श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभाती महला ५ ॥ गुरु गुरु करत सदा सुखु पाइआ ॥ दीन दइआल भए किरपाला अपणा नामु आपि जपाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ संतसंगति मिलि भइआ प्रगास ॥ हरि हरि जपत पूरन भई आस ॥१॥ सरब कलिआण सूख मनि वूठे ॥ हरि गुण गाए गुर नानक तूठे ॥२॥१२॥ {पन्ना 1341}

पद्अर्थ: करत = करते हुए। गुरु गुरु करत = गुरू को हर वक्त याद करते हुए। किरपाला = दयावान।1। रहाउ।

संत संगति = गुरू की संगति। मिलि = मिल के। प्रगास = (आत्मिक जीवन की सूझ की) रोशनी। जपत = जपते हुए।1।

सरब = सारे। कलिआण = कल्याण, सुख, आनंद। मनि = मन में। वूठे = आ बसे। नानक = हे नानक! गुर तूठे = गुरू के प्रसन्न होने पर।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू को हर वक्त याद करते हुए सदा आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ रहता है। गरीबों पर दया करने वाले प्रभू जी मेहरवान हो जाते हैं, और अपना नाम सवयं जपने के लिए (जीव को) प्रेरणा देते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू की संगति में मिल के (बैठने से मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम हर वक्त जपते हुए (हरेक) आशा पूरी हो जाती है।1।

हे नानक! यदि गुरू मेहरबान हो जाए, तो परमात्मा के गुण गाए जा सकते हैं (गुण गाने की बरकति से) सारे सुख-आनंद (मनुष्य के) मन में आ बसते हैं।2।12।

प्रभाती महला ५ घरु २ बिभास    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अवरु न दूजा ठाउ ॥ नाही बिनु हरि नाउ ॥ सरब सिधि कलिआन ॥ पूरन होहि सगल काम ॥१॥ हरि को नामु जपीऐ नीत ॥ काम क्रोध अहंकारु बिनसै लगै एकै प्रीति ॥१॥ रहाउ ॥ नामि लागै दूखु भागै सरनि पालन जोगु ॥ सतिगुरु भेटै जमु न तेटै जिसु धुरि होवै संजोगु ॥२॥ रैनि दिनसु धिआइ हरि हरि तजहु मन के भरम ॥ साधसंगति हरि मिलै जिसहि पूरन करम ॥३॥ जनम जनम बिखाद बिनसे राखि लीने आपि ॥ मात पिता मीत भाई जन नानक हरि हरि जापि ॥४॥१॥१३॥ {पन्ना 1341}

पद्अर्थ: अवरु = अन्य, और। ठाउ = जगह, आसरा। सरब सिधि = सारियां सिद्धियां। सरब कलिआन = सारे सुख। पूरन होहि = पूरे हो जाते हैं (बहुवचन)। काम = काम।1।

को = का। जपीअै = जपना चाहिए। नीत = नित्य, सदा। बिनसै = नाश हो जाता है। ऐकै प्रीति = एक परमातमा का ही प्यार।1। रहाउ।

नामि = नाम में। भागै = दूर हो जाता है। सरनि पालन जोगु = शरण पड़े की रक्षा कर सकने वाला प्रभू। भेटै = मिलता है। न तेटै = जोर नहीं डाल सकता। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगु = (गुरू से) मिलाप का अवसर।2।

रैनि = रात। तजहु = छोड़ो। भरम = भटकना। मिलै = मिलता है। जिसहि = जिस के। करम = भाग्य।3।

बिखाद = (विषाद) दुख कलेश। जापि = जपा कर।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा जपना चाहिए। (जो मनुष्य जपता है उसके अंदर से) काम क्रोध अहंकार (आदि हरेक विकार) नाश हो जाता है, (उसके अंदर) एक परमात्मा का प्यार बना रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! (परमातमा के नाम के बिना हम जीवों का) और कोई दूसरा आसरा नहीं है, परमात्मा के नाम के बिना (और कोई सहारा) नहीं है। (हरी-नाम में ही) सारी सिद्धियाँ हैं सारे सुख हैं। (नाम जपने की बरकति से) सारे काम सफल हो जाते हैं।1।

हे भाई! (जो मनुष्य परमात्मा के) नाम में जुड़ता है (उसका हरेक) दुख दूर हो जाता है (क्योंकि परमात्मा) शरण पड़े मनुष्य की रक्षा कर सकने वाला है। हे भाई! जिस मनुष्य को धुर-दरगाह से (गुरू के साथ) मिलाप का अवसर मिलता है, उसको गुरू मिल जाता है (और, उस मनुष्य पर) जम (भी) जोर नहीं डाल सकता।2।

हे भाई! (अपने) मन की सारी भटकनें छोड़ो, और दिन-रात सदा परमात्मा का नाम जपते रहो। जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जागते हैं, उसको गुरू की संगति में परमात्मा मिल जाता है।3।

हे दास नानक! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। परमात्मा ही माता पिता मित्र भाई है। (परमात्मा का नाम जपने से) अनेकों जन्मों के दुख-कलेश नाश हो जाते हैं, (दुखों-कलेशों से) परतमात्मा स्वयं ही बचा लेता है।4।1।13।

प्रभाती महला ५ बिभास पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रम राम राम राम जाप ॥ कलि कलेस लोभ मोह बिनसि जाइ अहं ताप ॥१॥ रहाउ ॥ आपु तिआगि संत चरन लागि मनु पवितु जाहि पाप ॥१॥ नानकु बारिकु कछू न जानै राखन कउ प्रभु माई बाप ॥२॥१॥१४॥ {पन्ना 1341}

पड़ताल-ताल बार बार पलटनी है गाते समय।

पद्अर्थ: रम = सर्व व्यापक। कलि = दुख, झगड़े। बिनसि जाइ = नाश हो जाता है (एक वचन)। अहं = अहंकार।1। रहाउ।

आपु = स्वै भाव। जाहि = दूर हो जाते हैं (बहुवचन)।1।

बारिकु = अंजान बच्चा। न जाणै = नहीं जानता। राखन कउ = रक्षा कर सकने वाला। माई = माँ।2।

अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम सदा जपा कर। (सिमरन की बरकति से) दुख कलेश लोभ मोह अहंकार का ताप - (हरेक विकार) नाश हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! स्वै-भाव छोड़ दे, संत जनों के चरणों में टिका रह। (इस तरह) मन पवित्र (हो जाता है, और सारे) पाप दूर हो जाते हैं।1।

हे भाई! नानक (तो प्रभू का एक) अंजान बच्चा (इन विकारों से बचने का) कोई ढंग-तरीका नहीं जानता। प्रभू स्वयं ही बचा सकने वाला है, वह प्रभू ही (नानक का) माता-पिता है।2।1।14।

प्रभाती महला ५ ॥ चरन कमल सरनि टेक ॥ ऊच मूच बेअंतु ठाकुरु सरब ऊपरि तुही एक ॥१॥ रहाउ ॥ प्रान अधार दुख बिदार दैनहार बुधि बिबेक ॥१॥ नमसकार रखनहार मनि अराधि प्रभू मेक ॥ संत रेनु करउ मजनु नानक पावै सुख अनेक ॥२॥२॥१५॥ {पन्ना 1341}

पद्अर्थ: टेक = आसरा। मूच = बड़ा।1। रहाउ।

अधार = आसरा। दुख बिदार = दुखों का नाश करने वाला। देनहार = दे सकने वाला। बिबेक = (अच्छे बुरे कामों की) परख।1।

मनि = मन में। अराधि = आराधना करो। मेक = एक, सिर्फ। रेनु = चरण धूड़। करउ = मैं करता हूँ। मजनु = स्नान। नानक = हे नानक! पावै = हासिल करता है।2।

अर्थ: हे प्रभू! सभ जीवों के ऊपर एक तू ही (रखवाला) है। तू बेअंत ऊँचा मालिक है, तू बेअंत बड़ा मालिक है। (तेरे) सुंदर चरणों की शरण ही (जीवों के लिए) आसरा है।1। रहाउ।

हे प्रभू! (तू सब जीवों की) जिंद का आसरा है, तू (सब जीवों के) दुख नाश करने वाला है, तू (जीवों को) अच्छे-बुरे कर्मों की परख कर सकने वाली बुद्धि (बिबेक) देने वाला है।1।

हे भाई! सिर्फ (उस) प्रभू को ही (अपने) मन में सिमरा करो, उस सब की रक्षा कर सकने वाले को सिर झुकाया करो। हे नानक! (कह- हे भाई!) मैं (उस प्रभू के) संत-जनों के चरणों की धूल में स्नान करता हूँ। (जो मनुष्य संत-जनों की चरण-धूड़ में स्नान करता है, वह) अनेकों सुख हासिल कर लेता है।2।2।15।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh