श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मलार महला ५ ॥ परमेसरु होआ दइआलु ॥ मेघु वरसै अम्रित धार ॥ सगले जीअ जंत त्रिपतासे ॥ कारज आए पूरे रासे ॥१॥ सदा सदा मन नामु सम्हालि ॥ गुर पूरे की सेवा पाइआ ऐथै ओथै निबहै नालि ॥१॥ रहाउ ॥ दुखु भंना भै भंजनहार ॥ आपणिआ जीआ की कीती सार ॥ राखनहार सदा मिहरवान ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबान ॥२॥ कालु गवाइआ करतै आपि ॥ सदा सदा मन तिस नो जापि ॥ द्रिसटि धारि राखे सभि जंत ॥ गुण गावहु नित नित भगवंत ॥३॥ एको करता आपे आप ॥ हरि के भगत जाणहि परताप ॥ नावै की पैज रखदा आइआ ॥ नानकु बोलै तिस का बोलाइआ ॥४॥३॥२१॥ {पन्ना 1271}

पद्अर्थ: परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा मालिक प्रभू। दइआल = दयावान। मेघु = बादल, नाम जल से भरपूर गुर उपदेश। वरसै = बरखा करता है। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। आऐ रासे = रास आए, सफल हो जाते हैं।1।

मन = हे मन! समालि = संभाल, याद करता रह। सेवा = शरण। अेथै ओथै = इस लोक में और परलोक में।1। रहाउ।

भंना = तोड़ दिया, दूर कर दिया। भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। सार = संभाल। राखणहार = रक्षा कर सकने वाला। जाईअै = जाना चाहिए।2।

कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। करतै = करतार ने। मन = हे मन! जपि = जपा कर। दिसटि = मेहर की दृष्टि। धारि = धार के, कर के। सभि = सारे। नित = सदा।3।

तिस नो: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

आपे = आप ही। जाणहि = जानते हैं (बहुवचन)। नावै की पैज = नाम की लाज। नानकु = (कर्ता कारक, एकवचन)। नानकु बोलै = नानक बोलता है।4।

तिस का: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा का नाम याद करता रह (यह नाम) पूरे गुरू की शरण पड़ने से मिलता है, और इस लोक और परलोक में (जीव का) साथ देता है।1। रहाउ।

हे भाई! (जिस मनुष्य पर) परमात्मा दयावान होता है (उसके हृदय में गुरू का उपदेश रूपी) बादल आत्मि्क जीवन देने वाले नाम-जल की धाराओं की बरखा करता है। (जिन पर यह बरखा होती है, वह) सारे जीव (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। उनके सारे काम सफल हो जाते हैं।1।

हे भाई! रक्षा करने की समर्था वाला परमात्मा (जीवों पर) सदा दयावान रहता है, उसके (चरणों) से सदा सदके जाना चाहिए। (जीवों के) सारे डर नाश करने वाले उस प्रभू ने अपने पैदा किए हुए जीवों की सदा संभाल की है, और (जीवों का) हरेक दुख दूर किया है।2।

हे मन! सदा ही सदा ही उस परमात्मा का नाम जपा कर, (जिसने भी नाम जपा है) करतार ने (उसके सिर पर से आत्मिक) मौत दूर कर दी। हे भाई! भगवान के गुण सदा ही गाते रहो। (उस भगवान ने) मेहर निगाह करके सारे जीवों की (सदा) रक्षा की है।3।

हे भाई! करतार स्वयं ही स्वयं (हर जगह मौजूद) है उसके भगत उसका तेज-प्रताप जानते हैं। (वह शरण-योग्य है, शरण पड़े हुओं की बाँह पकड़ता है, अपने इस) नाम की लाज वह (सदा ही) रखता आ रहा है। उसका दास नानक उस (करतार) का प्रेरित किया हुआ ही (उसकी सिफत-सालाह का बोल) बोलता है।4।3।21।

मलार महला ५ ॥ गुर सरणाई सगल निधान ॥ साची दरगहि पाईऐ मानु ॥ भ्रमु भउ दूखु दरदु सभु जाइ ॥ साधसंगि सद हरि गुण गाइ ॥१॥ मन मेरे गुरु पूरा सालाहि ॥ नामु निधानु जपहु दिनु राती मन चिंदे फल पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ गुरु पारब्रहमु परमेसरु सोइ ॥ जनम मरण दूख ते राखै ॥ माइआ बिखु फिरि बहुड़ि न चाखै ॥२॥ गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ गुरु परमेसरु साचै नाइ ॥ सचु संजमु करणी सभु साची ॥ सो मनु निरमलु जो गुर संगि राची ॥३॥ गुरु पूरा पाईऐ वड भागि ॥ कामु क्रोधु लोभु मन ते तिआगि ॥ करि किरपा गुर चरण निवासि ॥ नानक की प्रभ सचु अरदासि ॥४॥४॥२२॥ {पन्ना 1271}

पद्अर्थ: निधान = खजाने (बहुवचन। निधानु = खजाना)। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर। जाइ = दूर हो जाता है। साध संगि = गुरू की संगति मे। गाइ = गाया कर।1।

मन = हे मन! सालाहि = सराहा कर। मन चिंदे = मन इच्छित। पाइ = पाता है।1। रहाउ।

जेवडु = जितना बड़ा। ते = से। राखै = बचाता है। बिखु = आत्मिक मौत लाने वाला जहर। बहुड़ि = दोबारा। ना चाखै = नहीं चखता, स्वाद लगा लगा के नहीं खाता।2।

महिमा = वडिआई। साचै नाइ = सदा कायम रहने वाले नाम में (टिका रहता है)। सचु = सदा स्थिर हरी नाम (का सिमरन)। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से बचाने का यतन। करणी = (करणीय) कर्तव्य। साची = सदा कायम रहने वाली सिफत सालाह। गुर संगि = गुरू की संगति में।3।

वडभागि = बड़ी किस्मत से। पाईअै = मिलता है। मन ते = मन से, मन में से। तिआगि = त्याग के, दूर कर के। करि = कर के। निवासि = टिकाए रख। सचु = सदा स्थिर हरी नाम।4।

अर्थ: हे मेरे मन! पूरे गुरू की (सदा) सिफत-सालाह किया कर। (गुरू की शरण पड़ कर) दिन-रात परमात्मा का नाम जपा कर (यही है सारे सुखों का) खजाना। (जो मनुष्य जपता है, वह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू की शरण पड़े रहने पर सारे खजाने (मिल जाते हैं); सदा कायम रहने वाली ईश्वरीय दरगाह में आदर मिलता है। हे भाई! गुरू की संगति में रह के सदा परमात्मा के गुण गाया कर (जो मनुष्य गाता है, उसका) भरम, डर, हरेक दुख-दर्द दूर हो जाता है।1।

हे भाई! (बख्शिशें करने में) गुरू के बराबर को और कोई नहीं। वह गुरू पारब्रहम है, गुरू परमेश्वर है। गुरू पैदा होने-मरने के चक्करों के दुखों से बचाता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह) आत्मिक मौत लाने वाली माया के जहर को बार-बार स्वाद लगा-लगा के नहीं चखता रहता।2।

हे भाई! गुरू की वडिआई बयान नहीं की जा सकती। गुरू परमेश्वर (का रूप) है, गुरू (परमात्मा के) सदा कायम रहने वाले नाम में (लीन रहता है)। परमात्मा का नाम सिमरते रहना- यही है गुरू का संयम। परमात्मा की सिफतसालाह करते रहना - यही है गुरू की करणी। जो मन गुरू की संगति में मस्त रहता है वह मन पवित्र हो जाता है।3।

हे भाई! पूरा गुरू बड़ी किस्मत से मिलता है, (जिसको मिलता है, वह मनुष्य अपने) मन में से काम-क्रोध-लोभ (आदिक विकार) दूर कर के (गुरू की शरण पड़ा रहता है)। हे प्रभू! (तेरे सेवक) नानक की यह अरदास है कि मेहर कर के (मुझे) गुरू के चरणों में टिकाए रख, और, अपना सदा-स्थिर नाम बख्श।4।4।22।

रागु मलार महला ५ पड़ताल घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुर मनारि प्रिअ दइआर सिउ रंगु कीआ ॥ कीनो री सगल सींगार ॥ तजिओ री सगल बिकार ॥ धावतो असथिरु थीआ ॥१॥ रहाउ ॥ ऐसे रे मन पाइ कै आपु गवाइ कै करि साधन सिउ संगु ॥ बाजे बजहि म्रिदंग अनाहद कोकिल री राम नामु बोलै मधुर बैन अति सुहीआ ॥१॥ ऐसी तेरे दरसन की सोभ अति अपार प्रिअ अमोघ तैसे ही संगि संत बने ॥ भव उतार नाम भने ॥ रम राम राम माल ॥ मनि फेरते हरि संगि संगीआ ॥ जन नानक प्रिउ प्रीतमु थीआ ॥२॥१॥२३॥ {पन्ना 1271}

नोट: पड़ताल- जहाँ कई ताल बार-बार पलटे जाते हैं।

पद्अर्थ: रि = री, हे सखी! गुर मना = गुरू को मना के, गुरू को प्रसन्न कर के। प्रिअ सिउ = प्यारे से। प्रिअ दइआर सिउ = प्यारे दयाल प्रभू के साथ। रंगु कीआ = आत्मिक आनंद माणा। री = हे सखी! सगल सींगार = सारे (आत्मिक) सुहज। धावतो = भटकता (मन)। असथिरु थीआ = अडोल हो गया, टिक गया।1।

अैसे = इस तरह। आपु = आपा भाव, स्वै भाव। गवाइ कै = दूर कर के। संगु = साथ, मेल जोल। बजहि = बज पड़ते हैं। म्रिदंग = ढोल। अनाहद = (अन+आहत) बिना बजाए, एक रस। कोकिल = कोयल। मधुर बैन = मीठे बचन। सुहीआ = सोहाने।1।

सोभ = शोभा, वडिआई। अति अपार = बहुत बेअंत। प्रिअ = हे प्यारे प्रभू! अमोघ = सफल, सफलता के निशाने से ना पीछे हटने वाली। संगि = (तेरे) साथ। बने = बन जाते हैं। भव = संसार समुंद्र। भव उतार नाम = संसार समुंद से पार लंघाने वाला नाम। भने = उचार के। रम = सुंदर। मनि = मन में। हरि संगि = हरी के साथ। संगीआ = साथी। प्रिउ = प्यारा प्रभू। थीआ = हो जाता है। प्रीतम थीआ = प्यारा हो जाता है।2।

अर्थ: हे सखी! (जिस जीव-स्त्री ने अपने) गुरू की प्रसन्नता हासिल करके दया के श्रोत प्यारे प्रभू के साथ आत्मिक आनंद पाना शुरू कर दिया, उसने सारे (आत्मिक) श्रंृगार कर लिए (भाव, उसके अंदर ऊँचे आत्मिक गुण पैदा हो गए), उसने सारे विकार त्याग दिए, उसका (पहला) भटकता मन डोलने से हट गया।1। रहाउ।

हे (मेरे) मन! तू भी इसी तरह (प्रभू का मिलाप) हासिल कर के (अपने अंदर से) स्वै-भाव दूर करके संत-जनों की संगति किया कर (तेरे अंदर ऐसा आनंद बना रहेगा, जैसे) एक-रस ढोल आदि साज़ बज रहे हैं, (तेरी जिहवा इस तरह) परमात्मा का नाम (उच्चारण करेगी, जैसे) कोयल मीठे और बहुत ही सुंदर बोल बोलती है।1।

हे प्यारे प्रभू! हे बहुत बेअंत प्रभू! तेरे दर्शनों की महिमा ऐसी है कि सफलता के निशाने से कभी पीछे नहीं हटती। संसार-समुंद्र से पार लंघाने वाला तेरा नाम जप-जप के तेरे संत भी तेरे चरणों में जुड़ के (तेरे जैसे) बन जाते हैं। हे नानक! जो सेवक परमात्मा के नाम की सुंदर माला अपने मन में फेरते रहते हैं, वे परमात्मा के साथ (टिके रहने वाले) साथी बन जाते हैं, प्रभू उनको प्यारा लगने लगता है।2।1।23।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh