श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ महला ५ ॥ भगता मनि आनंदु गोबिंद ॥ असथिति भए बिनसी सभ चिंद ॥ भै भ्रम बिनसि गए खिन माहि ॥ पारब्रहमु वसिआ मनि आइ ॥१॥ राम राम संत सदा सहाइ ॥ घरि बाहरि नाले परमेसरु रवि रहिआ पूरन सभ ठाइ ॥१॥ रहाउ ॥ धनु मालु जोबनु जुगति गोपाल ॥ जीअ प्राण नित सुख प्रतिपाल ॥ अपने दास कउ दे राखै हाथ ॥ निमख न छोडै सद ही साथ ॥२॥ हरि सा प्रीतमु अवरु न कोइ ॥ सारि सम्हाले साचा सोइ ॥ मात पिता सुत बंधु नराइणु ॥ आदि जुगादि भगत गुण गाइणु ॥३॥ तिस की धर प्रभ का मनि जोरु ॥ एक बिना दूजा नही होरु ॥ नानक कै मनि इहु पुरखारथु ॥ प्रभू हमारा सारे सुआरथु ॥४॥३८॥५१॥ {पन्ना 1151}

पद्अर्थ: मनि = मन में। असथिति = (भय भ्रम आदि से) अडोलता। चिंद = (भय भरमों का) चिंतन, चित चेता। भै = (बहुवचन) सारे डर। आइ = आ के।1।

सहाइ = सहाई, मददगार। नाले = साथ ही। रवि रहिआ = व्यापक है। पूरन = व्यापक। सभ ठाइ = सब जगह।1। रहाउ।

जुगति = जीवन की मर्यादा, जीने की जाच। जीअ = जिंद। दे = देकर। राखै = रक्षा करता है। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। सद = सदा।2।

सा = जैसा। प्रीतमु = प्यार करने वाला। सारि = ध्यान से। समाले = संभाल करता है। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुत = पुत्र। बंधु = सन्बंधी। भगत = परमात्मा के सेवक। आदि = आरम्भ से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।3।

धर = आसरा। मनि = मन में। जोरु = बल, सहारा। कै मनि = के मन में। पुरखारथु = पुरुषार्थ, हौसला। सारे = सवारता है।4।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा सब जगह पूरन तौर पर मौजूद है, (वह) परमात्मा अपने संत जनों का सदा मददगार है, घर में घर से बाहर हर जगह (संतजनों के साथ) होता है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा भक्तों के मन में सदा आत्मिक हुलारा बना रहता है (दुनिया के डरों, दुनियां की भटकनों से उनके अंदर सदा) अडोलता रहती है (दुनिया के डरों का उनको) चिक्त-चेता भी नहीं रहता। हे भाई! (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा आ बसता है एक छिन में उसके सारे डर-सहम दूर हो जाते हैं।1।

हे भाई! परमात्मा आँख झपकने जितने समय के लिए भी अपने सेवक का साथ नहीं छोड़ता, सदा उसके साथ रहता है, अपने सेवक को हाथ दे के बचाता है। हे भाई! परमात्मा सेवक की जिंद की पालना करता है, सदा उसके प्राणों की रक्षा करता है, उसको सारे सुख देता है। (सेवक के लिए भी) परमात्मा का नाम ही धन है, नाम ही माल है, नाम ही जवानी है और नाम जपना ही जीने की सुचॅजी जुगति है।2।

हे भाई! परमात्मा जैसा प्यार करने वाला और कोई नहीं है। वह सदा-स्थिर प्रभू बड़े ध्यान से (अपने भक्तों की) संभाल करता है। हे भाई! जगत के शुरू से जुगों के आरम्भ से भगत परमात्मा के गुणों का गायन करते आ रहे हैं, उनके लिए परमात्मा ही माँ है, परमात्मा ही पिता है, परमात्मा ही पुत्र है परमात्मा ही सम्बंधी है।3।

हे भाई! भगत जनों के मन में परमात्मा का ही आसरा है परमात्मा का ही ताण है। नानक के मन में (भी) यही पुरुषार्थ है कि परमात्मा हमारे हरेक काम सँवारता है।4।38।51।

भैरउ महला ५ ॥ भै कउ भउ पड़िआ सिमरत हरि नाम ॥ सगल बिआधि मिटी त्रिहु गुण की दास के होए पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के लोक सदा गुण गावहि तिन कउ मिलिआ पूरन धाम ॥ जन का दरसु बांछै दिन राती होइ पुनीत धरम राइ जाम ॥१॥ काम क्रोध लोभ मद निंदा साधसंगि मिटिआ अभिमान ॥ ऐसे संत भेटहि वडभागी नानक तिन कै सद कुरबान ॥२॥३९॥५२॥ {पन्ना 1151}

पद्अर्थ: भै कउ = डर को (संबंधक के कारण शब्द 'भउ' से 'भै' बन जाता है)। पड़िआ = पड़ गया। सिमरत = सिमरते हुए। सगल बिआधि = हरेक किस्म की बिमारी। त्रिहु गुण की = माया के तीनों गुणों से पैदा होने वाली। काम = काम।1। रहाउ।

गावहि = गाते हैं (बहुवचन)। पूरन धाम = सर्व व्यापक प्रभू के चरणों में ठिकाना। धाम = घर, ठिकाना। बांछै = चाहता है (एक वचन)। पुनीत = पवित्र। जाम = जमराज।1।

मद = मस्ती, मोह। साध संगि = साध-संगति में। भेटहि = मिलते हैं (बहुवचन)। तिन कै = उन से। सद = सदा।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से डर को भी डर पड़ जाता है (डर सिमरन करने वाले के नजदीक नहीं जाता)। माया के तीनों ही गुणों से पैदा होने वाली हरेक बिमारी (भगत-जन के अंदर से) दूर हो जाती है। प्रभू के सेवक के सारे काम सफल होते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के भक्त सदा परमात्मा के गुण गाते रहते हैं, उनको सर्व-व्यापक प्रभू के चरणों में ठिकाना मिला रहता है। हे भाई! धर्मराज जम राज भी दिन-रात परमात्मा के भगत का दर्शन करने की अभिलाषा रखता है (क्योंकि उस दर्शन से वह) पवित्र हो सकता है।1।

हे भाई! गुरमुखों की संगति में रहने से काम क्रोध लोभ मोह अहंकार (हरेक विकार मनुष्य के अंदर से) खत्म हो जाता है। पर ऐसे संत जन बड़े भाग्यों से ही मिलते हैं। हे नानक! (कह-) मैं उन संतजनों से सदा सदके जाता हूँ।2।39।52।

भैरउ महला ५ ॥ पंच मजमी जो पंचन राखै ॥ मिथिआ रसना नित उठि भाखै ॥ चक्र बणाइ करै पाखंड ॥ झुरि झुरि पचै जैसे त्रिअ रंड ॥१॥ हरि के नाम बिना सभ झूठु ॥ बिनु गुर पूरे मुकति न पाईऐ साची दरगहि साकत मूठु ॥१॥ रहाउ ॥ सोई कुचीलु कुदरति नही जानै ॥ लीपिऐ थाइ न सुचि हरि मानै ॥ अंतरु मैला बाहरु नित धोवै ॥ साची दरगहि अपनी पति खोवै ॥२॥ माइआ कारणि करै उपाउ ॥ कबहि न घालै सीधा पाउ ॥ जिनि कीआ तिसु चीति न आणै ॥ कूड़ी कूड़ी मुखहु वखाणै ॥३॥ जिस नो करमु करे करतारु ॥ साधसंगि होइ तिसु बिउहारु ॥ हरि नाम भगति सिउ लागा रंगु ॥ कहु नानक तिसु जन नही भंगु ॥४॥४०॥५३॥ {पन्ना 1151}

पद्अर्थ: पंच मजमी = पाँच पीरों का उपासक, कामादिक पाँच पीरों का उपासक। पंचन = कामादिक पाँचों को। मिथिआ = झूठ। रसना = जीभ (से)। उठि = उठ के। नित उठि = सदा ही, हर रोज। भाखै = बोलता है। चक्र = गणेश आदि का निशान। पाखंड = धरमी होने का दिखावा। झुरि झुरि = माया की खातिर तरले ले के। पचै = अंदर ही अंदर जलता है। त्रिआ रंड = विधवा स्त्री, रंडी।1।

सभ = सारी (दिखावे वाली धार्मिक क्रिआ)। मुकति = विकारों से मुक्ति। साची दरगहि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा की हजूरी में। साकत मूठु = साकतों का पाज़, साकतों की ठॅगी की पोल, परमात्मा से टूटे हुए लोगों की ठॅगी ठोरी।1। रहाउ।

सोई = वही मनुष्य कुचीलु = गंदी रहन सहन वाले। जानै = पहचानता। लीपिअै थाइ = अगर चौका पोचा किया जाय। सुचि = पवित्रता। मानै = मानता। अंतरु = अंदर का, हृदय। बाहरु = (शरीर का) बाहरी हिस्सा। पति = इज्जत।2।

कारणि = कमाने के लिए। उपाउ = उपाय, उद्यम। घालै = घरता, भेजता। सीधा पाउ = सीधे पैर। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। चीति = चिक्त में। आणै = लाता है। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। मुखहु = मुँह से।3।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

करमु = बख्शिश। बिउहारु = वर्तण व्यवहार, मेल जोल, उठना बैठना। सिउ = साथ। रंगु = प्यार। भंगु = कमी, तोट।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम सिमरन के बिना (और) सारी (दिखावे वाली धार्मिक क्रिया) झूठा उद्यम है। पूरे गुरू की शरण पड़े बिना विकारों से निजात नहीं मिलती। सदा कायम रहने वाले परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों का ठॅगी-ठोरी का पाज़ चल नहीं सकता।1। रहाउ।

हे भाई! (नाम सिमरन को छोड़ के जो मनुष्य शरीर पर) गणेश आदि का निशान बना के अपने धर्मी होने का दिखावा करता है, वह (असल में) अंदर-अंदर से माया की खातिर तरले ले-ले के जलता रहता है, जैसे विधवा स्त्री (पति के बिना सदा दुखी रहती है)। वह मनुष्य (दरअसल कामादिक) पाँच पीरों का उपासक होता है क्योंकि वह इन पाँचों को (अपने हृदय में) संभाल के रखता है, और सदा गिन-मिथ के अपनी जीभ से झूठ बोलता रहता है।1।

हे भाई! असल में वही मनुष्य कुचील रहन-सहन वाला है जो इस सारी रचना में (इसके कारतार सृजनहार को बसता) नहीं पहचान सकता। अगर बाहर से चौका लीपा-पोता जाए, (तो उस बाहरी स्वच्छता को) परमात्मा स्वच्छ नहीं समझता। जिस मनुष्य का हृदय तो विकारों से गंदा होया हुआ है, पर वह अपने शरीर को (स्वच्छता, सुचि की खातिर) सदा धोता रहता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की हजूरी में अपनी इज्जत गवा लेता है।2।

हे भाई! (अपने धर्मी होने का दिखावा करने वाले मनुष्य अंदर से) माया इकट्ठी करने की खातिर (भेष और स्वच्छता आदि का) प्रयास करता है (आडंबर करता है), पर (पवित्र जीवन वाले रास्ते पर) कभी भी सीधा पैर नहीं रखता। जिस परमात्मा ने पैदा किया है, उसको अपने चिक्त में नहीं बसाता, (हाँ) झूठ-मूठ (लोगों को ठगने के लिए अपने) मुँह से (राम-राम) उचारता रहता है।3।

हे भाई! जिस मनुष्य पर करतार-सृजनहार मेहर करता है, साध-संगति में उस मनुष्य का उठना-बैठना हो जाता है, परमात्मा के नाम से परमात्मा की भक्ति से उसका प्रेम बन जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को (आत्मिक आनंद में कभी) कमी नहीं आती।4।40।53।

भैरउ महला ५ ॥ निंदक कउ फिटके संसारु ॥ निंदक का झूठा बिउहारु ॥ निंदक का मैला आचारु ॥ दास अपुने कउ राखनहारु ॥१॥ निंदकु मुआ निंदक कै नालि ॥ पारब्रहम परमेसरि जन राखे निंदक कै सिरि कड़किओ कालु ॥१॥ रहाउ ॥ निंदक का कहिआ कोइ न मानै ॥ निंदक झूठु बोलि पछुताने ॥ हाथ पछोरहि सिरु धरनि लगाहि ॥ निंदक कउ दई छोडै नाहि ॥२॥ हरि का दासु किछु बुरा न मागै ॥ निंदक कउ लागै दुख सांगै ॥ बगुले जिउ रहिआ पंख पसारि ॥ मुख ते बोलिआ तां कढिआ बीचारि ॥३॥ अंतरजामी करता सोइ ॥ हरि जनु करै सु निहचलु होइ ॥ हरि का दासु साचा दरबारि ॥ जन नानक कहिआ ततु बीचारि ॥४॥४१॥५४॥ {पन्ना 1151-1152}

पद्अर्थ: निंदक = दूसरों पर कीचड़ उछालने वाला, दूसरों पर तोहमतें लगाने वाला। कउ = को। फिटके = फिटकार पाता है। बिउहार = (तोहमतें लगाने वाला) कसब, व्यवहार, मैला = गंदा, विकारों भरा। आचारु = आचरण। राखनहारु = (विकारों से) बच सकने वाला।1।

मुआ = आत्मिक मौत मर जाता है। कै नालि = की सुहबत में। परमेसरि = परमेश्वर ने। राखे = (सदा) रक्षा की। कै सिरि = के सिर पर। कड़किओ = कूकता रहता है। कालु = आत्मिक मौत।1। रहाउ।

न मानै = ऐतबार नहीं करता। बोलि = बोल के। पछताने = अफसोस करते हैं। हाथ पछोरहि = (अपने) हाथ (माथे पर) मारते हैं। धरनि = धरती। दई = परमात्मा।2।

न मागै = नहीं माँगता, नहीं चाहता। दुखु सांगै = बर्छी (लगने) का दुख। पंख = पंख पक्षी के। पसारि रहिआ = बिखेरे रखता है। ते = से। तां = तब। बीचारि = विचार के।3।

अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। निहचलु = अटल, जरूर घटित होने वाला। साचा = अडोल जीवन वाला। दरबारि = प्रभू की हजूरी में। ततु = अस्लियत। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे भाई! (संतजनों पर) दूषण लगाने वाला मनुष्य तोहमत लगाने वाले की सोहबत (संगति) में रह के आत्मिक मौत सहेड़ लेता है। प्रभू-परमेश्वर ने (विकारों में गिरने से सदा ही अपने) सेवकों की रक्षा की है, पर उन पर तोहमतें लगाने वालों के सिर पर आत्मिक मौत (सदा) गरजती रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! संत जनों पर दूषण लगाने वाले मनुष्य को सारा जगत घिक्कारता है (क्योंकि जगत जानता है कि) तोहमतें लगाने वाले का ये व्यवहार (कसब) झूठा है। हे भाई! (दूषण लगा-लगा के) दूषण लग्राने वाला का अपना आचरण ही गंदा हो जाता है। पर परमात्मा अपने सेवक को (विकारों में गिरने से) स्वयं बचाए रखता है।1।

हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वालों की बात को कोई भी मनुष्य सच नहीं मानता, तोहमतें लगाने वाले झूठ बोल के (फिर) अफसोस ही करते हैं, (सच्चाई सामने आ जाने पर निंदक) हाथ माथे पर मारते हैं और अपना सिर धरती पर पटकते हैं (भाव, बहुत ही शर्मिन्दे होते हैं)। (पर ऊजें लगाने की दूषण लगाने की बाज़ी में दोखी मनुष्य ऐसा फसता है कि) परमात्मा उस दोखी को (अपने ही बुने हुए निंदा के जाल में से) छुटकारा नहीं देता।2।

हे भाई! परमात्मा का भक्त (उस दोखी का भी) रक्ती भर भी बुरा नहीं माँगता (ये नहीं चाहता कि उसका कोई नुकसान हो। फिर भी) दोखी को (अपनी ही करतूत का ऐसा) दुख मिलता है (जैसे) बरछी (के लगने) की (असहि पीड़ा होती है)। हे भाई! संतजनों पर दूषण लगाने वाला मनुष्य खुद ही बगुले की तरह पंख पसार के रखता है (अपने आप को अच्छे जीवन वाला जतलाता फिरता है, पर जैसे ही वह) मुँह से (दूषण भरे) बचन बोलता है तब वह (झूठा दोखी) मिथा जाता है (और लोगों द्वारा) दुत्कारा जाता है।3।

हे भाई! वह करतार स्वयं ही हरेक के दिल की जानता है। उसका सेवक जो कुछ करता है वह पत्थर की लकीर होता है (उस में रक्ती भर भी झूठ नहीं होता, वह किसी की बुराई वास्ते नहीं होता)। हे नानक! प्रभू के सेवकों ने विचार के ये तॅत-सार कह दिया है कि परमात्मा का सेवक परमात्मा की हजूरी में सुर्ख-रू होता है।4।41।54।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh