श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥ एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥ राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥ सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥ तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥ अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥ {पन्ना 1104}

पद्अर्थ: जउ = अगर। मो कउ = मुझे। दूर करत हउ = तू (मुझे) अपने चरणों से विछोड़ दे। भरमावहु = मुझे भुलेखे में डालता है।1।

राम = हे राम! तरि = तार ले। कहा = (अपने चरणों से परे और) कहाँ? लै जई है = ले जाएगा?।1। रहाउ।

सोधउ = मैं पूछता हूँ। कैसी = किस प्रकार की (मुक्ति) ? प्रसादु = कृपा। मोहि = मैंने। पाई है = पा ली है।1। रहाउ।

तारन = (किसी को संसार समुंद्र से) पार लंघाना। तरनु = तैरना, पार लांघना। कहीअै = (ये बात) कही जाती है। ततु = सारे संसार का मूल प्रभू। न जानिआ = जान पहचान नहीं की, सांझ नहीं डाली, नहीं जाना। बिमल = पवित्र। घट ही महि = हृदय में ही। मानिआ = मान गया है।2।

अर्थ: हे राम! (मैं तो पहले ही तेरे चरणों में जुड़ा बैठा हूँ। लोग कहते हैं कि मरने के बाद मुक्ति मिलती है) मुझे संसार समुंद्र से पार और कहाँ ले जाएगा? (तेरे चरणों में टिके रहना ही मेरे लिए मुक्ति है। अगर तेरे चरणों में जुड़े रहना मुक्ति नहीं है, तो) मैं पूछता हूँ- वह मुक्ति कैसी होगी, तथा मुझे और कहाँ ले जा के तू देगा? (तेरे चरणों में जुड़े रहने वाली मुक्ति तो) तेरी कृपा से मैंने पहले ही प्राप्त की हुई है।1। रहाउ।

हे राम! अगर तू मुझे अपने चरणों से विछोड़ दे, तो बता और मुक्ति क्या है? तू एक प्रभू अनेकों रूप धार के सारे जीवों में व्यापक है (मेरे अंदर भी बैठ के मुझे मिला हुआ है)। अब मुझे किसी और भुलेखे में क्यों डालता है (कि मुक्ति किसी और जगह किसी और किस्म की मिलेगी) ?।1।

संसार-समुंद्र से पार लंघाना और पार लांघना- ये बात तब तक ही कही जाती है, जब तक जगत के मूल प्रभू के साथ सांझ नहीं डाली जाती। कबीर कहता है- मैं तो अब हृदय में ही (तेरे मिलाप की बरकति से) पवित्र हो चुका हूँ मेरा मन (तेरे साथ ही) परच गया है (मुझे किसी और मुक्ति की आवश्यक्ता नहीं रही)।2।5।

शबद का भाव: प्रभू के चरणों में सदा सुरति जुड़े रहने का नाम ही मुक्ति है।

जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥ काहे कीजतु है मनि भावनु ॥ जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥ कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥ कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥ {पन्ना 1104}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (रावण) ने। गढ़ कोट = किले। कंचन = सोना।1।

मनि = मन में। मनि भावनु = अपने मन में (पैदा हुई) मर्जी, मन मर्जी।1। रहाउ।

अकालु = मौत रहित, अमोड़। परपंचु = जगत। बधावनु = बंधन। कहि = कहे, कहता है। अंते = आखिर को। मुकते = परपंच रूप बंधन से आजाद। रसाइनु = रस+आयन, रसों का घर।2।

अर्थ: जिस रावण ने सोने के किले बनवाए (बताया जाता है), वह भी (वह किले यहीं पर ही) छोड़ गया।1।

हे भाई! क्यों अपनी मन-मर्जी करता है? जब जमदूत आ के केसों से पकड़ लेता है (भाव, जब मौत सिर पर आ जाती है) उस वक्त परमात्मा का नाम ही (उस मौत के सहम से) बचाता है।1। रहाउ।

कबीर कहता है- ये अमोड़ मौत और बँधन-रूप ये जगत परमात्मा के ही बनाए हुए हैं। इन से बचते वही हैं जिनके हृदय में सब रसों का घर परमात्मा का नाम मौजूद है।2।6।

शबद का भाव: धन-पदार्थ के गुमान में आ के मन की मौजों में नहीं फसना चाहिए। इनके साथ सदा साथ नहीं निभता। आखिर मौत आ पुकारती है। मौत के सहम से बचाने वाला एक नाम ही है।

नोट: देखें रहाउ की तुक। साधारण सा जिक्र करने के समय जमों का केसों से आ के पकड़ने का मुहावरा कबीर जी प्रयोग करते हैं। क्या इसका भाव ये नहीं कि कबीर जी केसाधारी थे?

देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥ नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥ बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥ घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥ पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥ अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥ {पन्ना 1104}

पद्अर्थ: देही = शरीर। गावा = गाँव, नगर। जीउ = जीव, आत्मा। धर महतउ = धरती का चौधरी। किरसान = मुज़ारे। बसहि = बसते हैं। नैनूं = आँखें। नकटू = नाक। स्रवनू = कान। रस पति = रसों का पति, जीभ।1।

न बसउ = न बसूँ, मैं नहीं बसूँगा। काइथु = कायस्थ (उधर आम तौर पर कायस्थ ही पढ़े-लिखे और पटवारी होते थे), पटवारी। चेतू = चित्र गुप्त।1। रहाउ।

बाकी = वह रकम जो जिम्मे निकले। वा = वह। दरबारी = दरबारियों ने।2।

खेत ही = खेत में ही, इसी शरीर में ही, इसी जनम में ही। भउजलि = संसार समुंद्र में।3।

अर्थ: हे बाबा! अब मैंने इस गाँव में नहीं बसना, जहाँ रहने पर वह पटवारी जिसका नाम चित्रगुप्त है, हरेक घड़ी का लेखा माँगता है।1। रहाउ।

ये मानस शरीर (मानो एक) नगर है, जीव इस (नगर की) धरती का चौधरी है, इसमें पाँच किसान बसते हैं-आँख, नाक, कान, जीभ और (काम वासना वाली) इन्द्री। ये पाँचों ही जीव-चौधरी का कहा नहीं मानते।1।

(जो जीव इन पाँचों के अधीन हो के रहता है) जब धर्मराज (इस जीवन में किए कामों का) हिसाब माँगता है (उसके जिम्मे) बहुत कुछ देना (बकाया) निकलता है। (शरीर गिर जाने पर) वह पाँच किसान तो भाग जाते हैं पर जीव को (लेखा माँगने वाले) दरबारी बाँध लेते हैं।2।

कबीर कहता है- हे संत जनों! सुनो, इसी ही मनुष्य जन्म में (इन इन्द्रियों का) हिसाब खत्म कर दो (और, प्रभू के आगे नित्य अरदास करो) - हे प्रभू! इसी ही बार (भाव, इसी ही जन्म में) मुझे अपने सेवक को बख्श ले, इस संसार-समुंद्र में मेरा फिर फेरा ना हो।3।7।

शबद का भाव: आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियां मनुष्य को बार-बार विकारों की तरफ प्रेरित करते हैं। इनकी बुरी प्रेरणा से बचने के लिए एक ही तरीका है- परमात्मा के दर पर नित्य अरदास करनी चाहिए।

रागु मारू बाणी कबीर जीउ की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥ बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥ सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥ हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥ हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥ पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥ त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥ ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥ चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥ जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥ सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥ जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥ करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥ सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥ कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥ मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥ {पन्ना 1104}

पद्अर्थ: अनभउ = (संस्कृत: अनुभव = Direct perception or cognition) झलकारा, आत्मिक ज्ञान। किनै = किसी मनुष्य ने। न देखिआ = परमात्मा को इन आँखों से नहीं देखा। बैरागीअड़े = हे अंजान बैरागी! बिनु भै = सांसारिक डरों से रहित। होइ = होता है, प्रकट होता है। वणाहंबै = ये शब्द छंद की सिर्फ पद पूर्ती के लिए है, इसका कोई अर्थ नहीं है, जैसे 'फुनहे' की बाणी में शब्द 'हरिहां' है।1।

हदूरि = हाजर नाजर, अंग संग। भउ = परमात्मा का डर। पवै = (हृदय में) टिकता है। निरभउ = दुनिया के डरों से रहित।2।

पाखंडि = पाखण्ड में। रता = रंगा हुआ। लोकु = जगत।3।

पासु = पासा, साथ। जालिआ = जला दिया है। पिंडु = शरीर।4।

जालि = जला के। तनु = शरीर, शरीर का मोह। मिरतकु = मृतक, मुर्दा, तृष्णा ममता की ओर से मुर्दा।5।

बैरागु = तृष्णा ममता की ओर से उपरामता। सभु कोइ = हरेक जीव।6।

करमु = बख्शिश। सहजे = सहज अवस्था में टिक के, तृष्णा आदि में डोलने से हट के।7।

मो कउ = मुझे। भउजलु = संसार समुंद्र।8।

अर्थ: हे अंजान बैरागी! (परमात्मा को इन आँखों से कभी) किसी ने नहीं देखा, उसका तो आत्मिक झलकारा ही बसता है। और, ये आत्मिक झलकारा तब बजता है, जब मनुष्य दुनिया के डरों से रहित हो जाता है।1।

हे अंजान बैरागी! जो मनुष्य परमात्मा-पति को हर वक्त अंग-संग समझता है, उसके अंदर उसका डर पैदा होता है (कि प्रभू हमारे सारे किए कर्मों को देख रहा है)। इस डर की बरकति से (मनुष्य) उस प्रभू का हुकम समझता है (भाव, ये समझने की कोशिश करता है कि हम जीवों को कैसे जीना चाहिए) तो सांसारिक डरों से रहित हो जाता है (क्योंकि रज़ा को समझ के सांसारिक डरों वाले काम करने छोड़ देता है)।2।

हे अंजान बैरागी! (ये तीर्थ आदि करके) परमात्मा के साथ ठगी ना करें, सारा जगत (तीर्थ आदि करने के वहिण में पड़ कर) पाखण्ड में व्यस्त है।3।

हे अंजान बैरागी! (पाखण्ड कर्म करने से) तृष्णा खलासी नहीं करती, बल्कि माया की ममता शरीर को जला देती है।4।

हे अंजान बैरागी! अगर मनुष्य का मन (तृष्णा ममता की ओर से) मर जाए, (तो वह सच्चा बैरागी बन जाता है, उस ऐसे बैरागी ने) चिंता जला के शरीर (का मोह) जला लिया है।5।

(पर) हे अंजान बैरागी! सतिगुरू (की शरण आए) बिना (हृदय में) बैराग पैदा नहीं हो सकता, चाहे कोई कितनी ही तांघ करे।6।

(और) हे अंजान बैरागी! सतिगुरू तब मिलता है जब (प्रभू की) कृपा हो, वह मनुष्य (फिर) सहजे ही (बैराग) प्राप्त कर लेता है।7।

हे कबीर! कह-हे अंजान बैरागी! (पाखण्ड से कुछ नहीं सँवरना, प्रभू के आगे) इस तरह अरदास कर, 'हे प्रभू! मुझे संसार-समुंद्र से पार लंघा ले"।8।1।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh