हे नानक! उस प्रभू की शरण में रह जिस ने यह संसार पैदा किया है।21। सलोक मः ३ ॥ जिन कउ अंदरि गिआनु नही भै की नाही बिंद ॥ नानक मुइआ का किआ मारणा जि आपि मारे गोविंद ॥१॥ {पन्ना 1093} अर्थ: जिन मनुष्यों के अंदर परमात्मा का रक्ती भर भी डर नहीं, और जिनको प्रभू के साथ जान-पहचान प्राप्त नहीं हुई, हे नानक! वे (आत्मिक मौत) मरे हुए हैं, उनको (मानो) ईश्वर ने खुद मार दिया है, इन मरे हुओं को (इससे ज्यादा) किसी और ने क्या मारना है?।1। मः ३ ॥ मन की पत्री वाचणी सुखी हू सुखु सारु ॥ सो ब्राहमणु भला आखीऐ जि बूझै ब्रहमु बीचारु ॥ हरि सालाहे हरि पड़ै गुर कै सबदि वीचारि ॥ आइआ ओहु परवाणु है जि कुल का करे उधारु ॥ अगै जाति न पुछीऐ करणी सबदु है सारु ॥ होरु कूड़ु पड़णा कूड़ु कमावणा बिखिआ नालि पिआरु ॥ अंदरि सुखु न होवई मनमुख जनमु खुआरु ॥ नानक नामि रते से उबरे गुर कै हेति अपारि ॥२॥ {पन्ना 1093-1094} पद्अर्थ: पत्री = वह पोथी जिसमें से ब्राहमण अपने जजमान आदिकों को तिथियाँ बताते हैं। वाचणी = पढ़नी। उधारु = पार उतारा। सारु = श्रेष्ठ। बिखिआ = माया। हेति = प्यार से। अपारि हेति = बेअंत प्यार से। अर्थ: (लोगों को तिथियाँ आदि बताने के लिए पत्री पढ़ने की जगह) अपने मन की पत्री पढ़नी चाहिए (कि इसकी कौन से वक्त क्या हालत है; ये पत्री वाचने से) सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। (जो तिथियों की भलाई बुराई विचारने की जगह) ईश्वरीय विचार को समझता है उस ब्राहमण को ठीक समझो। जो (ब्राहमण) गुरू के शबद द्वारा विचार करके प्रभू की सिफत-सालाह करता है प्रभू का नाम पढ़ता है (और इस तरह) अपनी कुल का भी पार उतारा करता है उसका जगत में आना सफल है। प्रभू की हजूरी में (ऊँची) जाति की पूछ-पड़ताल नहीं होती, वहाँ तो (सिफत-सालाह की) बाणी (का अभ्यास) ही श्रेष्ठ करनी (मिथी जाती) है, (सिफत-सालाह के बिना) और पढ़ना और कमाना व्यर्थ है, माया के साथ ही प्यार (बढ़ाता) है (उस पढ़ाई और कमाई से) मन में सुख नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की जिंदगी ही बेलगाम हो जाती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू (के चरणों) में बहुत प्रेम करके प्रभू के नाम में रंगे जाते हैं वह ('बिखिआ' के असर से) बच जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |