श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1263 मलार महला ४ ॥ गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि उदमु धूरि साधू की ताई ॥ किलविख मैलु भरे परे हमरै विचि हमरी मैलु साधू की धूरि गवाई ॥१॥ तीरथि अठसठि मजनु नाई ॥ सतसंगति की धूरि परी उडि नेत्री सभ दुरमति मैलु गवाई ॥१॥ रहाउ ॥ जाहरनवी तपै भागीरथि आणी केदारु थापिओ महसाई ॥ कांसी क्रिसनु चरावत गाऊ मिलि हरि जन सोभा पाई ॥२॥ जितने तीरथ देवी थापे सभि तितने लोचहि धूरि साधू की ताई ॥ हरि का संतु मिलै गुर साधू लै तिस की धूरि मुखि लाई ॥३॥ जितनी स्रिसटि तुमरी मेरे सुआमी सभ तितनी लोचै धूरि साधू की ताई ॥ नानक लिलाटि होवै जिसु लिखिआ तिसु साधू धूरि दे हरि पारि लंघाई ॥४॥२॥ {पन्ना 1263} पद्अर्थ: ते = यह सारे (बहुवचन)। करहि = करते हैं, करती हैं (बहुवचन)। की ताई = की खातिर, प्राप्त करने के लिए। किलविख = पाप। किलविख मैलु भरे = पापों की मैल से लिबड़े हुए (जीव)।1। तीरथि = तीर्थ पर, तीर्थ में। नाई = वडिआई, सिफत सालाह। मजनु = स्नान। तीर्थ नाई = सिफतसालाह के तीर्थ में। तीरथि मजनु नाई = सिफतसालाह के तीर्थ में (आत्मिक) स्नान। अठसठि मजनु = अढ़सठ (तीर्थों का) स्नान। परी = पड़ी, पड़ती है। उडि = उड़ के। नेत्री = आँखों में।1। रहाउ। जाहरनवी = गंगा। तपै = तपे ने। तपै भागीरथि = भगीरथ तपस्वी ने। आणी = ले आई। महसाई = महेश ने, शिव ने। मिलि = मिल के।2। देवी = देवी, देवताओं ने। सभि = सारे (बहुवचन)। लोचहि = लोचते हैं (बहुवचन)। मुखि = मुँह पर।3। तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। सुआमी = हे स्वामी! लोचै = लोचती है (एकवचन)। जिसु लिलाटि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। दे = दे के।4। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की) सिफतसालाह के तीर्थ में (किया हुआ आत्मिक) स्नान (ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है। जिस मनुष्य की आँखों में साध-संगति के चरणों की धूल उड़ कर पड़ती है (वह धूल उसके अंदर से) विकारों की सारी मैल दूर कर देती है।1। रहाउ। हे भाई! गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती (आदि पवित्र नदियां) ये सारी संत-जनों के चरणों की धूल हासिल करने का यतन करती रहती हैं। (ये नदियां कहती हैं कि) (अनेकों) विकारों की मैल से लिवड़े हुए (जीव) हमारे में (आ के) डुबकियाँ लगाते हैं (वे अपनी मैल हमें दे जाते हैं) हमारी वह मैल संत-जनों के चरणों की धूड़ दूर करती है।1। हे भाई! गंगा को भगीरथ तपस्वी (स्वर्गों से) ले के आए, शिव जी ने केदार तीर्थ स्थापित किया, काशी (शिव की नगरी), (वृंदावन जहाँ) कृष्ण गाएं चराता रहा - इन सबने हरी के भक्तों को मिल के ही महानता (वडिआई) हासिल की हुई है।2। हे भाई! देवताओं ने जितने भी तीर्थ-स्थान हासिल किए हुए है, वे सारे (तीर्थ) संत-जनों के चरणों की धूड़ की तमन्ना करते रहते हैं। जब उन्हें परमात्मा का संत गुरू साधू मिलता है, वे उसके चरणों की धूड़ माथे पर लगाते हैं।3। हे मेरे मालिक प्रभू! तेरी पैदा की हुई जितनी भी सृष्टि है, वह सारी गुरू के चरणों की धूड़ प्राप्त करने की चाहत रखती है। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य के माथे पर लेख लिखे हों, परमात्मा उसको गुरू-साधू के चरणों की धूड़ दे के उसको संसार-समुंद्र से पार लंघा देता ।4।2। मलार महला ४ ॥ तिसु जन कउ हरि मीठ लगाना जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ तिस की भूख दूख सभि उतरै जो हरि गुण हरि उचरै ॥१॥ जपि मन हरि हरि हरि निसतरै ॥ गुर के बचन करन सुनि धिआवै भव सागरु पारि परै ॥१॥ रहाउ ॥ तिसु जन के हम हाटि बिहाझे जिसु हरि हरि क्रिपा करै ॥ हरि जन कउ मिलिआं सुखु पाईऐ सभ दुरमति मैलु हरै ॥२॥ हरि जन कउ हरि भूख लगानी जनु त्रिपतै जा हरि गुन बिचरै ॥ हरि का जनु हरि जल का मीना हरि बिसरत फूटि मरै ॥३॥ जिनि एह प्रीति लाई सो जानै कै जानै जिसु मनि धरै ॥ जनु नानकु हरि देखि सुखु पावै सभ तन की भूख टरै ॥४॥३॥ {पन्ना 1263} पद्अर्थ: कउ = को। मीठ = मीठा, प्यारा। सभि = सारे। उचरै = उचारता है।1। तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है। मन = हे मन! निसतरै = पार लांघ जाता है। करन = कानों से। सुनि = सुन के। भव सागरु = संसार समुंद्र।1। रहाउ। हाटि = दुकान पर। विहाझे = खरीदे हुए, बिके हुए। हाटि विहाझे = गुलाम, मोल खरीदे। पाईअै = पा लिया जाता है। सभ मैलु = सारी मैल। हरै = दूर कर देता है।2। जनु = सेवक। त्रिपतै = अघा जाता है, तृप्त हो जाता है। जा = जब। बिचरै = विचारता है, मन में बसाता है। मीना = मछली। फूटि मरै = दुखी हो के मर जाता है।3। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कै = अथवा, या। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। देखि = देख के। टरै = टल जाती है, खत्म हो जाती है।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा हरी का नाम जपा कर, (जो मनुष्य जपता है, वह संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है। (जो मनुष्य) गुरू के बचन कानों से सुन के (परमात्मा का नाम) सिमरता है, वह मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उस मनुष्य को परमात्मा (का नाम) प्यारा लगता है। जो मनुष्य प्रभू के गुण उचारता रहता है, उसकी (माया की) भूख दूर हो जाती है, उसके सारे दुख (दूर हो जाते हैं)।1। हे भाई! जिस सेवक पर परमात्मा मेहर करता है, मैं उसका मूल्य खरीदा हुआ गुलाम हूँ। परमात्मा के सेवक को मिलने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है (वह आत्मिक आनंद मनुष्य के अंदर से) खोटी मति की सारी मति दूर कर देता है।2। हे भाई! परमात्मा के सेवक को परमात्मा (के नाम) की भूख लगी रहती है, जब वह परमात्मा के गुण मन में बसाता है, वह तृप्त हो जाता है। हे भाई! परमात्मा का भगत इस तरह है जैसे पानी की मछली है (पानी से विछुड़ के तड़फ के मर जाती है, वैसे ही परमात्मा का भगत) हरी-नाम को बिसारने से बहुत दुखी होता है।3। हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (अपने सेवक के हृदय में अपना) प्यार पैदा किया होता है (उस प्यार की कद्र) वह (स्वयं) जानता है, अथवा (वह सेवक) जानता है जिसके मन में (परमात्मा अपना प्यार) बसाता है। दास नानक उस प्रभू के दर्शन कर के आत्मिक आनंद हासिल करता है (इस आनंद की बरकति से नानक के) शरीर की सारी (मायावी) भूख दूर हो जाती है।4।3। मलार महला ४ ॥ जितने जीअ जंत प्रभि कीने तितने सिरि कार लिखावै ॥ हरि जन कउ हरि दीन्ह वडाई हरि जनु हरि कारै लावै ॥१॥ सतिगुरु हरि हरि नामु द्रिड़ावै ॥ हरि बोलहु गुर के सिख मेरे भाई हरि भउजलु जगतु तरावै ॥१॥ रहाउ ॥ जो गुर कउ जनु पूजे सेवे सो जनु मेरे हरि प्रभ भावै ॥ हरि की सेवा सतिगुरु पूजहु करि किरपा आपि तरावै ॥२॥ भरमि भूले अगिआनी अंधुले भ्रमि भ्रमि फूल तोरावै ॥ निरजीउ पूजहि मड़ा सरेवहि सभ बिरथी घाल गवावै ॥३॥ ब्रहमु बिंदे सो सतिगुरु कहीऐ हरि हरि कथा सुणावै ॥ तिसु गुर कउ छादन भोजन पाट पट्मबर बहु बिधि सति करि मुखि संचहु तिसु पुंन की फिरि तोटि न आवै ॥४॥ सतिगुरु देउ परतखि हरि मूरति जो अम्रित बचन सुणावै ॥ नानक भाग भले तिसु जन के जो हरि चरणी चितु लावै ॥५॥४॥ {पन्ना 1263-1264} पद्अर्थ: जीअ = ('जीउ' का बहुवचन)। प्रभि = प्रभू ने। तितने = वे सारे। सिरि = (हरेक के) सिर पर। लिखावै = लिखाता है। कउ = को। दीन् = दी है। वडाई = इज्जत। कारै = कार में, काम में। लावै = लगाता है, जोड़ता है।1। द्रिढ़ावै = मन पक्का करता है। गुर के सिख = हे गुरू के सिखो! भाई! और भाईयो! भउजलु जगतु = संसार समुंद्र। तरावै = पार लंघाता है।1। रहाउ। सो जनु = जो मनुष्य। पूजे सेवे = पूजता है सेवा करता है। प्रभ भावै = प्रभू को प्यारा लगता है। सेवा = भगती। पूजहु = पूजा करो। करि = कर के।2। भरमि = भटकना में पड़ के। भूले = गलत राह पर पड़े रहते हैं। अगिआनी = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ लोग। अंधुले = (माया के मोह में सही जीवन राह से) अंधे। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तोरावै = तोड़ता है। निरजीउ = निर्जीव (पत्थर की मूर्ति)। मढ़ा = समाधि। बिरथी = व्यर्थ। घाल = मेहनत।3। ब्रहम = परमात्मा। बिंदे = जानता है, सांझ डालता है। छादन = कपड़े। पाट पटंबर = रेशम, रेशमी कपड़े (पट+अंबर। अंबर = कपड़े)। सति करि = श्रद्धा से। मुखि = मुँह में। संचहु = इकट्ठे करो। मुखि संचहु = खिलाओ। तोटि = कमी। पुंन = पुन्य, भला कर्म।4। परतखि = प्रत्यक्ष, आँखों से दिखाई देता। मूरति = स्वरूप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले।5। अर्थ: हे भाई! गुरू (मनुष्य के) हृदय में परमात्मा का नाम पक्की तरह टिका देता है। (इसलिए) हे गुरू के सिखो! हे मेरे भाईयो! (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपा करो। परमात्मा संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।1। रहाउ। हे भाई! जितने भी जीव-जंतु प्रभू ने पैदा किए हैं, सारे ही (ऐसे हैं कि) हरेक के सिर पर (करने के लिए) कार लिख रखी है। (अपने) भगत को प्रभू ने यह वडिआइै बख्शी होती है कि प्रभू अपने भक्त को नाम-सिमरन की कार में लगाए रखता है।1। हे भाई! जो मनुष्य गुरू का आदर-सत्कार करता है गुरू की शरण पड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा को प्यारा लगता है। हे भाई! परमात्मा की सेवा-भक्ति किया करो, गुरू की शरण पड़े रहो (जो मनुष्य यह उद्यम करता है उसको प्रभू) मेहर करके आप पार लंघा लेता है।2। हे भाई! (गुरू-परमेश्वर को भुला के) मनुष्य भटक-भटक के (मूर्ति आदि की पूजा के लिए) फूल तोड़ता फिरता है। (ऐसे मनुष्य) भटकने के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ बने रहते हैं, उन्हें सही जीवन-मार्ग नहीं दिखाई देता। (वह अंधे मनुष्य) बेजान (मूर्तियों) को पूजते हैं, समाधियों को माथे टेकते रहते हैं। (ऐसा मनुष्य अपनी) सारी मेहनत व्यर्थ गवाता है।3। हे भाई! गुरू परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखता है, जगत उसको गुरू कहता है, गुरू जगत को परमात्मा की सिफतसालाह का उपदेश सुनाता है। हे भाई! ऐसे गुरू के आगे कई किस्मों के कपड़े, खाणे, रेश्मी कपड़े श्रद्धा से भेट किया करो। इस भले काम की तोट नहीं आती।4। हे नानक! (कह- हे भाई!) जो गुरू आत्मिक जीवन देने वाले (सिफत-सालाह के) बचन सुनाता रहता है, वह तो साफ तौर पर परमात्मा का रूप ही दिखता है। उस मनुष्य के अच्छे भाग्य होते हैं जो (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है।5।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |