श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1106 रागु मारू बाणी जैदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चंद सत भेदिआ नाद सत पूरिआ सूर सत खोड़सा दतु कीआ ॥ अबल बलु तोड़िआ अचल चलु थपिआ अघड़ु घड़िआ तहा अपिउ पीआ ॥१॥ मन आदि गुण आदि वखाणिआ ॥ तेरी दुबिधा द्रिसटि समानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ अरधि कउ अरधिआ सरधि कउ सरधिआ सलल कउ सललि समानि आइआ ॥ बदति जैदेउ जैदेव कउ रमिआ ब्रहमु निरबाणु लिव लीणु पाइआ ॥२॥१॥ {पन्ना 1106} पद्अर्थ: चंद = चंद्रमा नाड़ी, 'सोम सर', बाई नासिका की नाड़ी। सत = (सं: सत्व) प्राण। भेदिआ = भेद लिया, चढ़ा लिए (प्राण)। नाद = सुखमना। पूरिआ = (प्राण) रोक लिए। सूर = दाहिनी सुर। खोड़सा = सोलह बार (ओअं कह के)। दतु कीआ = (प्राण बाहर) निकाले। अबल बलु = (विकारों में पड़ने के कारण) कमजोर मन का (विषौ विकारों और दुबिधा दृष्टि वाला) बल। अचल = अमोड़। चल = चलायमान, चंचल स्वभाव। अचल चलु = अमोड़ मन का स्वभाव। थपिआ = रोक लिया। अघड़ ु = अल्हड़ मन। अपिउ = अमृत।1। मन = हे मन! आदि गुण = आदि प्रभू के गुण, जगत के मूल प्रभू के गुण। आदि = आदिक। दुबिधा द्रिसटि = मेरे तेर वाली नज़र, भेदभाव वाला स्वभाव। संमानिआ = एक समान बराबर हो जाता है।1। रहाउ। अरधि = आधने योग्य प्रभू। सरधि = श्रद्धा रखने योग्य। सलल = पानी। बदति = कहता है। जैदेव = परमात्मा, वह देव जिसकी सदा जय होती है। रंमिआ = सिमरा। निरबाणु = वासना रहित। लिवलीणु = अपने आप में मस्त प्रभू।2। नोट: इस शबद के साथ मिला के नीचे लिखा गुरू नानक देव जी का शबद पढ़ें। ये भी मारू राग में ही है; मारू महला १॥ सूर सरु सोसि लै सोम सरु पोखि लै जुगति करि मरतु सु सनबंधु कीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीअै उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥१॥ मूढ़े काइचे भरमि भुला॥ नह चीनिआ परमानंदु बैरागी॥१॥ रहाउ॥ अजर गहु जारि लै अमर गहु मारि लै भ्राति तजि छोड तउ अपिउ पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीअै उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥२॥ भणति नानकु जनो रवै जे हरि मनो मन पवन सिउ अंम्रितु पीजै॥ मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीअै उडै नह हंसु नह कंधु छीजै॥३॥९॥ (पन्ना 992 ) दोनों शबद मारू राग में हैं; दोनों की छंद की चाल एक जैसी है; कई शब्द सांझे हैं, जैसे 'सूर, चंद (सोम), अपिउ'। 'दुबिधा द्रिसटि' के मुकाबले में 'मीन की चपल सिउ मनु' प्रयोग हुआ है। जैदेव जी के शबद में सिफत सालाह करने के लाभ बताए गए हैं, गुरू नानक देव जी ने सिफतसालाह करने की 'जुगति' भी बताई है। जैदेव जी मन को संबोधन करके कहते हैं कि यदि तू सिफतसालाह करे तो तेरी चंचलता दूर हो जाएगी। सतिगुरू नानक देव जी जीव को उपदेश करते हैं कि सिफतसालाह की 'जुगति' बरतने से मन की चंचलता मिट जाती है। जैसे जैसे इन दोनों शबदों को ध्यान से साथ मिला के पढ़ते जाएं, गहरी समानता नज़र आएगी, और इस नतीजे पर पहुँचने से नहीं रहा जा सकता कि अपना ये शबद उचारने के वक्त गुरू नानक देव जी के सामने भगत जैदेव जी का शबद मौजूद था। ये इतनी गहरी सांझ सबब से नहीं हो गई। गुरू नानक देव जी पहली उदासी में हिन्दू तीर्थों से होते हुए बंगाल भी पहुँचे थे। भगत जैदेव जी बंगाल के रहने वाले थे। उनकी शोभा (जो अवश्य उस देश में बिखरी होगी) सुन कर उसकी संतान से व भगत जी के श्रद्धालुओं से यह शबद लिया होगा। अर्थ: हे मन! जगत के मूल प्रभू की सिफतसालाह करने से तेरा भेद-भाव वाला स्वभाव समतल हो जाएगा।1। रहाउ। (सिफतसालाह की बरकति से ही) बाई सुर में प्राण चढ़ भी गए हैं, सुखमना में अटकाए भी गए हैं, और दाहिनी सुर के रास्ते सोलह बार 'ओम' कह के (उतर) भी आए हैं (भाव, प्राणायाम का सारा उद्यम सिफत सालाह में ही आ गया है, सिफतसालाह के मुकाबले में प्राण चढ़ाने, टिकाने और उतारने वाले साधन प्राणायाम की आवश्यक्ता नहीं रह गई)। (इस सिफतसालाह के सदका) (विकारों में पड़ने के कारण) कमजोर (हुए) मन का ('दुबिधा द्रिसटि' वाला) बल टूट गया है, अमोड़ मन का चंचल स्वभाव रुक गया है, ये अल्हड़ मन अब सुंदर घड़ा हुआ (तराशा हुआ) हो गया है, यहाँ पहुँच के इसने नाम-अमृत पी लिया है।1। जैदेउ कहता है- अगर आराधने-योग्य प्रभू की आराधना करें, अगर श्रद्धा-योग्य प्रभू में सिदक धरें, तो उसके साथ एक-रूप हुआ जा सकता है, जैसे पानी के साथ पानी। जैदेव-प्रभू का सिमरन करने से वह वासना रहित बेपरवाह प्रभू मिल जाता है।2।1। नोट: भगत-बाणी के विरोधी सज्जन भगत जैदेव जी के बारे में यूँ लिखते हैं- "भगत जैदेव जी बंगाल इलाके में गाँव केंदरी (परगना बीरबान) के रहने वाले जन्म के कन्नोजिए ब्राहमण थे। संस्कृत के खासे विद्वान और कविशर थे। वैसे गृहस्ती थे, जो सुपत्नी समेत साधू बिरती में रहे। आप जी का होना ग्यारहवीं बारहवीं सदी के बीच में बताया जाता है। आप दमों तक गंगा के पुजारी रहे और पक्के ब्राहमण थे। जगन नाथ के मन्दिर में इनके रचे ग्रंथ 'गीत गोबिंद' के भजन गाए जाते हैं। 'मौजूदा छापे की बीड़ में आप जी के नाम पर केवल दो शबद हैं, एक मारू राग में, दूसरा गुजरी राग में। पर इन दोनों शबदों का सिद्धांत गुरमति के साथ बिल्कुल नहीं मिलता, दोनों शबद विष्णू भक्ति और योगाभ्यास को दृढ़ करवाते हैं।" इससे आगे भगत जी का मारू राग वाला ऊपर दिया हुआ शबद दे के सज्जन जी लिखते हैं- "उक्त शबद हठ-योग कर्मों का उपदेश है। इसे गुजरी राग के अंदर 'परमादि पुरख मनोपमं' वाले शबद में विष्णू भगती का उपदेश है। दोनों शबद गुरमुति सिद्धांत के बिल्कुल उलट हैं।....गुरबाणी में भगत जैदेव जी के सिद्धांतों का ज़ोरदार खण्डन मिलता है।" इस सज्जन ने हठ-योग आदि का खंडन करने के लिए एक-दो शबद बतौर प्रमाण भी दिए हैं। आईए, अब विचार करें। उक्त सज्जन भगत-बाणी के बारे में हमेशा ये पक्ष लेता है कि 1. भगत-बाणी का आशय गुरबाणी के आशय से उलट है। इस शबद के बारे में भी यही कहा गया है कि ये शबद हठ-योग दृढ़ करवाता है और गुरमति हठ-योग का खंडन करती है। 2. भगतों के कई शबदों में सतिगुरू जी के कई शबदों के साथ सांझे शब्द और विचार इस वास्ते मिलते हैं कि भगतों के पंजाब-वासी श्रद्धालुओं ने भगतों के शबदों का पंजाबी में रूपांतर करने के वक्त ये शब्द सहज ही ले लिए थे। हम जैदेव जी के इस शबद के साथ इसी ही राग में से श्री गुरू नानक देव जी का भी एक शबद पाठकों के समक्ष पेश कर चुके हैं। इन दोनों शबदों में कई शब्द और विचार एक समान हैं; जैसे कि: जैदेव जी---------------गुरू नानक देव जी अब अगर सिर्फ इन 'चंद, सूर, खोड़सा' आदि शब्दों से ही निर्णय कर लेना कि भगत जी का यह शबद हठ-योग कर्मों का उपदेश करता है, तो यही विचार गुरू नानक साहिब जी के शबद के बारे में भी बनाना पड़ेगा। थोड़ा सा दोबारा ध्यान से पढ़ें, 'सूर सुर सोसि लै, सोम सरु पोखि लै, जुगति करि मरतु"। सतिगुरू जी ने तो साफ शब्द 'मरतु' भी प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है 'प्राण, हवा', जिससे अंजान व्यक्ति 'प्राणायाम' का भाव निकाल लेगा। पर निरे इन शब्दों के आसरे यदि कोई सिख ये समझ ले कि इस शबद में गुरू नानक देव जी ने प्राणायाम की उपमा की है, तो यह उसकी भारी भूल होगी। उक्त सज्जन ने भगत जैदेव जी को हठ-योग का उपदेशक साबित करने के लिए भगत जी का सिर्फ यही शबद पेश किया है, जिसके दो-चार शब्दों को ऊपरी निगाह से देख के अंजान सिख गलत अर्थ लगा सके। अगर उक्त सज्जन भगत जी का दूसरा शबद भीध्यान से पढ़ लेता, तो शायद वह स्वयं भी इस ख़ता से बच जाता। हठ-योग का प्रचारक होने की जगह उस शबद में जैदेव जी तप और योग को स्पष्ट शब्दों में व्यर्थ कहते हैं। देखें लिखते हैं: "हरि भगत निज निहकेवला, रिद करमणा बचसा॥ भाव: परमात्मा के प्यारे भगत मन वचन और कर्म से पूर्ण तौर पर पवित्र होते हैं (भाव, भगत का मन पवित्र, बोल पवित्र और काम भी पवित्र होते हैं)। उन्हें जोग से क्या वास्ता? उन्हें यज्ञ से क्या प्रयोजन? उन्हें दान और तप से क्या लेना? (भाव, भगत जानते हैं कि योग-साधना, यज्ञ, दान और तप करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता, प्रभू की भक्ति ही असली करनी है)। हमारा उक्त सज्जन जैदेव जी के दो-चार शब्दों को देख के टपला खा गया है। अगर सारे शबद के अर्थ को ध्यान से समझने की कोशिश करता, तो ये गलती नहीं लगती। पाठक सज्जन 'रहाउ' की तुक के शब्द 'वखाणिआ' से आरम्भ करके पहले 'बंद' के शब्द 'भेदिआ' 'पूरीआ' आदि तक पहुँच के अर्थ करें- हे मन! आदि (प्रभू) गुण आदि बखान करने से (भाव, प्रभू की सिफत सालाह करने से) बाई सुर में प्राण भी गए हैं....दाहिनी सुर के रास्ते सोलह बार 'ओम' कह के उतर भी आए हैं (भाव, प्राणायाम का सारा ही उद्यम सिफतसालाह में ही आ गया है, अर्थात, प्राणायाम का उद्यम व्यर्थ है)। यहाँ पाठकों की सहूलत के लिए सतिगुरू नानक देव जी के ऊपर-लिखे शबद का अर्थ देना भी आवश्यक प्रतीत होता है। सूर सरु सोसि लै- सूरज (की तपश) के सरोवर को सुखा दे, तमो गुणी स्वभाव को खत्म कर दे, (सूर्य नाड़ी को सुखा दे, यह है दाहिनी सुर के रास्ते प्राण उतारने)। सोम सरु पोखि लै- चंद्रमा (शीतलता) के सरोवर को और बढ़ा, शांत स्वभाव, शीतलता में वृद्धि कर (चंद्र नाड़ी को मजबूत बना, ये है बाएं सुर से प्राण चढ़ाने)। जुगति करि मरतु- सुंदर जीवन जुगति को प्राणों का ठिकाना बना (जिंदगी को सुंदर जुगति में रखना ही प्राणों को सुखमना नाड़ी में टिकाना है)। सु सनबंधु कीजै- सारा ऐसा ही मेल मिलाओ। मीन की चपल सिउ जुगति मनु राखीअै- इस जुगति से मीन के समान चंचल मन को (ठहरा के) रखा जा सकता है, इस जुगति से मछली की तरह चंचलता वाला मन संभाला जा सकता है। उडै नह हंसु- मन (विकारों की तरफ) दौड़ता नहीं। भगत जैदेव जी के दूसरे शबद का हवाला दे कर हमारे उक्त सज्जन कहते हैं कि उस शबद में विष्णु भक्ति का उपदेश है। यहाँ उस शबद का सारा अर्थ देने से लेख बहुत लंबा हो जाएगा; सिर्फ 'रहाउ' की तुक पेश की जा रही है, क्योंकि यही तुक सारे शबद का केन्द्र हुआ करती है। जैदेव जी लिखते हैं: 'केवल राम नाम मनोरमं॥ बदि अंम्रित तत मइअं॥ भाव: (हे भाई!) केवल परमात्मा का सुंदर नाम सिमर, जो अमृत भरपूर है, जो अस्लियत रूप है, और जिसके सिमरन से जनम-मरण, बुढ़ापा, चिंता-फिक्र और मौत का डर दुख नहीं देता। पता नहीं, हमारे उक्त सज्ज्न को यहाँ किन शब्दों में विष्णु-भक्ति दिख रही है। कबीरु ॥ मारू ॥ रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥ पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ ॥ लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥ धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥ जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥ सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥ धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥ {पन्ना 1106} पद्अर्थ: मन = हे मन! जीअरा = कमजोर जीवात्मा। आजु कालि = आज कल में, जल्दी ही।1। रहाउ। गरबु = मान। जिउ = जैसे।1। गहि = पकड़ के। न बसाहिगा = पेश नहीं जाएगी, (तेरी) एक ना चलेगी। मुखि = मुँह पर।2। किआ मुखु लै के = किस मुँह से? अर्थ: हे मन! (अब ही वक्त है) प्रभू का सिमरन कर, (नहीं तो समय बीत जाने पर) अफसोस करेगा। विकारों में फसी हुई तेरी कमजोर जीवात्मा (जिंद) (धन पदार्थ का) लोभ कर रही है, पर तू थोड़े ही दिनों में (ये सब कुछ छोड़ के यहाँ से) चला जाएगा।1। रहाउ। हे मन! तू लालच में फस के जीवन व्यर्थ गवा रहा है, माया की भटकना में टूटा हुआ फिरता है। ना कर ये मान धन और जवानी का, (मौत आने पर) कागज़ की तरह जल जाएगा।1। हे मन! जब जम ने आ कर केसों से पकड़ कर तुझे जमीन पर पटका, तब तेरी (उसके आगे) कोई पेश नहीं चलेगी। तू अब प्रभू का सिमरन-भजन नहीं करता, तू दया नहीं पालता, मरने के वक्त दुखी होगा।2। हे मन! जब धर्मराज ने (तुझसे जीवन में किए कामों का) हिसाब माँगा, क्या मुँह ले के उसके सामने (तू) होगा? कबीर कहता है-हे संत जनो! सुनो, साध-संगति में रह के ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघा जा सकता है।3।1। नोट: साधारण तौर पर मौत का वर्णन करते हुए कबीर जी मुहावरे के तौर पर लिखते हैं "जउ जम आइ केस गहि पटकै", भाव, केसों का ज़िकर करते हैं। ये मुहावरा उनकी रोजाना की बोलचाल का हिस्सा बन जाना ही बताता है कि कबीर जी के सिर पर साबत केस थे। इसी ही राग के शबद नंबर 6 में भी देखिए "जब जमु आइ केस ते पकरै"। शबद का भाव: दुनिया के झूठे गुमान में भूल के परमात्मा की बँदगी से टूटना मूर्खता है, पछताना पड़ता है। रागु मारू बाणी रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै ॥ गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥१॥ रहाउ ॥ जा की छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ॥ नीचह ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥१॥ नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै ॥ कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै ॥२॥१॥ {पन्ना 1106} पद्अर्थ: लाल = हे सुंदर प्रभू! अैसी = ऐसी (मेहर)। गरीब निवाजु = गरीबों को सम्मान देने वाला। गसईआ मेरा = मेरा मालिक। माथै = (गरीब के) सिर पर।1। रहाउ। छोति = छूत। ता पर = उस पर। ढरै = ढलता है, द्रवित होता है, तरस करता है। नीचह = नीच लोगों को। काहू ते = किसी व्यक्ति से।1। सभै = सारे काम। सरै = सरते हैं, हो सकते हैं, सफल हो सकते हैं।2। अर्थ: हे सुंदर प्रभू! तेरे बिना ऐसी करनी और कौन कर सकता है? (हे भाई!) मेरा प्रभू गरीबों को मान देने वाला है, (गरीब के) सिर पर छत्र झुला देता है, (भाव, गरीब को भी राजा बना देता है)।1। रहाउ। (जिस मनुष्य को इतना नीच समझा जाता हो) कि उसकी छूत सारे संसार को लग जाए (भाव, जिस मनुष्य के छूने मात्र से और सारे लोग अपने आप अस्वच्छ अपवित्र समझने लग जाएं) उस मनुष्य पर (हे प्रभू!) तू ही कृपा करता है। (हे भाई!) मेरा गोबिंद नीच लोगों को ऊँचा बना देता है, वह किसी से डरता नहीं।1। (प्रभू की कृपा से ही) नामदेव, कबीर त्रिलोचन, सधना और सैण (आदि भगत संसार-समुंद्र से) पार लांघ गए। रविदास कहता है- हे संत जनो! सुनो, प्रभू सब कुछ करने के समर्थ है।2।1। नोट: शब्द 'नीचह' को आम तौर 'नीचहु' पढ़ते हैं। सही पाठ 'नीचह' है। नोट: भगत रविदास जी की गवाही के अनुसार नामदेव जी का उद्धार किसी बीठुल की मूर्ति की पूजा से नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति की बरकति से हुआ था। नामदेव, त्रिलोचन, कबीर और सधना- इन चारों की बाबत भगत रविदास जी कहते हैं कि 'हरि जीउ ते सभै सरै'॥ शबद का भाव: प्रभू की शरण ही नीचों को ऊँचा करती है। मारू ॥ सुख सागर सुरितरु चिंतामनि कामधेन बसि जा के रे ॥ चारि पदारथ असट महा सिधि नव निधि कर तल ता कै ॥१॥ हरि हरि हरि न जपसि रसना ॥ अवर सभ छाडि बचन रचना ॥१॥ रहाउ ॥ नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अछर माही ॥ बिआस बीचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥ सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास उदास दास मति जनम मरन भै भागी ॥३॥२॥१५॥ {पन्ना 1106} नोट: रविदास जी का यह शबद थोड़े से फर्क के साथ सोरठ राग में भी है। इसका भाव यह है कि यह शबद दोनों रागों में गाया जाना चाहिए। इस शबद के पदाअर्थ देखें सोरठि राग में शबद नंबर 4, रविदास जी का। अर्थ: (हे पंडित!) जो प्रभू सुखों का समुद्र है, जिस प्रभू के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणी और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, आठ बड़ी (रिद्धियां-सिद्धियां) और नौ निधियां ये सब कुछ उसी के हाथों की तली पर हैं।1। (हे पण्डित!) तू और सब फोकियाँ बातें त्याग के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं जपता?।1। रहाउ। (हे पण्डित!) पुराणों के अनेकों किस्मों के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्या-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं है जो प्रभू के चरणों में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पंडित! वेदों के रचयता) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही परम-तत्व बताया है (कि इन पुस्तकों के पाठ आदिक) परमात्मा के नाम का सिमरन करने की बराबरी नहीं कर सकते।2। रविदास कहता है- (हे पण्डित!) बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की सुरति प्रभू-चरणों में जुड़ती है, उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, कोई विकार उसमें नहीं उठता, उस सेवक की मति (माया की ओर से) निर्मोह रहती है, और जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।2।15। शबद का भाव: सब पदार्थों का दाता प्रभू स्वयं ही है। उसका सिमरन करो, कोई भूख नहीं रह जाएगी। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |