श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चेतु बसंतु भला भवर सुहावड़े ॥ बन फूले मंझ बारि मै पिरु घरि बाहुड़ै ॥ पिरु घरि नही आवै धन किउ सुखु पावै बिरहि बिरोध तनु छीजै ॥ कोकिल अ्मबि सुहावी बोलै किउ दुखु अंकि सहीजै ॥ भवरु भवंता फूली डाली किउ जीवा मरु माए ॥ नानक चेति सहजि सुखु पावै जे हरि वरु घरि धन पाए ॥५॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: सुहावड़े = सोहाने। बन = जंगल, बनस्पति, वृक्ष, बेल बूटे। मंझ = में। बारि = जूह, खुली ज़मीन। मै पिरु = मेरा पति प्रभू। बाहुड़ै = आ जाए। धन = स्त्री। बिरहि = बिछोड़े में। छीजै = छिज्जता है, टूटता है, दुखी होता है। अंबि = आम (के वृक्ष) पर। अंकि = हृदय में। मरु = मौत, आत्मिक मौत। माऐ = हे माँ! वरु = पति। घरि = हृदय घर में। धन = जीव स्त्री। पाऐ = ढूँढ लिए।

अर्थ: चेत (का महीना) अच्छा लगता है, (चेत में) बसंत (का मौसम भी) प्यारा लगता है, (इस महीने) खुली जूह में बनस्पति को फूल लग जाते हैं, और (फूलों पर बैठे हुए) भँवर सुंदर लगते हैं। (मेरे हृदय का कमल-फूल भी खिल जाए, अगर) मेरा पति-प्रभू हृदय-घर में आ बसे।

जिस जीव-स्त्री का पति-प्रभू हृदय-घर में ना आ बसे, उस जीव-स्त्री को आत्मिक आनंद नहीं आ सकता, उसका शरीर (प्रभू से) विछोड़े के कारण (कामादिक वैरियों के) हमलों से कमजोर हो जाता है। (चेत्र के महीने) कोयल आमों के वृक्ष पर बैठ कर मीठे बोल बोलती है (वियोगन को ये बोल मीठे नहीं लगते, चुभवें व दुखदाई लगते हैं, और विछोड़े का) दुख उससे सहा नहीं जाता।

हे माँ! मेरा मन भँवरा (अंदर के खिले हुए हृदय-कमल को छोड़ के दुनिया के रंग-तमाशों के) फूलों और डालियों पर भटकता फिरता है। यह आत्मिक जीवन नहीं है, यह तो आत्मिक मौत है।

हे नानक! चेत्र के महीने में (बसंत के मौसम में) जीव-स्त्री अडोल अवस्था में टिक के आत्मिक आनंद पाती है, यदि जीव-स्त्री (अपने हृदय-) घर में प्रभू-पति को ढूँढ ले।

भाव: बसंत का मौसम सोहाना होता है। हर तरफ फूल खिले होते हैं, कोयल आम पर बैठी मीठे बोल बोलती है। पर पति से विछुड़ी नारि को ये सब कुछ चुभता प्रतीत होता है। जिस मनुष्य का मन अंदर के हृदय-कमल फूल को छोड़ के दुनिया के रंग-तमाशो में भटकता फिरता है, उसका यह जीना असल में आत्मिक मौत है। आत्मिक आनंद तब ही है जब परमात्मा हृदय में आ बसता है।

वैसाखु भला साखा वेस करे ॥ धन देखै हरि दुआरि आवहु दइआ करे ॥ घरि आउ पिआरे दुतर तारे तुधु बिनु अढु न मोलो ॥ कीमति कउण करे तुधु भावां देखि दिखावै ढोलो ॥ दूरि न जाना अंतरि माना हरि का महलु पछाना ॥ नानक वैसाखीं प्रभु पावै सुरति सबदि मनु माना ॥६॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: साखा = शाखाएं, नई फूटी टहनियां। वेस करे = सुंदर कपड़े पहने हुए हैं, नर्म नर्म कोमल पत्ते निकले हुए हैं। धन = स्त्री। देखै = देखती है, इन्तजार करती है। दुआरि = द्वार में (खड़ी)। करे = कर के। घरि = घर में। दुतर = जिस में से तैर के गुजरना मुश्किल है। तारे = पार लंघा ले, उद्धार कर। अढु = आधी कौड़ी। मोलो = मूल्य। तुधु भावां = अगर तुझे अच्छा लगने लगूँ। देखि = देख के, दर्शन कर के। दिखावै = (मुझे भी) दर्शन करा दे। ढोलो = ढोले के, प्यारे पति का। जाना = जानती हूँ। माना = मानती हूँ। महलु = ठिकाना। पछाना = पहचान लेती हूँ। वैसाखीं = वैसाख में। सबदि = शबद में। माना = पतीज गया।

अर्थ: वैसाख (का महीना कैसा) अच्छा लगता है! (वृक्षों की) नई फूटी कोमल कोपलें टहनियां (नव-विवाहिता जैसे कोमल-कोमल पक्तों का) हार-श्रृंगार करती हैं। (इन कोमल टहनियों का हार-श्रृंगार देख के पति से विछुड़ी नारी के अंदर भी पति को मिलने की कसक पैदा होती है, और वह अपने घर के दरवाजे पर खड़ी राह ताकती है। इसी तरह प्रकृति-रानी का सोहज-श्रृंगार देख के उमाह भरी) वह जीव स्त्री अपने (हृदय-) दर पर प्रभू-पति का इन्तजार करती है (और कहती है- हे प्रभू पति!) मेहर करके (मेरे हृदय-घर में) आओ, मुझे इस बिशम संसार-समुंद्र से पार लंघाओ, तेरे बिना मेरी कद्र आधी कौड़ी जितनी भी नहीं है। पर, हे मित्र प्रभू! अगर गुरू तेरे दर्शन करके मुझे भी करवा दे, और अगर मैं तुझे अच्छी लग जाऊँ, तो कौन मेरा मोल डाल सकता है? फिर तू मुझे कहीं दूर नहीं प्रतीत होगा, मुझे यकीन होगा कि तू मेरे अंदर बस रहा है, उस ठिकाने की मुझे पहचान हो जाएगी जहाँ तू बसता है।

हे नानक! वैसाख में (कुदरत रानी का साज-श्रृंगार देख के वह जीव-स्त्री) प्रभू-पति (का मिलाप) हासिल कर लेती है जिसकी सुरति गुरू-शबद में जुड़ी रहती है, जिसका मन (सिफत-सालाह में ही) रम जाता है।6।

भाव: जिस मनुष्य का मन परमात्मा की सिफतसालाह में रम जाता है, उसको कुदरत की सुंदरता भी परमात्मा के चरणों में जोड़ने के लिए सहायता करती है।

माहु जेठु भला प्रीतमु किउ बिसरै ॥ थल तापहि सर भार सा धन बिनउ करै ॥ धन बिनउ करेदी गुण सारेदी गुण सारी प्रभ भावा ॥ साचै महलि रहै बैरागी आवण देहि त आवा ॥ निमाणी निताणी हरि बिनु किउ पावै सुख महली ॥ नानक जेठि जाणै तिसु जैसी करमि मिलै गुण गहिली ॥७॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: किउ बिसरै = कैसे बिसरे? नहीं बिसरता। तापहि = तपते हैं। सर = की तरह। भार = भट्ठी। साधन = जीव स्त्री। बिनउ = विनती। सारेदी = संभालती है, याद करती है। सारी = मैं याद करती हूँ। प्रभ भावा = प्रभू को अच्छी लगूँ। महलि = महल में। बैरागी = विरक्त, माया से निर्लिप। आवण देहि = अगर तू आने की आज्ञा दे। आवा = मैं (तेरे पास) आ सकती हूँ। महली = महलों में। करमि = बख्शिश से। गहिली = ग्रहण करने वाली। जाणै = जान ले, जान पहचान बना ले। गुण गहली = प्रभू के गुण ग्रहण करने वाली।

अर्थ: जेठ महीना (उनको ही) अच्छा लगता है जिन्हें प्रीतम कभी नहीं बिसरता। (जेठ में लू चलने से) भट्ठी की तरह स्थल तपने लग जाते हैं (इसी तरह कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते हैं, उनकी तपश अनुभव करके) गुरमुखि जीव-स्त्री (प्रभू-चरणों में) अरदास करती है, उस प्रभू के गुण (हृदय में) संभालती है, जो इस तपश से निराला अपने सदा स्थिर महल में टिका रहता है, उसके आगे जीव-स्त्री विनती करती है- हे प्रभू! मैं तेरी सिफत-सालाह करती हॅूँ, ताकि तुझे अच्छी लगने लग जाऊँ, तू मुझे आज्ञा दे मैं भी तेरे महल में आ जाऊँ (और बाहरी तपस से बच सकूँ)।

जब तक जीव-स्त्री प्रभू से अलग रह के (विकारों की तपश से) निढाल और कमजोर है, तब तक (तपश से बचे हुए प्रभू के) महल का आनंद नहीं भोग सकती।

हे नानक! जेठ (की तपाती लू) में प्रभू की सिफत-सालाह को हृदय में बसा लेने वाली जो जीव-स्त्री प्रभू के साथ जान-पहचान बना लेती है, वह उस (शांत-चिक्त प्रभू) जैसी हो जाती है, उसकी मेहर से उस में एक-रूप हो जाती है (और विकारों की तपश की लू से बची रहती है)।7।

भाव: कामादिक विकारों की आग से संसारी जीवों के हृदय तपते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह को हृदय में बसा के परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है, उसका हृदय शांत रहता है, वह मनुष्य विकारों की तपश की लू से बचा रहता है।

आसाड़ु भला सूरजु गगनि तपै ॥ धरती दूख सहै सोखै अगनि भखै ॥ अगनि रसु सोखै मरीऐ धोखै भी सो किरतु न हारे ॥ रथु फिरै छाइआ धन ताकै टीडु लवै मंझि बारे ॥ अवगण बाधि चली दुखु आगै सुखु तिसु साचु समाले ॥ नानक जिस नो इहु मनु दीआ मरणु जीवणु प्रभ नाले ॥८॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: आसाड़ ु = आसाढ़ का महीना। गगनि = आकाश में। भला = अच्छा, यौवन में। सहै = सहता है। भखै = तपती है। रसु = जल। मरीअै = मरते हैं, दुखी होते हैं। धोखै = सुलग सुलग के, त्राहि त्राहि के। सो = वह सूरज। किरतु न हारे = कर्तव्य नहीं छोड़ता। फिरै = चक्कर लगाता है। धन = कमजोर जीवात्मा। ताकै = ताकती है, तलाशती है। टीडू = बींडा (एक प्रकार का कीड़ा)। लवै = टीं टीं करता है। बारि = जूह। मंझि बारे = खुली जूह में। बाधि = बाँध के। चली = चलती है। आगै = आगे सामने, जिंदगी के सफर में। साचु = सदा स्थिर प्रभू। समाले = हृदय में संभालती है। इहु मनु = सच संभालने वाला मन। मरणु जीवणु = हर वक्त साथ।

अर्थ: (जब) आसाढ़ का महीना पूरे यौवन में होता है, आकाश में सूरज तपता है। (ज्यों-ज्यों सूरज धरती की नमी को) सुखाता है, धरती दुख सहती है (धरती के जीव-जन्तु दुखी होते हैं), धरती आग (की तरह) धधकती है। (सूरज) आग (की तरह) पानी को सुखाता है, (हरेक जीवात्मा) त्राहि-त्राहि के दुखी होती है, फिर भी सूरज अपना कर्तव्य नहीं छोड़ता (अपना काम किए जाता है)। (सूर्य का) रथ चक्कर लगाता है, कमजोर जिंद कहीं छाया का आसरा लेती है, बींडा भी बाहर जुहू में (पेड़ो की छाया में) टीं-टीं करता है (हरेक जीव तपश से जान बचाता दिखाई देता है)।

(ऐसी मानसिक तपश का) दुख उस जीव-स्त्री के सामने (भाव, जीवन-यात्रा में) मौजूद रहता है, जो बुरे कर्मों (की पोटली सिर पर) बॉध के चलती है। आत्मिक आनंद सिर्फ उसको है जो सदा-स्थिर प्रभू को अपने हृदय में टिकाए रखती है। हे नानक! जिस जीव-स्त्री को प्रभू ने हरी-नाम सिमरन वाला मन दिया है, प्रभू के साथ उसका सदीवी साथ बन जाता है (उसको आसाढ़ की कहर भरी तपश जैसा विकारों का सेक छू नहीं सकता)।8।

भाव: जो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाए रखता है, उसको इस जीवन-सफर में आसाढ़ के कहर की तपश जैसा विकारों का सेक सता नहीं सकता।

सावणि सरस मना घण वरसहि रुति आए ॥ मै मनि तनि सहु भावै पिर परदेसि सिधाए ॥ पिरु घरि नही आवै मरीऐ हावै दामनि चमकि डराए ॥ सेज इकेली खरी दुहेली मरणु भइआ दुखु माए ॥ हरि बिनु नीद भूख कहु कैसी कापड़ु तनि न सुखावए ॥ नानक सा सोहागणि कंती पिर कै अंकि समावए ॥९॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: सावणि = सावन में। सरस = रस वाला हो, हरा हो। घण = बादल। आऐ = आई है। मै भावै = मुझे प्यारा लगता है। पिर = पति जी। सिधाऐ = चले गए हैं। हावै = हाहुके में, आह में। दामनि = बिजली। चमकि = चमक के। खरी = बहुत। दुहेली = दुखदाई। माऐ = हे माँ! कहु = बताओ। तनि = तन पर। सुखावऐ = सुखद है। कंती = कंत वाली, जिसको कंत प्यार करता है। अंकि = गले से लगाना, जॅफी डालनी, बाँहों में भर लेना। समावऐ = लीन हो जाती है।

अर्थ: (आषाढ़ की अति दर्जे की तपश में घास आदि सूख जाते हैं। उस तपश के बाद सावन महीनें में घटाएं चढ़तीं हैं। पशु पक्षी और मनुष्य तो कहीं रहे, सूखा हुआ घास भी हरा हो जाता है। उसकी हरियाली देख के हरेक प्राणी बोल उठता है-) हे मेरे मन! सावन महीने में (वर्षा की) ऋतु आ गई है, बादल बरस रहे हैं, तू भी हरा हो (तू भी उमंग में आ)।

(परदेस गए पति की नारी का हृदय काली घटाओं को देख के तड़प उठता है। उमंग पैदा करने वाले ये सामान, विरह-वियोग में उसको दुखदाई प्रतीत होते हैं। विरह में वह यूँ कहती है-) हे माँ! (ये बादल देख-देख के) मुझे अपना पति मन में रोम-रोम में प्यारा लग रहा है, पर मेरे पति जी तो परदेस गए हुए हैं। (जब तलक) पति घर नहीं आता, मैं आहें भर रही हूँ, बिजली चमक के (बल्कि) मुझे डरा रही है। (पति के वियोग में) मेरी सूनी सेज मुझे बहुत दुखदाई हो रही है, (पति से विछोड़े का) दुख मुझे मौत (के बराबर) हो गया है।

(जिस जीव-स्त्री के अंदर प्रभू-पति का प्यार है, विरह भरी नारी की तरह) उसको प्रभू के मिलाप के बिना ना नींद, ना भूख। उसको तो कपड़ा भी शरीर पर अच्छा नहीं लगता (शरीरिक सुखों के कोई भी साधन उसके मन को बहला नहीं सकते)।

हे नानक! वही भाग्यशाली जीव-स्त्री प्रभू-पति के प्यार की हकदार हो सकती है, जो सदा प्रभू की याद में लीन रहती है।9।

भाव: सिफतसालाह की बरकति से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा हो जाता है, इस प्यार के मुकाबले में शारीरिक सुखों का कोई भी साधन उसके मन को फुसला नहीं सकता।

भादउ भरमि भुली भरि जोबनि पछुताणी ॥ जल थल नीरि भरे बरस रुते रंगु माणी ॥ बरसै निसि काली किउ सुखु बाली दादर मोर लवंते ॥ प्रिउ प्रिउ चवै बबीहा बोले भुइअंगम फिरहि डसंते ॥ मछर डंग साइर भर सुभर बिनु हरि किउ सुखु पाईऐ ॥ नानक पूछि चलउ गुर अपुने जह प्रभु तह ही जाईऐ ॥१०॥ {पन्ना 1108}

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भुली = कुमार्ग पर पड़ गई। भरि जोबनि = पूरे यौवन में। नीरि = पानी के साथ। बरस रुते = बरखा की ऋतु में। रंगु माणी = रंग माणती। निसि = रात के वक्त। दादर = मेंढक। लवंते = बोलते हैं। चवै = बोलता है। भुइअंगम = साँप। डसंते = डंक मारते। साइर = समुंद्र, सरोवर, तालाब। भर सुभर = नाको नाक भरे हुए। चलउ = मैं चलूँ। जह = जहाँ। तह = वहाँ।

अर्थ: भादों (का महीना) आ गया है। बरखा ऋतु में खड्ड-गड्ढे पानी से भरे हुए हैं, (इस नजारे का) आनंद लिया जा सकता है।

(पर) जो जीव-स्त्री भर-यौवन में (यौवन के घमण्ड के) भुलेखें में गलती खा गई, उसको (पति के विछोड़े में) पछताना ही पड़ा (उसे पानी भरी जगहें नहीं भातीं)।

काली स्याह रात को बरसात होती है, मेंढक टॅर-टॅर करते हैं, मोर कूहकते हैं, पपीहा भी 'पिउ पिउ' करता है, (पर पति से विछुड़ी) नारी को (इस सोहाने रंग से) आनंद नहीं मिलता। उसको तो (भादों में यही दिखता है कि) साँप डसते फिरते हैं, मच्छर डंक मारते हैं। चारों तरफ छप्पर-तालाब (बरसात के पानी से) नाको-नाक भरे हुए हैं (बिरही नारी को इसमें कोई सुहज-स्वाद नहीं दिखता)।

(इसी तरह जिस जीव-स्त्री को पति-प्रभू से विछोड़े का अहिसास हो जाता है, उसको) प्रभू की याद के बिना (और किसी रंग-तमाशे में) आत्मिक आनंद नहीं मिलता।

हे नानक! (कह-) मैं तो अपने गुरू की शिक्षा पर चल कर (उसके बताए हुए रास्ते पर) चलूँगी, जहाँ प्रभू-पति मिल सकता हो, वहीं जाऊँगी।10।

भाव: गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के जिस मनुष्य का मन परमात्मा की सिफत सालाह में रम जाता है, परमात्मा की याद के बिना किसी भी रंग-तमाशे में उसको आत्मिक आनंद नहीं मिलता।

असुनि आउ पिरा सा धन झूरि मुई ॥ ता मिलीऐ प्रभ मेले दूजै भाइ खुई ॥ झूठि विगुती ता पिर मुती कुकह काह सि फुले ॥ आगै घाम पिछै रुति जाडा देखि चलत मनु डोले ॥ दह दिसि साख हरी हरीआवल सहजि पकै सो मीठा ॥ नानक असुनि मिलहु पिआरे सतिगुर भए बसीठा ॥११॥ {पन्ना 1108-1109}

पद्अर्थ: असुनि = असू महीने में। पिरा = हे पति! साधन = स्त्री। झूरि = झुर के, सिसक सिसक के, आहें भर भर के। ता = तब ही। प्रभ = हे प्रभू! मेले = यदि तू मिलाए। दूजै भाइ = प्रभू के बिना किसी और के प्यार में। खुई = खो बैठी, जीवन के सही राह से भटक के गलत मार्ग पर पड़ गई। विगुती = दुखी हुई। मुती = छोड़ी हुई, छुटॅड़। पिर = हे पति! कुकह काह = पिलछी और काही।

(नोट: असू की ऋतु में नदियों के किनारे उगी हुई एक विशेष प्रकार की वनस्पति जिसे पंजाबी इलाके में पिलछी और काही के नाम से जाना जाता है, सरकण्डा वगैरह, पर सफेद-सफेद रूई जैसा बूर सा आ जाता है। पिलछी और काही का ये फूलना बुढ़ापे को आँखों के आगे ला के उदासी पैदा करता है)।

आगै = आगे गुजर गई। घाम = धूप, तपश, गर्मी (भाव, शारीरिक गर्मी, ताकत)। पिछै = उस घाम के पीछै पीछे। जाडा = सर्दी (भाव, कमजोरी)। सहजि = अडोलता में। बसीठा = वकील, बचौला।

अर्थ: (भादों की कड़क धूप के गर्मी गुजरने के बाद) असू (की मीठी ऋतु) में (स्त्री के दिल में पति को मिलने की तमन्ना पैदा होती है। वैसे ही जिस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति के विछोड़े में कामादिक वैरियों के हमलों के दुख देख लिए हैं, वह अरदास करती है-) हे प्रभू पति! (मेरे हृदय में) आ बस (तुझसे विछुड़ के) मैं आहें भर-भर के आत्मिक मौत मर रही हॅूँ, मायावी पदार्थों के मोह में फस के मैं गलत रास्ते पर पड़ चुकी हॅूँ। हे प्रभू! तुझे तभी मिला जा सकता है अगर तू खुद मिलाए।

(जब से) दुनिया के झूठे मोह में फस के मैं दुखी हो रही हूँ, तब से, हे पति! तुझसे बिछुड़ी हुई हूँ। पिलछी और काही (के सफेद बूर की तरह मेरे केस) सफेद हो गए हैं, (मेरे शरीर की) गरमाहट आगे गुजर चुकी है (कम हो गई है), उसके पीछे-पीछे शरीरिक कमजोरी (ठंढ) आ रही है, ये तमाशा देख के मेरा मन घबरा रहा है (क्योंकि अभी तक तेरा दीदार नहीं हो सका)। (सरकंडे आदि का हाल देख के मेरा मन डोलता है, पर) हर तरफ (बनस्पति की) हरी शाखाएं देख के (ये धीरज बँधता है कि) अडोल अवस्था में (जो जीव) दृढ़ रहता है, उसी को प्रभू-मिलाप की मिठास (प्रसन्नता) मिलती है।

हे नानक! असू (की मीठी ऋतु) में (तू भी प्रार्थना कर और कह-) हे प्यारे प्रभू! (मेहर कर) गुरू के माध्यम से मुझे मिल।11।

भाव: जो मनुष्य दुनिया के झूठे मोह में फस जाता है, वह परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है। पर जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरू की शरण पड़ता है वह माया के मोह के हमलों से अडोल हो जाता है और उसको प्रभू-मिलाप का आनंद प्राप्त होता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh